बॉम्बे हाईकोर्ट का निर्णय : विलंब माफी (Condonation of Delay) और घरेलू हिंसा अधिनियम की अपीलों पर संतुलित दृष्टिकोण
भारतीय न्यायिक व्यवस्था में “विलंब माफी” (Condonation of Delay) एक अत्यंत महत्वपूर्ण अवधारणा है। कई बार परिस्थितियों के कारण कोई पक्ष निर्धारित समय-सीमा (Limitation Period) के भीतर अपील या याचिका दायर नहीं कर पाता। ऐसे मामलों में अदालत से विशेष अनुमति लेकर “देरी माफी” की अर्जी दी जाती है। अदालत तभी इस देरी को माफ करती है, जब उसे यह संतोष हो कि अपीलकर्ता ने देरी के लिए पर्याप्त और उचित कारण (Sufficient and Justifiable Cause) प्रस्तुत किया है।
हाल ही में बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक मामले में घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 की धारा 29 और 31 के तहत दायर अपीलों में हुई देरी के प्रश्न पर अहम निर्णय दिया। इस निर्णय ने स्पष्ट कर दिया कि अदालत प्रत्येक मामले में तथ्यों और परिस्थितियों को देखकर ही यह तय करती है कि देरी माफ की जाए या नहीं।
मामले की पृष्ठभूमि
इस प्रकरण में अपीलकर्ता ने 2014 और 2018 में पारित आदेशों को चुनौती दी थी। दोनों आदेश घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के तहत पारित किए गए थे, और अपील के साथ-साथ अपीलकर्ता ने “विलंब माफी” की अर्जी भी दाखिल की।
- 2014 का आदेश –
मजिस्ट्रेट ने धारा 12 के तहत दी गई अर्जी पर सुनवाई करते हुए महिला को आंशिक भरण-पोषण (Maintenance) की राशि प्रदान करने का आदेश दिया था। इस आदेश के खिलाफ अपील दायर करने में काफी लंबी देरी हुई। अपीलकर्ता ने इसके लिए जो कारण बताए, उन्हें अदालत ने पर्याप्त और उचित नहीं माना। फलस्वरूप, अदालत ने देरी माफी की अर्जी खारिज कर दी और साथ ही अपील भी खारिज हो गई। - 2018 का आदेश –
इस आदेश में मजिस्ट्रेट ने महिला द्वारा दायर धारा 31 की अर्जी, जिसमें सुरक्षा आदेश (Protection Order) के उल्लंघन पर दंडात्मक कार्यवाही की मांग की गई थी, को अस्वीकार कर दिया। इस आदेश के खिलाफ अपील करने में बहुत कम समय की देरी हुई थी। अपीलकर्ता ने इसके लिए उचित कारण प्रस्तुत किए, जिन्हें अदालत ने स्वीकार कर लिया। परिणामस्वरूप, इस अपील में हुई देरी को अदालत ने माफ कर दिया और अपील सुनवाई योग्य मानी।
कानूनी प्रावधान : धारा 29 और 31 (घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005)
- धारा 29 (Appeal) –
इस धारा के अनुसार, किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश के खिलाफ पीड़ित पक्ष या प्रतिवादी को 30 दिनों के भीतर अपील करने का अधिकार है। अपील जिला न्यायालय (Court of Sessions) के समक्ष दायर की जाती है। - धारा 31 (Penalty for Breach of Protection Order) –
यदि कोई व्यक्ति मजिस्ट्रेट द्वारा दिए गए सुरक्षा आदेश का उल्लंघन करता है, तो उसे अपराध माना जाएगा। इसके लिए अभियुक्त को एक वर्ष तक की सज़ा और जुर्माना हो सकता है।
विलंब माफी का सिद्धांत (Condonation of Delay under Limitation Act, 1963)
भारतीय विधि में Limitation Act, 1963 यह निर्धारित करता है कि किसी आदेश, डिक्री या निर्णय के खिलाफ अपील किस समय सीमा में की जानी चाहिए। यदि कोई पक्ष समयसीमा पार कर देता है, तो उसे धारा 5 के तहत देरी माफी की अर्जी देनी पड़ती है।
