हिन्दू और मुस्लिम विधि में भरण-पोषण की संकल्पना
प्रस्तावना
भारतीय समाज में परिवार और विवाह को सामाजिक संस्था के रूप में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। विवाह के उपरांत पति-पत्नी तथा संतान एक-दूसरे के प्रति अनेक अधिकारों और कर्तव्यों से बंध जाते हैं। इन कर्तव्यों में सबसे महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है भरण-पोषण (Maintenance) अर्थात् परिवार के निर्भर व्यक्तियों को जीवनयापन के लिए आवश्यक सुविधाएँ प्रदान करना। भरण-पोषण केवल भोजन तक सीमित नहीं है बल्कि इसमें वस्त्र, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा अन्य मूलभूत आवश्यकताएँ सम्मिलित होती हैं।
भारतीय विधि में भरण-पोषण की संकल्पना दो प्रमुख व्यक्तिगत कानूनों—हिन्दू विधि और मुस्लिम विधि—में विशेष स्थान रखती है। इन दोनों धार्मिक विधियों ने अपने-अपने ढंग से भरण-पोषण के अधिकारों, कर्तव्यों और सीमा का निर्धारण किया है। इसके अतिरिक्त दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 भी एक समान धर्मनिरपेक्ष प्रावधान उपलब्ध कराती है जिसके अंतर्गत कोई भी पत्नी, संतान या माता-पिता न्यायालय से भरण-पोषण की मांग कर सकते हैं।
इस लेख में हम विशेष रूप से हिन्दू और मुस्लिम विधि में भरण-पोषण की संकल्पना का विस्तृत अध्ययन करेंगे।
भरण-पोषण का सामान्य अर्थ
भरण-पोषण का तात्पर्य है – परिवार के उन सदस्यों को आर्थिक सहायता प्रदान करना जो स्वयं अपनी आजीविका चलाने में असमर्थ हों। इसमें पत्नी, संतान, वृद्ध माता-पिता या कभी-कभी विधवा पुत्रवधू भी शामिल हो सकती है।
भरण-पोषण का आधार कर्तव्य और नैतिकता है। पति पर पत्नी का पालन-पोषण करने का दायित्व है, माता-पिता पर बच्चों का दायित्व है और बच्चों पर वृद्ध माता-पिता का दायित्व है। यह दायित्व केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि सामाजिक न्याय और मानवता के सिद्धांतों पर आधारित है।
हिन्दू विधि में भरण-पोषण
1. वैदिक और प्राचीन दृष्टिकोण
हिन्दू धर्मशास्त्रों में परिवार को अत्यंत पवित्र संस्था माना गया है। मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति तथा नारद स्मृति आदि ग्रंथों में पति-पत्नी और संतान के पारस्परिक कर्तव्यों का उल्लेख मिलता है। पति का प्रथम कर्तव्य माना गया कि वह अपनी पत्नी और संतान को आवश्यक भरण-पोषण उपलब्ध कराए।
2. वैधानिक प्रावधान
आधुनिक काल में हिन्दू परिवार संबंधी अधिकार और दायित्व हिन्दू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 (Hindu Adoption and Maintenance Act, 1956) में समाहित हैं।
(क) पत्नी का भरण-पोषण (Section 18)
- प्रत्येक हिन्दू पत्नी, जब तक वह अपने पति के साथ रह रही है, भरण-पोषण पाने की हकदार है।
- यदि पत्नी पति से अलग रह रही है तो भी कुछ परिस्थितियों में उसे भरण-पोषण का अधिकार है, जैसे—
- यदि पति उसे क्रूरता से व्यवहार कर रहा है,
- यदि पति दूसरी पत्नी रख लेता है,
- यदि पति किसी कुष्ठ रोग या संक्रामक रोग से पीड़ित हो,
- यदि पति उसके साथ रहने से इनकार कर दे।
- किन्तु यदि पत्नी व्यभिचारिणी है या बिना उचित कारण के पति से अलग रह रही है तो उसे भरण-पोषण का अधिकार नहीं होगा।
(ख) विधवा पुत्रवधू का भरण-पोषण (Section 19)
- यदि पुत्र की मृत्यु हो जाती है तो विधवा पुत्रवधू अपने ससुराल से भरण-पोषण पाने की हकदार है, जब तक कि वह स्वयं जीविका चलाने में सक्षम न हो या पुनः विवाह न कर ले।
(ग) माता-पिता और संतान का भरण-पोषण (Section 20)
- प्रत्येक हिन्दू पर यह दायित्व है कि वह अपने बच्चों और वृद्ध या असमर्थ माता-पिता का पालन-पोषण करे।
- नाबालिग संतान, विवाहित पुत्री, या अविवाहित पुत्री जो स्वयं पालन-पोषण नहीं कर सकती, सभी भरण-पोषण की हकदार हैं।
(घ) भरण-पोषण की सीमा (Section 23)
- न्यायालय भरण-पोषण की राशि का निर्धारण करते समय पति/पिता की आय, संपत्ति, जीवनशैली और पत्नी/संतान की आवश्यकताओं को ध्यान में रखता है।
3. न्यायिक दृष्टिकोण
न्यायालयों ने अनेक अवसरों पर यह स्पष्ट किया है कि भरण-पोषण केवल जीवित रहने का साधन नहीं बल्कि सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार है।
