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अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 29 और भारत में अधिवक्ताओं का विशेषाधिकार

अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 29 और भारत में अधिवक्ताओं का विशेषाधिकार

प्रस्तावना

भारतीय विधिक व्यवस्था में अधिवक्ताओं (Advocates) की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। न्यायालय और न्यायिक प्रक्रिया की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि पक्षकारों को सही मार्गदर्शन और प्रभावी प्रतिनिधित्व उपलब्ध हो। भारत में इस व्यवस्था को संगठित और विनियमित करने के लिए अधिवक्ता अधिनियम, 1961 (Advocates Act, 1961) लागू किया गया। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य विधिक पेशे को एकीकृत करना, अधिवक्ताओं की योग्यताओं और अधिकारों को निर्धारित करना तथा पेशेवर आचरण की निगरानी करना है।

इस अधिनियम की धारा 29 (Section 29) विशेष महत्व रखती है क्योंकि यह स्पष्ट करती है कि भारत में कानून के अभ्यास (practice of law) का अधिकार केवल अधिवक्ताओं को ही है। इसका अर्थ यह है कि भारत में किसी भी अन्य वर्ग या व्यक्ति को बिना अधिवक्ता बने न्यायालयों या विधिक कार्यवाही में पेशेवर तौर पर कार्य करने का अधिकार प्राप्त नहीं है।


अधिवक्ता अधिनियम, 1961 का संक्षिप्त परिचय

अधिवक्ता अधिनियम, 1961 को भारतीय संसद ने 19 मई, 1961 को पारित किया और यह 1 जून, 1961 से लागू हुआ। इसका प्रमुख उद्देश्य था—

  1. विधिक पेशे का एकीकरण – पहले विभिन्न प्रांतों और उच्च न्यायालयों में वकीलों, अटॉर्नियों, वकील-मुक़दमों, और बैरिस्टर जैसे अलग-अलग वर्ग कार्यरत थे।
  2. एक समान वर्ग की स्थापना – अधिनियम ने “Advocate” नामक एक ही वर्ग को मान्यता दी।
  3. बार काउंसिल की स्थापना – अधिवक्ताओं के पंजीकरण, आचार-संहिता और अनुशासनात्मक कार्यवाही की जिम्मेदारी बार काउंसिल ऑफ इंडिया तथा राज्य बार काउंसिल्स को सौंपी गई।
  4. अधिकार और दायित्व का निर्धारण – अधिवक्ता को अदालत में वकालत करने, मुवक्किल का प्रतिनिधित्व करने और कानूनी परामर्श देने का विशिष्ट अधिकार दिया गया।

धारा 29 का प्रावधान

धारा 29, अधिवक्ता अधिनियम, 1961 इस प्रकार कहती है:

“Subject to the provisions of this Act and any rules made thereunder, there shall, as from the appointed day, be only one class of persons entitled to practice the profession of law, namely, advocates.”

अर्थात् – अधिनियम के लागू होने की तिथि से भारत में कानून का अभ्यास करने का अधिकार केवल एक ही वर्ग के व्यक्तियों को है और वह वर्ग है “Advocate”


धारा 29 का महत्व

धारा 29 का महत्व कई दृष्टियों से है:

  1. कानून के अभ्यास का एकाधिकार – अधिवक्ता ही न्यायालयों में वकालत कर सकते हैं। अन्य कोई व्यक्ति, चाहे वह कितना ही पढ़ा-लिखा क्यों न हो, यदि अधिवक्ता के रूप में नामांकित नहीं है तो वह वकालत नहीं कर सकता।
  2. पेशेवर मानकीकरण – अधिवक्ता बनने के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता (कानून की डिग्री) और बार काउंसिल में नामांकन आवश्यक है।
  3. मुवक्किलों का संरक्षण – मुवक्किल यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि उनका प्रतिनिधित्व एक प्रशिक्षित और पंजीकृत अधिवक्ता द्वारा किया जाएगा।
  4. विधिक व्यवस्था की शुचिता – केवल अधिवक्ताओं को अनुमति देने से विधिक व्यवस्था में अनुशासन और विश्वसनीयता बनी रहती है।

अधिवक्ता बनने की प्रक्रिया

भारत में अधिवक्ता बनने के लिए कुछ चरण आवश्यक हैं:

  1. शैक्षणिक योग्यता – किसी मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय से एलएल.बी. (LL.B.) डिग्री प्राप्त करना।
  2. नामांकन – संबंधित राज्य बार काउंसिल में अधिवक्ता के रूप में पंजीकरण कराना।
  3. AIBE परीक्षाAll India Bar Examination (AIBE) उत्तीर्ण करना, जिसके बाद अधिवक्ता को “Certificate of Practice” प्रदान किया जाता है।
  4. बार काउंसिल की सदस्यता – अधिवक्ता बार काउंसिल के नियमों और आचार-संहिता के अधीन रहता है।

केवल अधिवक्ता ही अदालतों में वकालत कर सकते हैं

धारा 29 के अनुसार अदालतों में वकालत करने का अधिकार केवल अधिवक्ताओं को है। इसका तात्पर्य यह है कि—

