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लोक आयुक्त की रिपोर्ट का महत्व : दारा सिंह बनाम दलबारा सिंह मामला, पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट 2025

लोक आयुक्त की रिपोर्ट का महत्व : दारा सिंह बनाम दलबारा सिंह मामला, पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट 2025


भूमिका

न्यायालय में भूमि संबंधी विवादों का सबसे आम उपाय स्थायी निषेधाज्ञा (Permanent Injunction) है। ऐसे मामलों में जब किसी पक्ष द्वारा अतिक्रमण (Encroachment) का आरोप लगाया जाता है, तो साक्ष्य के रूप में अक्सर लोक आयुक्त (Local Commissioner) की रिपोर्ट महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हाल ही में पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने Dara Singh & Others v/s Dalbara Singh & Others, RSA-2734/2025 में यह स्पष्ट किया कि यदि लोक आयुक्त की रिपोर्ट बिना आपत्ति के रिकॉर्ड पर आती है और उसे साबित कर दिया जाता है, तो प्रतिवादियों को बाद में उसकी वैधता पर सवाल उठाने का अधिकार नहीं होता।


मामले की पृष्ठभूमि

मामला स्थायी निषेधाज्ञा (Suit for Permanent Injunction) से संबंधित था।

  • वादी (Plaintiff – Dalbara Singh & Others) ने यह दावा किया कि उनकी पैतृक भूमि पर प्रतिवादी (Defendants – Dara Singh & Others) ने अतिक्रमण कर लिया है।
  • उन्होंने न्यायालय से स्थायी निषेधाज्ञा की मांग की, जिससे प्रतिवादी आगे अतिक्रमण न कर सकें।
  • यह भी आरोप लगाया गया कि प्रतिवादी पहले ही भूमि के एक हिस्से पर कब्जा कर चुके हैं।

लोक आयुक्त की नियुक्ति

सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) की धारा 75 और आदेश 26 के अंतर्गत, न्यायालय को किसी मामले की सच्चाई जानने के लिए लोक आयुक्त नियुक्त करने का अधिकार है।

  • इस मामले में तहसीलदार को लोक आयुक्त नियुक्त किया गया।
  • लोक आयुक्त ने मौके पर जाकर सीमांकन (Demarcation) किया और यह रिपोर्ट दी कि प्रतिवादियों ने वादी की 6 मरले भूमि पर अतिक्रमण किया है।

लोक आयुक्त की रिपोर्ट का साक्ष्य के रूप में महत्व

वादी ने अदालत में लोक आयुक्त की रिपोर्ट को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया।

  • प्रतिवादियों ने इस रिपोर्ट पर कभी कोई आपत्ति दायर नहीं की।
  • बाद में जब मामला आगे बढ़ा, तो प्रतिवादी यह तर्क देने लगे कि वादी ने लोक आयुक्त (तहसीलदार) को गवाह के रूप में अदालत में पेश नहीं किया, इसलिए रिपोर्ट को साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।

अदालत की विवेचना

पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने प्रतिवादियों की इस दलील को खारिज करते हुए कहा—

  1. आपत्ति का अभाव – यदि किसी रिपोर्ट पर आपत्ति करनी थी, तो प्रतिवादी उसी समय करते जब रिपोर्ट दाखिल की गई थी। बाद में बिना आपत्ति के रिपोर्ट को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
  2. रिपोर्ट का स्वतंत्र महत्व – लोक आयुक्त न्यायालय का अधिकारी होता है, न कि पक्षकारों का। उसकी रिपोर्ट को अदालत संज्ञान में लेती है और यह न्यायिक कार्यवाही का हिस्सा बन जाती है।
  3. तहसीलदार की गवाही आवश्यक नहीं – चूँकि रिपोर्ट स्वयं न्यायालय द्वारा नियुक्त अधिकारी ने दी थी और उस पर कोई आपत्ति नहीं की गई, इसलिए वादी द्वारा तहसीलदार को गवाह के रूप में बुलाना आवश्यक नहीं था।
  4. स्पष्ट अतिक्रमण – रिपोर्ट से स्पष्ट प्रमाणित हुआ कि प्रतिवादी वास्तव में वादी की भूमि के 6 मरले हिस्से पर अतिक्रमण कर चुके थे।

न्यायालय का निर्णय

अदालत ने कहा कि:

  • वादी की ओर से प्रस्तुत साक्ष्य और लोक आयुक्त की रिपोर्ट पर्याप्त और विश्वसनीय हैं।
  • प्रतिवादी न तो रिपोर्ट को चुनौती देने में सफल हुए और न ही कोई प्रतिकूल साक्ष्य प्रस्तुत कर पाए।
  • इसलिए, वादी के पक्ष में स्थायी निषेधाज्ञा (Permanent Injunction) का डिक्री (Decree) पारित की गई।

कानूनी सिद्धांत और नज़ीर

इस निर्णय से कुछ महत्वपूर्ण कानूनी सिद्धांत स्थापित होते हैं :

  1. लोक आयुक्त की रिपोर्ट का महत्व – यह केवल सुझाव नहीं बल्कि न्यायिक कार्यवाही का अभिन्न हिस्सा है। जब तक रिपोर्ट को चुनौती नहीं दी जाती, यह निर्णायक साक्ष्य के रूप में मानी जाएगी।
  2. आपत्ति का समय पर उठाया जाना आवश्यक – यदि प्रतिवादी को रिपोर्ट पर संदेह था, तो उन्हें आपत्ति उसी समय दर्ज करनी चाहिए थी। बाद में उठाई गई आपत्ति अस्वीकार्य होगी।
  3. गवाह के रूप में लोक आयुक्त की आवश्यकता नहीं – चूँकि वह न्यायालय का अधिकारी है, उसकी रिपोर्ट स्वयं ही पर्याप्त है।

सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के अंतर्गत स्थिति

  • Order 26 Rule 9 CPC – न्यायालय किसी भूमि या भवन का सीमांकन कराने के लिए लोक आयुक्त नियुक्त कर सकता है।
  • Order 26 Rule 10 CPC – लोक आयुक्त की रिपोर्ट न्यायालय में साक्ष्य का हिस्सा बन जाती है।
  • जब तक इस रिपोर्ट पर आपत्ति नहीं की जाती, यह न्यायालय के निर्णय का आधार हो सकती है।

समान न्यायिक दृष्टांत (Case Laws)

  • हरियाणा स्टेट इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन बनाम कोकिला (2006) – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लोक आयुक्त की रिपोर्ट न्यायालय के समक्ष निर्णायक भूमिका निभाती है।
  • जगतार सिंह बनाम राज्य पंजाब (2012) – पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने माना कि यदि रिपोर्ट पर समय पर आपत्ति नहीं की जाती, तो उसे अंतिम माना जाएगा।
  • बंसीलाल बनाम राम स्वरूप (2015) – दिल्ली हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि लोक आयुक्त न्यायालय की आँख और कान होता है।

मामले का महत्व

यह फैसला निम्न कारणों से महत्वपूर्ण है :

  1. भूमि विवादों में सीमांकन की जटिलता को दूर करने के लिए लोक आयुक्त की रिपोर्ट निर्णायक साबित होती है।
  2. प्रतिवादी द्वारा आपत्ति न करने से उनका दावा कमजोर हो जाता है।
  3. न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि तहसीलदार को गवाह के रूप में बुलाना आवश्यक नहीं।

निष्कर्ष

Dara Singh & Others v/s Dalbara Singh & Others, RSA-2734/2025 का फैसला भूमि विवादों से जुड़े मुकदमों के लिए एक अहम नज़ीर है। इसने यह स्पष्ट कर दिया कि—

  • लोक आयुक्त की रिपोर्ट न्यायालय के निर्णय में केंद्रीय भूमिका निभाती है।
  • रिपोर्ट पर समय रहते आपत्ति करना अनिवार्य है।
  • एक बार रिपोर्ट बिना आपत्ति के स्वीकार हो जाए, तो बाद में उसकी वैधता पर सवाल नहीं उठाए जा सकते।

इस प्रकार यह फैसला न केवल भूमि विवादों बल्कि सिविल प्रक्रिया संहिता की व्याख्या में भी मार्गदर्शक सिद्ध होगा।


Case Comment

Dara Singh & Others v/s Dalbara Singh & Others, Punjab & Haryana High Court, 2025 (RSA-2734/2025)


1. Facts of the Case (मामले के तथ्य)

  • वादी (Dalbara Singh & Others) ने स्थायी निषेधाज्ञा (Permanent Injunction) का वाद दायर किया, जिसमें आरोप था कि प्रतिवादी (Dara Singh & Others) ने उनकी भूमि पर अतिक्रमण कर लिया है।
  • न्यायालय ने मौके का निरीक्षण कराने हेतु तहसीलदार को लोक आयुक्त (Local Commissioner) नियुक्त किया।
  • लोक आयुक्त की रिपोर्ट में पाया गया कि प्रतिवादियों ने वास्तव में 6 मरले भूमि पर कब्जा कर लिया है।
  • वादी ने अदालत में यह रिपोर्ट साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत की।
  • प्रतिवादियों ने कभी कोई आपत्ति इस रिपोर्ट पर दायर नहीं की। बाद में उन्होंने यह तर्क दिया कि तहसीलदार को गवाह के रूप में पेश नहीं किया गया, इसलिए रिपोर्ट को प्रमाण के रूप में मान्यता नहीं मिलनी चाहिए।