चतुर्भुज बनाम सीता बाई (AIR 2008 SC) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भरण-पोषण का अर्थ केवल रोटी, कपड़ा और मकान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उस व्यक्ति को वैसा ही जीवन स्तर प्रदान करना है जैसा वह अपने पति या परिवार के साथ रहते हुए भोग सकती थी।
मुस्लिम विधि में भरण-पोषण
1. धार्मिक आधार
मुस्लिम कानून में भरण-पोषण का दायित्व कुरआन, हदीस और इज्मा से उत्पन्न होता है। इस्लाम में पति पर यह अनिवार्य दायित्व है कि वह पत्नी, बच्चों और माता-पिता को भरण-पोषण प्रदान करे।
2. भरण-पोषण के प्रकार
मुस्लिम विधि में भरण-पोषण को “नफका” (Nafqah) कहा जाता है, जिसमें भोजन, वस्त्र, आवास और अन्य आवश्यकताएँ सम्मिलित हैं।
(क) पत्नी का भरण-पोषण
- विवाह के पश्चात पत्नी का भरण-पोषण करना पति की जिम्मेदारी है, चाहे पत्नी धनी क्यों न हो।
- पत्नी के भरण-पोषण का अधिकार उसके पति से उत्पन्न होता है, न कि उसके माता-पिता से।
- यदि पत्नी बिना उचित कारण पति से अलग हो जाए या पति की अवज्ञा करे तो वह नफका पाने की हकदार नहीं होगी।
(ख) तलाकशुदा पत्नी
- इस्लामी कानून के अनुसार पति तलाकशुदा पत्नी को इद्दत अवधि (Iddat period) तक भरण-पोषण प्रदान करने के लिए बाध्य है।
- इद्दत अवधि सामान्यतः 3 मासिक धर्म चक्रों तक होती है, किंतु यदि महिला गर्भवती है तो प्रसव तक यह अवधि रहती है।
- शाह बानो केस (AIR 1985 SC) में सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला इद्दत के बाद भी धारा 125, दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत भरण-पोषण की हकदार है यदि वह स्वयं पालन-पोषण करने में असमर्थ हो।
- बाद में संसद ने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित किया, जिसके अंतर्गत पति केवल इद्दत अवधि तक भरण-पोषण देने का उत्तरदायी है, किन्तु इद्दत के पश्चात महिला अपने रिश्तेदारों या वक्फ बोर्ड से सहायता मांग सकती है।
(ग) बच्चों का भरण-पोषण
- मुस्लिम पिता अपने नाबालिग बच्चों के पालन-पोषण के लिए उत्तरदायी होता है।
- पुत्र तब तक भरण-पोषण का हकदार है जब तक वह वयस्क होकर अपनी आजीविका न कमा ले।
- पुत्री तब तक भरण-पोषण की हकदार है जब तक उसका विवाह न हो जाए।
(घ) माता-पिता का भरण-पोषण
- मुस्लिम विधि में वृद्ध और असमर्थ माता-पिता के भरण-पोषण का दायित्व संतान पर है, चाहे वे पुत्र हों या पुत्रियाँ।
3. न्यायालय का दृष्टिकोण
डैनियल लतीफी बनाम भारत संघ (2001) में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 की व्याख्या इस प्रकार की जाएगी कि तलाकशुदा महिला को इद्दत अवधि के भीतर ही उचित और यथोचित प्रावधान कर पति द्वारा भविष्य के लिए सुरक्षित किया जाएगा।
समानताएँ और भिन्नताएँ
- समानताएँ
- दोनों विधियों में पत्नी, बच्चे और माता-पिता भरण-पोषण के हकदार हैं।
- भरण-पोषण का उद्देश्य निर्भर व्यक्तियों को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करना है।
- भिन्नताएँ
- हिन्दू विधि में विधवा पुत्रवधू भी भरण-पोषण की हकदार है, जबकि मुस्लिम विधि में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है।
- मुस्लिम विधि में तलाकशुदा पत्नी केवल इद्दत अवधि तक भरण-पोषण की हकदार है, जबकि हिन्दू विधि में तलाक के बाद भी पत्नी न्यायालय से भरण-पोषण प्राप्त कर सकती है।
- हिन्दू विधि में भरण-पोषण का अधिकार अधिक व्यापक और दीर्घकालिक है।
निष्कर्ष
भरण-पोषण की संकल्पना भारतीय समाज और विधि दोनों में अत्यंत महत्वपूर्ण है। हिन्दू और मुस्लिम दोनों विधियों ने अपने-अपने ढंग से इसे मान्यता दी है। यद्यपि दोनों में कुछ भिन्नताएँ हैं, फिर भी उद्देश्य समान है—परिवार के निर्भर सदस्यों को सम्मानजनक जीवन जीने के लिए आवश्यक साधन उपलब्ध कराना।
आधुनिक न्यायपालिका ने बार-बार यह रेखांकित किया है कि भरण-पोषण का अधिकार एक मानवीय और सामाजिक न्याय पर आधारित अधिकार है, जिसे धर्म या व्यक्तिगत कानून की सीमाओं में बांधा नहीं जा सकता। यही कारण है कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 एक समान धर्मनिरपेक्ष उपाय उपलब्ध कराती है, जिससे कोई भी परित्यक्त या असमर्थ व्यक्ति न्यायालय से सहायता प्राप्त कर सकता है।
अतः यह कहा जा सकता है कि भरण-पोषण केवल कानूनी अधिकार ही नहीं, बल्कि नैतिक कर्तव्य और सामाजिक आवश्यकता भी है, जो समाज में न्याय और समानता की स्थापना करती है।