दिल्ली सल्तनत और मुग़ल साम्राज्य के विधि एवं न्यायिक तंत्र का तुलनात्मक अध्ययन तथा भारतीय विधिक एवं संवैधानिक विकास में ऐतिहासिक भूमिका

दिल्ली सल्तनत और मुग़ल साम्राज्य के विधि एवं न्यायिक तंत्र का तुलनात्मक अध्ययन तथा भारतीय विधिक एवं संवैधानिक विकास में ऐतिहासिक भूमिका

प्रस्तावना

भारत का विधिक और न्यायिक इतिहास अत्यंत प्राचीन है। वैदिक काल से ही “धर्मशास्त्र” और “स्मृतियाँ” न्यायिक जीवन का आधार रही थीं। किंतु 13वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत की स्थापना (1206 ई.) के साथ ही भारत की न्याय-व्यवस्था में इस्लामी कानून (शरीअत) का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा।

इसके पश्चात मुग़ल साम्राज्य (1526–1857 ई.) में न्याय प्रणाली और भी विकसित हुई, जहाँ शरीअत कानून के साथ-साथ “राजनीतिक विवेक (ज़री-ए-सियासत)” और “मुल्की कानून” का भी प्रयोग हुआ।

दोनों कालखंडों की न्यायिक संरचना ने भारतीय विधिक परंपरा, प्रशासनिक संस्थाओं और अंततः आधुनिक भारतीय संविधान पर गहरा प्रभाव छोड़ा।


1. दिल्ली सल्तनत की विधि एवं न्यायिक व्यवस्था

दिल्ली सल्तनत (1206–1526 ई.) में तुर्क, खिलजी, तुगलक, सैयद और लोदी वंशों ने शासन किया। इसकी न्याय प्रणाली का आधार इस्लामी शरीअत थी, किंतु भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक वास्तविकताओं के कारण कुछ व्यावहारिक समायोजन भी किए गए।

(क) विधि का आधार

  1. शरीअत कानून (Quran, Hadith, Ijma, Qiyas) – मुख्य स्रोत।
  2. फ़तवा (मुफ़्ती द्वारा राय) – शरीअत की व्याख्या।
  3. रिवाज और प्रथाएँ – हिंदू प्रजा के निजी मामलों में स्थानीय रीति-रिवाज मान्य।

(ख) न्यायिक संगठन

  1. सुल्तान (Supreme Authority) – सर्वोच्च विधि निर्माता और न्यायाधीश।
  2. काज़ी-उल-क़ुज़ात (Chief Qazi) – साम्राज्य का सर्वोच्च धार्मिक न्यायाधीश।
  3. मुफ़्ती – शरीअत की व्याख्या करने वाला विद्वान।
  4. मुहतसिब – बाजार व नैतिक आचरण का निरीक्षक।
  5. फौजदार व अमीर – स्थानीय स्तर पर कानून-व्यवस्था और दंड-विधान।

(ग) न्यायालयों का ढांचा

  1. केंद्र स्तर – सुल्तान की दरबार-ए-आम व दरबार-ए-खास।
  2. प्रांतीय स्तर – सूबों में “काज़ी” और “वली” द्वारा न्याय।
  3. जिला स्तर – शिकदर व मुनीफ़ की भूमिका।
  4. ग्राम स्तर – पंचायती परंपरा (विशेषकर हिंदू समाज में)।

(घ) विशेषताएँ

  • धार्मिक और दीवानी मामलों में शरीअत का प्रभाव।
  • गैर-मुसलमानों के लिए जज़िया और पृथक प्रथाएँ।
  • कठोर दंडनीति – शारीरिक दंड, अंग-भंग, फाँसी आम।
  • स्थानीय प्रथाओं का आंशिक संरक्षण।

2. मुग़ल साम्राज्य की विधि एवं न्यायिक व्यवस्था

मुग़ल साम्राज्य (1526–1857 ई.) में न्यायिक व्यवस्था अधिक परिपक्व, संगठित और सहिष्णु बनी। बाबर और हुमायूँ के बाद, विशेषकर अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगज़ेब के काल में न्यायिक संरचना का विकास हुआ।

