State of Haryana v. Bhajan Lal (1992) : FIR और आपराधिक कार्यवाही निरस्तीकरण पर ऐतिहासिक निर्णय
प्रस्तावना
भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में एफआईआर (FIR) एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है, क्योंकि यह आपराधिक मामले की नींव रखती है। लेकिन कई बार एफआईआर का दुरुपयोग कर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों, व्यक्तिगत शत्रुओं या निर्दोष व्यक्तियों को झूठे मामलों में फँसाने की कोशिश की जाती है। ऐसे मामलों में यह प्रश्न उठता है कि क्या अदालत को अधिकार है कि वह एफआईआर या आपराधिक कार्यवाही को प्रारंभिक स्तर पर ही निरस्त कर दे?
इसी संदर्भ में State of Haryana v. Bhajan Lal (1992 Supp (1) SCC 335) का ऐतिहासिक निर्णय सामने आया, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि यदि प्रथम दृष्टया किसी एफआईआर में अपराध सिद्ध नहीं होता, तो अदालत उसे निरस्त कर सकती है। इस केस ने भारतीय आपराधिक न्यायशास्त्र में एक महत्वपूर्ण मापदंड स्थापित किया।
मामले की पृष्ठभूमि
भजनलाल हरियाणा के एक प्रमुख राजनेता और तत्कालीन मुख्यमंत्री रहे। उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए और पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज की गई।
- भजनलाल ने आरोप लगाया कि यह एफआईआर राजनीतिक दुर्भावना और प्रतिशोध के कारण दर्ज की गई है।
- उन्होंने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और प्राथमिकी (FIR) को रद्द करने की मांग की।
- उच्च न्यायालय ने उनकी याचिका स्वीकार कर एफआईआर को निरस्त कर दिया।
- इसके खिलाफ हरियाणा राज्य ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की।
इस प्रकार यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पहुँचा, जहाँ एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न पर विचार हुआ — क्या अदालतें, विशेषकर उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय, एफआईआर या आपराधिक कार्यवाही को प्रारंभिक स्तर पर ही रद्द कर सकती हैं?
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने अपने विस्तृत निर्णय में यह कहा कि:
- संविधान और दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत शक्तियाँ
- उच्च न्यायालय को अनुच्छेद 226 के तहत रिट जारी करने और
- दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 के तहत न्याय के हित में आदेश पारित करने का अधिकार है।
- इन शक्तियों का प्रयोग तभी होना चाहिए जब एफआईआर में दर्ज अपराध प्रथम दृष्टया सिद्ध न होता हो या न्याय का घोर दुरुपयोग हो रहा हो।
- एफआईआर और अपराध का प्रथम दृष्टया आधार
- यदि किसी एफआईआर में आरोप किसी अपराध के आवश्यक तत्वों को नहीं दर्शाते, तो उसे निरस्त किया जा सकता है।
- मात्र सामान्य या अस्पष्ट आरोप पर्याप्त नहीं हैं।
- न्यायालय का विवेकाधिकार
- यह शक्ति अपवादस्वरूप है और इसे बहुत ही सावधानीपूर्वक प्रयोग करना चाहिए।
- हर मामले में एफआईआर रद्द नहीं की जा सकती, बल्कि केवल उन्हीं मामलों में जहाँ मामला पूरी तरह से निराधार हो।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित सात श्रेणियाँ
इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने सात परिस्थितियाँ निर्धारित कीं, जिनमें अदालतें एफआईआर या आपराधिक कार्यवाही को निरस्त कर सकती हैं। ये आज भी मार्गदर्शक सिद्धांत माने जाते हैं:
- जहाँ एफआईआर में दर्ज आरोप, पढ़ने पर भी कोई अपराध नहीं बनाते।
उदाहरण: यदि किसी ने कहा कि “फलाँ व्यक्ति ने मुझे घूरा”, तो यह किसी दंडनीय अपराध का गठन नहीं करता। - जहाँ आरोप अस्पष्ट, अनिश्चित या पूरी तरह से निराधार हों।
