वैध हिन्दू विवाह की आवश्यक शर्तें
प्रस्तावना
भारतीय समाज में विवाह एक पवित्र सामाजिक संस्था है। हिन्दू धर्म में विवाह को केवल पति-पत्नी का शारीरिक या कानूनी संबंध नहीं माना गया है, बल्कि यह एक धार्मिक संस्कार (Sacrament) है। मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, नारद स्मृति आदि धर्मशास्त्रों में विवाह को धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति का साधन बताया गया है। हिन्दू समाज में विवाह को “अविभाज्य बंधन” (Indissoluble Union) माना जाता था, जो जन्म-जन्मांतर तक चलता है।
स्वतंत्र भारत में विवाह से संबंधित अधिकारों और कर्तव्यों को सुनिश्चित करने के लिए हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 (Hindu Marriage Act, 1955) लागू किया गया। इस अधिनियम ने प्राचीन धार्मिक सिद्धांतों को आधुनिक संवैधानिक मूल्यों जैसे समानता, स्वतंत्रता और न्याय के अनुरूप ढालने का प्रयास किया।
इस अधिनियम की धारा 5 में वैध हिन्दू विवाह की आवश्यक शर्तें निर्धारित की गई हैं। यदि इन शर्तों का पालन न हो तो विवाह शून्य (void) या अमान्य (voidable) हो सकता है। इस लेख में हम विस्तार से इन्हीं शर्तों का अध्ययन करेंगे।
हिन्दू विवाह की संकल्पना
हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 और 7 विवाह की परिभाषा और शर्तों का निर्धारण करती है।
- संस्कारात्मक दृष्टिकोण: विवाह को पवित्र संस्कार माना जाता है, जिसका उद्देश्य पति-पत्नी के बीच आजीवन संबंध स्थापित करना, संतानोत्पत्ति और धर्मपालन करना है।
- सांविधिक दृष्टिकोण: आधुनिक कानून विवाह को एक कानूनी संस्था मानता है, जिसमें पति-पत्नी के बीच अधिकार और कर्तव्य उत्पन्न होते हैं।
वैध हिन्दू विवाह की आवश्यक शर्तें (Section 5, Hindu Marriage Act, 1955)
1. एकपत्नीवाद (Monogamy) – धारा 5(1)
- अधिनियम की धारा 5(1) के अनुसार विवाह के समय किसी भी पक्षकार का जीवनसाथी जीवित नहीं होना चाहिए।
- इसका अर्थ है कि हिन्दू विवाह अधिनियम के अंतर्गत बहुविवाह (Polygamy) निषिद्ध है।
- यदि कोई व्यक्ति अपने जीवनसाथी के रहते हुए दूसरा विवाह करता है तो वह विवाह शून्य (void) होगा और उसे भारतीय दंड संहिता की धारा 494 तथा 495 के अंतर्गत द्विविवाह (Bigamy) का अपराध माना जाएगा।
न्यायिक दृष्टांत:
- यमुनाबाई बनाम अनंत राव (1988 SC) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि किसी पुरुष की पहली पत्नी जीवित है और उसने विधि सम्मत तलाक नहीं लिया है, तो उसका दूसरा विवाह शून्य होगा।
2. विवाह की आयु – धारा 5(iii)
- पुरुष की न्यूनतम आयु 21 वर्ष और स्त्री की न्यूनतम आयु 18 वर्ष निर्धारित की गई है।
- बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 के अंतर्गत बाल विवाह को अपराध माना गया है।
- हालांकि हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार अवयस्क विवाह पूर्णत: शून्य नहीं बल्कि शून्यकरणीय (Voidable) है, अर्थात् बालिग होने पर पक्षकार इसे निरस्त करा सकता है।
न्यायिक दृष्टांत:
- लक्ष्मी कांत पांडे बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बाल विवाह को सामाजिक बुराई माना और कहा कि यह बच्चों के अधिकारों का उल्लंघन है।
3. मानसिक स्थिति की योग्यता – धारा 5(ii)
विवाह के समय दोनों पक्षकारों का मानसिक रूप से स्वस्थ होना आवश्यक है। अधिनियम में तीन शर्तें दी गई हैं—
- किसी भी पक्षकार को मानसिक विकार न हो, जिससे वह विवाह के दायित्व समझने में अक्षम हो।
- उसे ऐसा मानसिक रोग न हो जो उसे विवाह संबंध निभाने में अक्षम बनाता हो।
- उसे आवर्तक पागलपन (Recurrent Insanity) न हो।
यदि कोई व्यक्ति मानसिक रूप से अस्वस्थ होते हुए विवाह करता है तो विवाह शून्यकरणीय होगा।
न्यायिक दृष्टांत:
- अलका शर्मा बनाम अभय शर्मा (1991) में मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने कहा कि मानसिक रोगी से विवाह धोखाधड़ी की श्रेणी में आता है और ऐसा विवाह अमान्य घोषित किया जा सकता है।
4. निषिद्ध संबंधों में विवाह – धारा 5(iv)
- यदि विवाह करने वाले पक्षकार आपस में निषिद्ध डिग्री संबंध (Prohibited Degrees of Relationship) में आते हैं तो विवाह शून्य होगा।
- निषिद्ध डिग्री में माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-भतीजी, मामा-भांजी आदि आते हैं।
- अपवाद: यदि प्रचलित रीति-रिवाज (Custom) ऐसे विवाह की अनुमति देते हैं तो यह वैध होगा।
5. गोत्र और सपिंड संबंध की सीमा – धारा 5(v)
- हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार, सपिंड संबंध का अर्थ है ऐसा रक्त संबंध जिसमें विवाह वर्जित होता है।
- दो व्यक्तियों को सपिंड कहा जाता है यदि—
- वे दोनों एक ही पुरुष या स्त्री से पाँचवीं पीढ़ी (पिता की ओर से) या तीसरी पीढ़ी (माता की ओर से) तक जुड़े हों।
- अपवाद: यदि कोई प्रचलित परंपरा ऐसे विवाह की अनुमति देती है तो वह मान्य होगा।
6. वैधानिक अनुष्ठान – धारा 7
- हिन्दू विवाह तभी वैध माना जाएगा जब उसका संपादन वैधानिक अनुष्ठानों के अनुसार हो।
- सामान्यतः विवाह संस्कार में सप्तपदी (सात फेरे) को सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है। सप्तपदी के सातवें फेरे के साथ विवाह पूर्ण माना जाता है।
- यदि कोई समुदाय अन्य वैध अनुष्ठान मानता है, तो उस अनुसार विवाह मान्य होगा।
अमान्य (Void) और शून्यकरणीय (Voidable) विवाह
(क) शून्य विवाह (Void Marriage) – धारा 11
निम्न परिस्थितियों में विवाह शून्य (बिलकुल अमान्य) होगा—
- एकपत्नीवाद का उल्लंघन।
- निषिद्ध संबंधों में विवाह।
- सपिंड संबंध में विवाह।
(ख) शून्यकरणीय विवाह (Voidable Marriage) – धारा 12
निम्न परिस्थितियों में विवाह शून्यकरणीय होगा—
- विवाह के समय किसी पक्षकार की सहमति धोखाधड़ी या दबाव से प्राप्त की गई हो।
- किसी पक्षकार को मानसिक रोग हो।
- पक्षकार विवाह के समय शारीरिक अक्षमता से पीड़ित हो।
- विवाह के समय पक्षकार नाबालिग हो।
हिन्दू विवाह की विशेषताएँ
- यह एक संस्कार है, जो धार्मिक और सामाजिक दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है।
- यह पति-पत्नी के बीच आजीवन बंधन है।
- इसमें एकपत्नीवाद अनिवार्य है।
- इसमें सहमति और मानसिक स्वास्थ्य की शर्तें आवश्यक हैं।
- विवाह का उद्देश्य केवल संतानोत्पत्ति नहीं, बल्कि धर्मपालन और जीवनसाथी का सहयोग है।
न्यायिक व्याख्या
भारतीय न्यायालयों ने हिन्दू विवाह की शर्तों को अनेक मामलों में स्पष्ट किया है—
- यमुनाबाई बनाम अनंतराव – एकपत्नीवाद का उल्लंघन विवाह को शून्य बनाता है।
- अलका शर्मा बनाम अभय शर्मा – मानसिक रोगी से विवाह शून्यकरणीय होगा।
- रीमा बनाम अंकुर (2018) – बिना सप्तपदी या वैधानिक अनुष्ठान के विवाह मान्य नहीं होगा।
निष्कर्ष
हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 ने प्राचीन परंपराओं को आधुनिक कानून की कसौटी पर परखा और विवाह की वैधता के लिए स्पष्ट शर्तें निर्धारित कीं। ये शर्तें न केवल पति-पत्नी के अधिकारों और कर्तव्यों की रक्षा करती हैं, बल्कि समाज में विवाह संस्था की पवित्रता और स्थिरता बनाए रखती हैं।
एक वैध हिन्दू विवाह तभी संभव है जब—
- पति-पत्नी दोनों का पूर्व विवाह जीवित न हो,
- दोनों ने निर्धारित आयु पूरी कर ली हो,
- दोनों मानसिक रूप से स्वस्थ हों,
- वे निषिद्ध संबंध या सपिंड संबंध में न हों,
- विवाह वैधानिक अनुष्ठानों से संपन्न हो।
इन शर्तों का पालन न करने पर विवाह या तो शून्य अथवा शून्यकरणीय होगा। इस प्रकार, वैध हिन्दू विवाह केवल एक सामाजिक संस्था ही नहीं बल्कि कानूनी और नैतिक उत्तरदायित्वों का आधार भी है, जो पति-पत्नी, संतान और परिवार की सुरक्षा सुनिश्चित करता है।