(क) विधि का आधार

  1. शरीअत – अब भी मूल आधार।
  2. राजनीतिक विवेक (Zar-i-Siyasat) – सम्राट को शरीअत से ऊपर मानकर निर्णय का अधिकार।
  3. रिवाज व परंपराएँ – हिंदुओं के निजी मामलों (विवाह, उत्तराधिकार) में मान्यता।
  4. फतवा-ए-आलमगिरी (औरंगज़ेब के समय) – शरीअत कानून का संहिताबद्ध रूप।

(ख) न्यायिक संगठन

  1. पादशाह (Emperor) – सर्वोच्च विधि और न्याय का स्रोत।
  2. काज़ी-उल-क़ुज़ात – साम्राज्य का प्रधान काजी।
  3. सदर-उस-सदूर – धार्मिक अनुदान व धार्मिक मामलों का प्रमुख अधिकारी।
  4. मुहतसिब – नैतिक और बाज़ार निरीक्षक।
  5. सूबेदार और फौजदार – प्रांतीय व जिला स्तर पर न्याय और प्रशासन।

(ग) न्यायालयों का ढांचा

  1. केंद्र स्तर – सम्राट का दरबार; जहाँगीर ने “ज़ंजीर-ए-इंसाफ़” स्थापित की थी।
  2. प्रांतीय स्तर – सूबे में सूबेदार व काज़ी।
  3. जिला स्तर – फौजदार और दीवान।
  4. ग्राम स्तर – पंचायतें व स्थानीय संस्थाएँ।

(घ) विशेषताएँ

  • अकबर का सुधार – “इबादतख़ाना” में बहस, धार्मिक सहिष्णुता, सुल्ह-ए-कुल।
  • जहाँगीर का न्याय – “इंसाफ की ज़ंजीर” (आवाजाही न्याय की गारंटी)।
  • औरंगज़ेब का शरीअती झुकाव – “फतवा-ए-आलमगिरी” के माध्यम से शरीअत का कड़ाई से पालन।
  • दंडनीति अपेक्षाकृत व्यवस्थित, यद्यपि कठोर दंड प्रचलित रहे।

3. तुलनात्मक अध्ययन (Delhi Sultanate vs Mughal Empire)

पहलू दिल्ली सल्तनत मुग़ल साम्राज्य
विधि का आधार शरीअत प्रमुख; हिंदू प्रथाओं को सीमित मान्यता शरीअत + ज़री-ए-सियासत + स्थानीय प्रथा; औरंगज़ेब ने संहिताबद्ध किया
सर्वोच्च न्यायाधीश सुल्तान पादशाह
काज़ी-उल-क़ुज़ात नियुक्त, धार्मिक व दीवानी मामलों में प्रमुख नियुक्त, परंतु सम्राट के अधीन
धार्मिक सहिष्णुता सीमित; जज़िया कर और गैर-मुसलमानों पर नियंत्रण अकबर व जहाँगीर ने सहिष्णुता, औरंगज़ेब ने कठोरता
दंड नीति अत्यंत कठोर – शारीरिक दंड, फाँसी अपेक्षाकृत संगठित; अकबर ने दंड में मानवीय दृष्टि अपनाई
ग्राम न्याय पंचायतें, हिंदू रीति पर आधारित पंचायतें, अधिक प्रभावशाली
विशेष योगदान इस्लामी न्याय परंपरा का आरंभ शरीअत का संहिताकरण, धार्मिक सहिष्णुता, सुल्ह-ए-कुल

4. भारतीय विधिक और संवैधानिक विकास में ऐतिहासिक भूमिका

दोनों कालखंडों ने आधुनिक भारतीय विधि और संविधान के विकास में गहरे ऐतिहासिक प्रभाव छोड़े।

(क) दिल्ली सल्तनत का योगदान

  1. केंद्रीकृत न्याय व्यवस्था – सर्वोच्च सत्ता व न्याय सम्राट में निहित।
  2. काज़ी और मुफ़्ती की नियुक्ति – आज की न्यायपालिका के संस्थागत ढांचे का प्रारंभिक रूप।
  3. प्रशासनिक-न्यायिक पृथक्करण – अमीर व काज़ी की भिन्न भूमिकाएँ।
  4. स्थानीय पंचायती न्याय की मान्यता – भारतीय परंपरा का संरक्षण।

