महिला और बाल अधिकारः कानून की दृष्टि से
प्रस्तावना
भारतीय समाज में महिला और बालक दोनों ही संवेदनशील वर्ग के रूप में देखे जाते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से महिलाएँ लंबे समय तक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक असमानता की शिकार रही हैं, वहीं बच्चे भी शोषण, उपेक्षा और हिंसा से पीड़ित रहे हैं। आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था और मानवाधिकारों की अवधारणा ने महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा एवं सशक्तिकरण को प्राथमिकता दी है। भारतीय संविधान और विभिन्न विशेष अधिनियमों ने महिला एवं बाल अधिकारों की रक्षा के लिए ठोस प्रावधान किए हैं। यह लेख महिला और बाल अधिकारों की कानूनी व्यवस्था, उनके संरक्षण, व्यावहारिक चुनौतियों और न्यायिक दृष्टिकोण पर विस्तार से प्रकाश डालता है।
महिला अधिकारों की संवैधानिक व्यवस्था
भारतीय संविधान महिलाओं को समानता और गरिमा के अधिकार प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 14 – कानून के समक्ष समानता।
- अनुच्छेद 15(1) एवं 15(3) – राज्य को महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान बनाने की अनुमति।
- अनुच्छेद 16 – रोजगार में समान अवसर।
- अनुच्छेद 21 – जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार, जिसमें महिलाओं की गरिमा और सुरक्षा भी शामिल है।
- अनुच्छेद 39 (क), (ख) एवं (घ) – राज्य को निर्देश देता है कि महिलाओं और पुरुषों को समान कार्य के लिए समान वेतन और स्वास्थ्य सुनिश्चित किया जाए।
- अनुच्छेद 42 – प्रसूति अवकाश और कार्य परिस्थितियों में सुधार।
इन संवैधानिक प्रावधानों ने महिलाओं को केवल औपचारिक समानता ही नहीं, बल्कि वास्तविक सुरक्षा और अवसर भी देने का आधार तैयार किया।
महिला अधिकारों से संबंधित प्रमुख कानून
- घरेलू हिंसा से संरक्षण अधिनियम, 2005 – महिलाओं को शारीरिक, मानसिक, यौन और आर्थिक हिंसा से सुरक्षा प्रदान करता है।
- दहेज निषेध अधिनियम, 1961 – दहेज की मांग, स्वीकार या देने को अपराध घोषित करता है।
- यौन उत्पीड़न (कार्यस्थल पर निवारण) अधिनियम, 2013 – कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की रोकथाम और पीड़िता को न्याय प्रदान करने की व्यवस्था।
- हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 एवं मुस्लिम व्यक्तिगत कानून – विवाह, तलाक और भरण-पोषण के अधिकारों में महिलाओं की स्थिति को सुनिश्चित करते हैं।
- संपत्ति में अधिकार – हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के बाद बेटियों को भी पुत्रों के समान पैतृक संपत्ति का अधिकार प्राप्त हुआ।
- कारखाना अधिनियम, 1948 और मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 – महिलाओं की कार्य परिस्थितियों और मातृत्व अवकाश की गारंटी देते हैं।
बाल अधिकारों की संवैधानिक व्यवस्था
बच्चों के अधिकारों को भी भारतीय संविधान ने विशेष महत्व दिया है।
- अनुच्छेद 21A – 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा।
- अनुच्छेद 24 – बच्चों को कारखानों, खानों और खतरनाक कामों में रोजगार से प्रतिबंधित करता है।
- अनुच्छेद 39 (ई) और (एफ) – राज्य को निर्देश देता है कि बच्चों का स्वास्थ्य और शिक्षा सुरक्षित रहे तथा उन्हें शोषण से बचाया जाए।
- अनुच्छेद 45 – 6 वर्ष तक के बच्चों की देखभाल और शिक्षा के लिए प्रावधान।
बाल अधिकारों से संबंधित प्रमुख कानून
- बाल न्याय (बालकों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 – अपराध में संलिप्त बच्चों और देखभाल की आवश्यकता वाले बच्चों के पुनर्वास एवं संरक्षण की व्यवस्था।
- बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 – लड़कों और लड़कियों के लिए न्यूनतम विवाह आयु निर्धारित करता है और बाल विवाह को अवैध ठहराता है।
- बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986 – 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को किसी भी खतरनाक उद्योग या काम में लगाना अपराध है।
- पॉक्सो अधिनियम, 2012 – बच्चों को यौन शोषण, उत्पीड़न और पोर्नोग्राफी से सुरक्षा प्रदान करता है।
- शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 – सभी बच्चों के लिए गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक शिक्षा सुनिश्चित करता है।
- किशोर न्यायालय और बाल कल्याण समिति – बच्चों के मामलों को संवेदनशीलता से देखने के लिए विशेष तंत्र।
अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य
भारत ने महिला एवं बाल अधिकारों से संबंधित कई अंतर्राष्ट्रीय संधियों और घोषणाओं पर हस्ताक्षर किए हैं।
- CEDAW (Convention on the Elimination of All Forms of Discrimination Against Women), 1979 – महिलाओं के भेदभाव को समाप्त करने हेतु।
- CRC (Convention on the Rights of the Child), 1989 – बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा और विकास के अधिकारों को मान्यता।
इन संधियों के अनुरूप भारत ने अपने राष्ट्रीय कानूनों को सुदृढ़ किया है।
न्यायिक दृष्टिकोण
भारतीय न्यायपालिका ने महिला और बाल अधिकारों की व्याख्या में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997) – कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से सुरक्षा हेतु दिशा-निर्देश जारी किए गए।
- गिता हरिहरन बनाम भारतीय रिजर्व बैंक (1999) – माता को भी संतान की प्राकृतिक संरक्षक माना गया।
- लक्ष्मी बनाम भारत संघ (2014) – एसिड हमले की शिकार महिलाओं को मुआवजा और विशेष सहायता का आदेश।
- सुप्रीम कोर्ट का निर्णय (2017) – निजता का अधिकार (Right to Privacy) अनुच्छेद 21 के तहत संरक्षित है, जिसका बच्चों और महिलाओं की गरिमा से गहरा संबंध है।
चुनौतियाँ
हालांकि कानूनों का ढाँचा व्यापक है, परन्तु वास्तविकता में कई समस्याएँ बनी हुई हैं –
- पितृसत्तात्मक मानसिकता – समाज में महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने में कठिनाई।
- बाल श्रम और शिक्षा की कमी – आज भी लाखों बच्चे शिक्षा से वंचित हैं और काम करने को मजबूर हैं।
- घरेलू हिंसा और यौन अपराध – कड़े कानूनों के बावजूद घटनाओं में कमी नहीं आई।
- कानूनी प्रक्रिया की जटिलता – लंबी न्यायिक प्रक्रिया और पीड़ितों की सुरक्षा में कमियाँ।
- ग्रामीण-शहरी असमानता – ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं और बच्चों के अधिकारों का हनन अधिक होता है।
समाधान और सुधार
- कानूनों का सख्त अनुपालन – पुलिस और प्रशासन को संवेदनशील बनाना आवश्यक।
- शिक्षा और जागरूकता – महिला एवं बाल अधिकारों के प्रति समाज को जागरूक करना।
- आर्थिक सशक्तिकरण – महिलाओं के लिए रोजगार और स्वरोजगार की योजनाएँ।
- तेजी से न्याय – फास्ट ट्रैक कोर्ट और पीड़ित सहायता तंत्र को मजबूत करना।
- सामाजिक संगठनों की भूमिका – NGO और नागरिक समाज को भी जागरूकता और सहायता में शामिल करना।
निष्कर्ष
महिला और बाल अधिकारों की सुरक्षा केवल कानून का विषय नहीं है, बल्कि यह सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों की आत्मा है। भारतीय संविधान, विधायी व्यवस्थाएँ और न्यायालय के निर्णयों ने महिलाओं और बच्चों को सशक्त बनाने का मजबूत आधार तैयार किया है। फिर भी, व्यावहारिक चुनौतियाँ हमें यह बताती हैं कि केवल कानून पर्याप्त नहीं है, बल्कि समाज में मानसिकता परिवर्तन और प्रशासनिक इच्छाशक्ति भी आवश्यक है। जब तक महिलाओं और बच्चों को वास्तविक सुरक्षा, शिक्षा, सम्मान और समान अवसर नहीं मिलते, तब तक लोकतंत्र की अवधारणा अधूरी रहेगी।