- मूल सिद्धांत – केवल “पर्याप्त कारण” (Sufficient Cause) होने पर ही देरी माफ की जा सकती है।
- न्यायालय का विवेकाधिकार – देरी माफी करना या न करना पूरी तरह से अदालत के विवेक (Discretion) पर निर्भर है।
- नजीर (Precedent) – सुप्रीम कोर्ट ने अनेक निर्णयों में कहा है कि न्यायालय को देरी माफी में उदार रुख अपनाना चाहिए, बशर्ते कि कारण वास्तविक और ठोस हों।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
2014 के आदेश पर अपील
- अपील में कई वर्षों की देरी हुई थी।
- अपीलकर्ता ने कहा कि वे आदेश की जानकारी बाद में मिली और पारिवारिक परिस्थितियों के कारण समय पर अपील दायर नहीं कर पाए।
- लेकिन अदालत ने पाया कि आदेश की जानकारी अपीलकर्ता को समय पर थी और कोई ठोस साक्ष्य यह साबित नहीं करता कि वे असाधारण परिस्थितियों से जूझ रहे थे।
- परिणामस्वरूप, अदालत ने कहा कि इतनी लंबी देरी को बिना ठोस कारण के माफ नहीं किया जा सकता।
- इस प्रकार, 2014 के आदेश पर अपील खारिज कर दी गई।
2018 के आदेश पर अपील
- अपील में केवल कुछ दिनों की ही देरी हुई थी।
- अपीलकर्ता ने इसके लिए वाजिब कारण बताए, जैसे बीमारी और दस्तावेज़ तैयार करने में समय लगना।
- अदालत ने कहा कि इतनी अल्प अवधि की देरी को माफ न करना न्याय के सिद्धांतों के विपरीत होगा।
- इसलिए, 2018 की अपील स्वीकार की गई और देरी माफ कर दी गई।
निर्णय से उत्पन्न मुख्य बिंदु
- पर्याप्त कारण का महत्व –
यदि अपीलकर्ता लंबी देरी के लिए केवल सामान्य या कमजोर कारण बताता है, तो अदालत इसे स्वीकार नहीं करेगी। - कम अवधि की देरी पर उदार दृष्टिकोण –
यदि देरी बहुत कम है और उसके पीछे वास्तविक कारण है, तो अदालतें इसे माफ कर देती हैं। - संतुलित दृष्टिकोण –
अदालत ने दोनों आदेशों में भिन्न परिणाम देकर यह दर्शाया कि न्यायालय अत्यधिक कठोर या अत्यधिक उदार नहीं हो सकते। प्रत्येक मामले का मूल्यांकन उसकी परिस्थितियों के अनुसार ही किया जाएगा। - न्याय और विधिक प्रक्रिया का संतुलन –
अदालत ने यह भी दोहराया कि न्याय का उद्देश्य केवल तकनीकी आधार पर अपील को खारिज करना नहीं है, बल्कि यह देखना है कि पक्षकार को न्याय मिले।
सामाजिक और विधिक प्रभाव
- महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा –
घरेलू हिंसा अधिनियम का उद्देश्य महिलाओं को संरक्षण देना है। लेकिन साथ ही यह भी ज़रूरी है कि पुरुष पक्षकार को भी निष्पक्ष न्याय मिले। - प्रशासनिक दक्षता –
अदालत का यह निर्णय वकीलों और पक्षकारों के लिए संदेश है कि अपीलें समयसीमा के भीतर दायर की जानी चाहिए। - अनुशासन और पारदर्शिता –
देरी माफी की अर्जी का दुरुपयोग न हो, इसके लिए अदालतों ने स्पष्ट कर दिया है कि केवल ठोस कारण ही स्वीकार होंगे।
निष्कर्ष
बॉम्बे हाईकोर्ट का यह निर्णय “विलंब माफी” की अवधारणा पर गहन प्रकाश डालता है।
- 2014 का आदेश – लंबी देरी को बिना ठोस कारण के माफ नहीं किया जा सकता।
- 2018 का आदेश – थोड़ी देरी को उचित कारण होने पर माफ किया जा सकता है।
यह निर्णय एक संतुलित दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, जिसमें न्यायालय ने दिखाया कि प्रत्येक प्रकरण को उसकी परिस्थितियों और साक्ष्यों के आधार पर ही देखा जाएगा। न्यायालय का यह निर्णय न केवल विधिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि न्यायालयें न्याय और प्रक्रिया के बीच संतुलन बनाए रखने का प्रयास करती हैं।