(ख) मुग़ल साम्राज्य का योगदान

  1. सुल्ह-ए-कुल – धार्मिक सहिष्णुता की नींव, जिसका असर आधुनिक भारतीय धर्मनिरपेक्षता पर।
  2. जहाँगीर की इंसाफ़ की ज़ंजीर – न्याय की तात्कालिकता और सुलभता का प्रतीक।
  3. फतवा-ए-आलमगिरी – कानून का संहिताकरण, आधुनिक विधि-संहिताओं का प्रारंभिक रूप।
  4. प्रजा-कल्याणकारी दृष्टिकोण – न्याय को केवल दंड नहीं, बल्कि सामाजिक संतुलन का साधन माना।

(ग) आधुनिक भारतीय संवैधानिक विकास पर प्रभाव

  1. केंद्रीकृत विधि और न्याय प्रणाली – सल्तनत और मुग़ल परंपरा ने ब्रिटिश भारत और फिर भारतीय संविधान में संगठित न्यायपालिका की नींव रखी।
  2. धार्मिक सहिष्णुता और बहुलवाद – अकबर की सुल्ह-ए-कुल नीति ने भारतीय धर्मनिरपेक्षता की आधारशिला रखी।
  3. कानून का संहिताकरण – औरंगज़ेब के फतवा-ए-आलमगिरी से ब्रिटिश और फिर भारतीय विधि में संहिताबद्ध कानून की परंपरा आगे बढ़ी।
  4. न्याय तक त्वरित पहुँच – जहाँगीर की ज़ंजीर-ए-इंसाफ़ जैसी परंपराएँ न्याय को सुलभ बनाने की प्रेरणा बनीं।

5. आलोचनात्मक विवेचन

  • दिल्ली सल्तनत की न्याय व्यवस्था अत्यधिक कठोर और मुस्लिम केंद्रित थी; हिंदुओं को द्वितीयक दर्जा मिला।
  • मुग़ल साम्राज्य में न्याय प्रणाली अपेक्षाकृत सहिष्णु और संगठित रही, विशेषकर अकबर और जहाँगीर के काल में।
  • औरंगज़ेब की नीतियों ने फिर से कठोर इस्लामी रंग दिया, किंतु उसने कानून को संहिताबद्ध करने का महत्वपूर्ण कार्य किया।
  • दोनों कालखंडों ने यह स्थापित किया कि न्याय केवल धार्मिक आधार पर नहीं, बल्कि राज्य की स्थिरता, प्रशासनिक संगठन और सामाजिक समरसता के लिए भी आवश्यक है।

निष्कर्ष

दिल्ली सल्तनत और मुग़ल साम्राज्य की विधि एवं न्यायिक प्रणालियाँ भारतीय इतिहास के दो महत्वपूर्ण अध्याय हैं। जहाँ सल्तनत ने इस्लामी शरीअत आधारित न्याय प्रणाली की नींव डाली, वहीं मुग़लों ने इसे और संगठित व व्यावहारिक रूप दिया।

इन दोनों की ऐतिहासिक भूमिका आधुनिक भारतीय विधिक और संवैधानिक विकास में स्पष्ट है –

  • केंद्रीकृत न्यायपालिका,
  • न्याय का संस्थागत ढांचा,
  • धार्मिक सहिष्णुता और बहुलवाद,
  • और कानून का संहिताकरण।

इस प्रकार, दिल्ली सल्तनत और मुग़ल साम्राज्य ने भारतीय विधिक परंपरा को धार्मिक कट्टरता से निकालकर धीरे-धीरे एक बहुलतावादी, संगठित और संवैधानिक न्याय प्रणाली की दिशा दी, जिसका परिपूर्ण रूप हमें भारतीय संविधान में दिखाई देता है।


सल्तनत काल

(न्याय का आधार – राजा की शक्ति, शरिया कानून, दंड कठोर, राजा सर्वोच्च)

मुग़ल काल

(न्याय – शाही फ़रमान + शरिया, अकबर का सुधार, दंड कठोर लेकिन संगठनात्मक रूप से मजबूत)

ब्रिटिश काल

(कॉमन लॉ, कोडिफाइड कानून, न्यायालय प्रणाली की स्थापना)

आधुनिक भारत

(संविधान सर्वोच्च, मौलिक अधिकार, विधि का शासन, दंड न्यायपूर्ण और सुधारात्मक)