2. Issues Before the Court (विवाद के प्रश्न)

  1. क्या लोक आयुक्त की रिपोर्ट को मान्य साक्ष्य माना जा सकता है, यदि प्रतिवादियों ने उस पर कोई आपत्ति नहीं की?
  2. क्या वादी के लिए आवश्यक है कि वह तहसीलदार (लोक आयुक्त) को अदालत में गवाह के रूप में पेश करे?
  3. क्या प्रतिवादी बाद में यह तर्क उठा सकते हैं कि रिपोर्ट को साबित नहीं किया गया?

3. Arguments of the Parties (पक्षकारों के तर्क)

वादी की ओर से:

  • लोक आयुक्त की रिपोर्ट न्यायालय द्वारा नियुक्त अधिकारी की है, अतः यह स्वतः ही वैध साक्ष्य है।
  • प्रतिवादियों ने कोई आपत्ति नहीं की, इसलिए रिपोर्ट अंतिम और निर्णायक है।
  • तहसीलदार को गवाह के रूप में बुलाना आवश्यक नहीं।

प्रतिवादियों की ओर से:

  • रिपोर्ट को केवल दाखिल करना पर्याप्त नहीं है; इसे साबित करने के लिए तहसीलदार को गवाह बनाना आवश्यक था।
  • रिपोर्ट पर आधारित होकर डिक्री पारित नहीं की जा सकती।

4. Findings of the Court (न्यायालय की विवेचना)

  • न्यायालय ने पाया कि लोक आयुक्त न्यायालय का अधिकारी होता है, और उसकी रिपोर्ट Order 26 Rule 10 CPC के अनुसार स्वतः ही कार्यवाही का हिस्सा बन जाती है।
  • यदि प्रतिवादियों को रिपोर्ट पर आपत्ति थी, तो उन्हें समय पर आपत्ति दर्ज करनी चाहिए थी।
  • रिपोर्ट पर कोई आपत्ति दायर न करने के कारण इसे अंतिम एवं विश्वसनीय साक्ष्य माना जाएगा।
  • वादी द्वारा तहसीलदार को गवाह के रूप में पेश न करना कोई कमी नहीं है।

5. Ratio Decidendi (निर्णय का कानूनी आधार)

  1. लोक आयुक्त की रिपोर्ट न्यायालय की आँख और कान है।
  2. जब तक रिपोर्ट पर आपत्ति दर्ज नहीं की जाती, यह निर्णायक साक्ष्य के रूप में स्वीकार होगी।
  3. वादी पर यह बोझ नहीं कि वह तहसीलदार को गवाह के रूप में बुलाए।
  4. प्रतिवादी द्वारा बाद में उठाई गई आपत्ति निराधार है।

6. Decision (निर्णय)

अदालत ने वादी के पक्ष में स्थायी निषेधाज्ञा का डिक्री (Decree for Permanent Injunction) पारित किया और प्रतिवादियों को आगे किसी भी प्रकार के अतिक्रमण से रोका।


7. Importance of the Case (मामले का महत्व)

  • भूमि विवादों में सीमांकन (Demarcation) और अतिक्रमण संबंधी मामलों के लिए यह निर्णय एक महत्वपूर्ण नज़ीर है।
  • इससे यह सिद्धांत मजबूत हुआ कि लोक आयुक्त की रिपोर्ट निर्णायक भूमिका निभाती है और उस पर समय रहते आपत्ति करना अनिवार्य है।
  • यह निर्णय सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) की धारा 75 और आदेश 26 का व्यावहारिक अनुप्रयोग दर्शाता है।

8. Conclusion (निष्कर्ष)

Dara Singh & Others v/s Dalbara Singh & Others, 2025 में पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि लोक आयुक्त की रिपोर्ट का महत्व अत्यधिक है और उस पर आपत्ति न करना प्रतिवादियों के खिलाफ जाता है। यह फैसला भूमि विवादों के त्वरित और निष्पक्ष निस्तारण के लिए मार्गदर्शक है।