केवल कल्पना या अनुमान के आधार पर अपराध नहीं बन सकता। - जहाँ आरोप सिविल विवाद से संबंधित हों, न कि आपराधिक अपराध से।
उदाहरण: यदि भूमि या संपत्ति का विवाद है और उसे आपराधिक मुकदमे का रूप दिया गया है। - जहाँ आरोपित आचरण किसी भी आपराधिक कानून के अंतर्गत दंडनीय न हो।
- जहाँ जाँच में स्पष्ट रूप से कोई सबूत न मिले और अभियोजन जारी रखना न्याय का दुरुपयोग हो।
- जहाँ मामला दुर्भावना, प्रतिशोध या व्यक्तिगत द्वेष के कारण दर्ज किया गया हो।
- जहाँ न्याय के हित में कार्यवाही जारी रखना उचित न हो।
ये सात श्रेणियाँ आगे चलकर Bhajan Lal Guidelines के नाम से प्रसिद्ध हुईं।
निर्णय का महत्व
- न्यायालय की सुरक्षात्मक भूमिका
यह निर्णय सुनिश्चित करता है कि निर्दोष व्यक्तियों को झूठे मामलों में फँसाया न जाए। अदालतें ऐसे मामलों में हस्तक्षेप कर सकती हैं। - दुरुपयोग की रोकथाम
पुलिस और शिकायतकर्ताओं द्वारा एफआईआर के दुरुपयोग की संभावना को नियंत्रित करने का प्रयास। - व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा
संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा का विस्तार। - न्यायपालिका की सक्रियता
यह निर्णय दर्शाता है कि न्यायपालिका केवल विवादों का निपटारा करने तक सीमित नहीं है, बल्कि मौलिक अधिकारों की रक्षा में भी अग्रणी है।
आलोचना
हालाँकि यह निर्णय ऐतिहासिक है, फिर भी इसकी कुछ आलोचनाएँ भी की गईं:
- न्यायालय की शक्ति का दुरुपयोग
यह चिंता जताई गई कि यदि अदालतें बार-बार एफआईआर रद्द करने लगें, तो पुलिस की जाँच प्रक्रिया बाधित हो सकती है। - सीमाओं का अभाव
“न्याय के हित” की व्याख्या काफी व्यापक है, जिससे अलग-अलग अदालतें अलग-अलग मानदंड अपना सकती हैं। - जाँच एजेंसी की भूमिका कमजोर करना
प्रारंभिक स्तर पर ही एफआईआर रद्द करना कभी-कभी वास्तविक अपराधों की जाँच को भी प्रभावित कर सकता है।
इस निर्णय का प्रभाव
- यह केस आज भी एफआईआर निरस्तीकरण के मामलों में सबसे अधिक उद्धृत किया जाता है।
- उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय जब भी धारा 482 CrPC के तहत कोई कार्यवाही रद्द करते हैं, तो Bhajan Lal Guidelines का हवाला अवश्य दिया जाता है।
- इस निर्णय ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता और न्याय के बीच संतुलन स्थापित करने की कोशिश की।
अन्य महत्वपूर्ण मामलों से तुलना
- R.P. Kapur v. State of Punjab (AIR 1960 SC 866)
- इसमें भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अदालतें एफआईआर रद्द कर सकती हैं यदि मामला निराधार हो।
- लेकिन भजनलाल मामले में यह सिद्धांत और अधिक स्पष्ट और विस्तृत किया गया।
- Zandu Pharmaceutical Works v. Mohd. Sharaful Haque (2005)
- सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि यदि कार्यवाही दुर्भावना से प्रेरित है तो उसे निरस्त किया जा सकता है।
निष्कर्ष
State of Haryana v. Bhajan Lal (1992) भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली का एक मील का पत्थर है। इसने स्पष्ट किया कि अदालतें केवल निष्क्रिय दर्शक नहीं हैं, बल्कि उन्हें यह सुनिश्चित करना है कि न्याय का दुरुपयोग न हो।
भजनलाल केस ने यह सिद्धांत स्थापित किया कि:
- एफआईआर दर्ज होते ही स्वतः अभियोजन नहीं चलाया जा सकता,
- अदालतों को शक्ति है कि वे प्रथम दृष्टया आधारहीन मामलों को रोकें,
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता और न्याय के बीच संतुलन बनाए रखा जाए।
इस प्रकार, यह निर्णय आज भी कानून छात्रों, वकीलों और न्यायपालिका के लिए मार्गदर्शक है और “झूठी एफआईआर के खिलाफ सुरक्षा कवच” के रूप में कार्य करता है।