  • किसी भी दीवानी, आपराधिक, प्रशासनिक या संवैधानिक कार्यवाही में मुवक्किल का प्रतिनिधित्व केवल अधिवक्ता ही कर सकता है।
  • गैर-अधिवक्ता व्यक्ति यदि पेशेवर रूप से वकालत करने का प्रयास करता है तो यह अवैध अभ्यास (unauthorized practice of law) माना जाएगा।
  • अधिवक्ता को विशेषाधिकार प्राप्त है कि वह उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय, जिला अदालत या किसी भी न्यायाधिकरण में उपस्थित होकर मुवक्किल की ओर से दलील पेश कर सके।

न्यायालयों के निर्णय

भारत के न्यायालयों ने धारा 29 के महत्व को कई निर्णयों में रेखांकित किया है:

  1. Harish Uppal v. Union of India (2003) – सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अधिवक्ताओं को ही अदालतों में पेशेवर प्रतिनिधित्व का अधिकार है।
  2. Pravin Shah v. K.A. Mohd. Ali (2001) – अदालत ने कहा कि अधिवक्ता का दर्जा केवल बार काउंसिल में नामांकन और प्रमाण पत्र प्राप्त करने पर ही मान्य होता है।
  3. Bar Council of India v. A.K. Balaji (2018) – सुप्रीम कोर्ट ने माना कि विदेशी वकील भारत में नियमित वकालत नहीं कर सकते, वे केवल “fly in and fly out” आधार पर अस्थायी सलाह दे सकते हैं।

अधिवक्ताओं के अधिकार

अधिवक्ता अधिनियम, 1961 अधिवक्ताओं को निम्नलिखित अधिकार देता है:

  1. वकालत करने का अधिकार – सभी न्यायालयों और अधिकरणों में उपस्थित होकर दलील करना।
  2. मुवक्किल का प्रतिनिधित्व – मुवक्किल की ओर से लिखित और मौखिक प्रस्तुति देना।
  3. कानूनी परामर्श देना – विधिक मुद्दों पर सलाह देना।
  4. सम्मान और विशेषाधिकार – अधिवक्ता को अदालत में सम्मान दिया जाता है और न्यायिक प्रक्रिया में उनकी भूमिका विशेष मानी जाती है।

अधिवक्ताओं के कर्तव्य और दायित्व

धारा 29 केवल अधिकार ही नहीं देती, बल्कि इसके साथ कई दायित्व भी जुड़े हैं:

  1. आचार संहिता का पालन – अधिवक्ता को पेशेवर शुचिता और ईमानदारी बनाए रखनी होती है।
  2. मुवक्किल के प्रति निष्ठा – मुवक्किल के हितों की रक्षा करना और उसकी गोपनीयता बनाए रखना।
  3. अदालत के प्रति दायित्व – अधिवक्ता को न्यायालय के प्रति सम्मानजनक और निष्पक्ष रहना होता है।
  4. सार्वजनिक दायित्व – अधिवक्ता न्याय व्यवस्था का हिस्सा है, इसलिए उसे सामाजिक न्याय और समानता को बढ़ावा देना होता है।

गैर-अधिवक्ताओं द्वारा वकालत पर रोक

धारा 29 और धारा 33 (अधिवक्ता अधिनियम, 1961) मिलकर यह सुनिश्चित करती हैं कि अदालत में पेशेवर प्रतिनिधित्व केवल अधिवक्ता ही कर सकते हैं। यदि कोई गैर-अधिवक्ता वकालत करता है तो—

  • यह अवैध होगा।
  • संबंधित व्यक्ति के खिलाफ अवमानना कार्यवाही हो सकती है।
  • मुवक्किल को भी इससे नुकसान उठाना पड़ सकता है क्योंकि उसका प्रतिनिधित्व अमान्य माना जाएगा।

धारा 29 के व्यावहारिक प्रभाव

  1. विधिक पेशे का संरक्षण – केवल योग्य और प्रशिक्षित व्यक्ति ही वकालत कर सकते हैं।
  2. न्यायिक प्रक्रिया की शुचिता – अवैध या गैर-पेशेवर व्यक्तियों को अदालतों से बाहर रखा गया।
  3. अंतर्राष्ट्रीय मान्यता – भारत की विधिक व्यवस्था वैश्विक मानकों के अनुरूप बनी।
  4. जनहित की सुरक्षा – आम जनता को यह भरोसा मिलता है कि उसका प्रतिनिधित्व एक सक्षम व्यक्ति कर रहा है।

निष्कर्ष

धारा 29, अधिवक्ता अधिनियम, 1961 भारतीय विधिक प्रणाली की रीढ़ है। यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि भारत में विधिक अभ्यास केवल अधिवक्ताओं के लिए आरक्षित हो। इससे न केवल पेशे की गरिमा और अनुशासन बना रहता है, बल्कि न्यायपालिका और जनता दोनों को सुरक्षा भी मिलती है।

अतः यह कहा जा सकता है कि धारा 29 ने भारतीय अधिवक्ताओं को एक विशेष दर्जा प्रदान किया है और यह व्यवस्था न्याय के प्रशासन में पारदर्शिता और विश्वसनीयता बनाए रखने में सहायक है।