भारतीय न्यायपालिका की संरचना : सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालय
प्रस्तावना
भारतीय संविधान लोकतंत्र का आधार स्तंभ है और न्यायपालिका (Judiciary) उसकी आत्मा। न्यायपालिका न केवल कानून की व्याख्या करती है बल्कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा भी करती है। यह कार्यपालिका और विधायिका पर नियंत्रण रखते हुए सत्ता के विभाजन (Separation of Powers) और संतुलन का कार्य करती है। भारत में न्यायपालिका की संरचना एकीकृत (Integrated) और स्वतंत्र (Independent) है। इसका अर्थ यह है कि चाहे वह सर्वोच्च न्यायालय हो, उच्च न्यायालय हो या अधीनस्थ न्यायालय—सभी एक ही न्यायिक प्रणाली का हिस्सा हैं।
भारतीय न्यायपालिका की विशेषता यह है कि यह न केवल विवादों का निपटारा करती है बल्कि संविधान की सर्वोच्चता को बनाए रखते हुए “संवैधानिक संरक्षक” (Guardian of the Constitution) की भूमिका भी निभाती है। इस संरचना में शीर्ष पर सर्वोच्च न्यायालय, उसके बाद राज्यों में उच्च न्यायालय और फिर जिला स्तर पर अधीनस्थ न्यायालय आते हैं।
अब हम क्रमशः तीनों स्तरों की संरचना, अधिकार क्षेत्र और कार्यप्रणाली का विस्तार से अध्ययन करेंगे।
1. सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court of India)
सर्वोच्च न्यायालय भारत की न्यायपालिका का सर्वोच्च अंग है। इसकी स्थापना 28 जनवरी 1950 को संविधान के लागू होने के साथ हुई। यह न केवल अपीलीय न्यायालय (Court of Appeal) है बल्कि संविधान का संरक्षक भी है।
(क) संरचना
- सर्वोच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice of India) तथा अधिकतम 33 अन्य न्यायाधीश हो सकते हैं।
- न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, परंतु इसमें “कोलेजियम प्रणाली” (Collegium System) के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीशों की भी भूमिका होती है।
- न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक पद पर बने रहते हैं।
(ख) अधिकार क्षेत्र
- मौलिक अधिकारों की रक्षा (Article 32) – नागरिक सीधे सर्वोच्च न्यायालय में रिट (Writs) दाखिल कर सकते हैं।
- मूल अधिकारिता (Original Jurisdiction, Article 131) – राज्यों और केंद्र के बीच विवाद निपटाने का अधिकार।
- अपील अधिकारिता (Appellate Jurisdiction, Article 132–136) – उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपील सुनना।
- विशेष अनुमति याचिका (Special Leave Petition, Article 136) – किसी भी न्यायालय/अधिकरण के निर्णय के विरुद्ध विशेष अनुमति से अपील की जा सकती है।
- न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review) – असंवैधानिक कानूनों को निरस्त करने का अधिकार।
(ग) महत्व
सर्वोच्च न्यायालय “संवैधानिक व्याख्याता” (Interpreter of Constitution) है। यह संसद एवं कार्यपालिका के कार्यों पर नियंत्रण रखता है और नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है।
2. उच्च न्यायालय (High Courts)
भारत के प्रत्येक राज्य और केंद्रशासित प्रदेश में एक उच्च न्यायालय होता है। वर्तमान में देश में 25 उच्च न्यायालय हैं।
(क) संरचना
- प्रत्येक उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीश होते हैं।
- न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं, परंतु इसमें सर्वोच्च न्यायालय और संबंधित राज्यपाल व मुख्यमंत्री की परामर्श भूमिका होती है।
- उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की सेवानिवृत्ति आयु 62 वर्ष है।
(ख) अधिकार क्षेत्र
- मूल अधिकारिता (Original Jurisdiction) – कुछ मामलों में उच्च न्यायालय सीधे सुनवाई करता है, जैसे विवाह, संपत्ति विवाद आदि।
- अपील अधिकारिता (Appellate Jurisdiction) – अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपील।
- रिट अधिकारिता (Article 226) – मौलिक अधिकारों के साथ-साथ अन्य कानूनी अधिकारों की रक्षा हेतु रिट जारी करने का अधिकार।
- न्यायिक नियंत्रण (Superintendence, Article 227) – अधीनस्थ न्यायालयों पर प्रशासनिक और न्यायिक नियंत्रण।
(ग) महत्व
उच्च न्यायालय राज्यों के स्तर पर न्याय की सर्वोच्च संस्था है। यह नागरिकों को न्याय उपलब्ध कराने का प्राथमिक साधन है। इसके निर्णय सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दिए जा सकते हैं।
3. अधीनस्थ न्यायालय (Subordinate Courts)
अधीनस्थ न्यायालय जिला और तहसील स्तर पर कार्य करते हैं। ये न्यायालय सीधे जनता से जुड़े होते हैं और दैनिक जीवन से संबंधित अधिकतर मामलों की सुनवाई करते हैं।
(क) संरचना
- जिला स्तर पर जिला एवं सत्र न्यायालय (District and Sessions Court) होता है।
- इसके अधीन सिविल न्यायालय, फौजदारी न्यायालय, पारिवारिक न्यायालय, श्रम न्यायालय, वाणिज्यिक न्यायालय आदि आते हैं।
- सत्र न्यायालय आपराधिक मामलों की गंभीर श्रेणी की सुनवाई करता है जबकि सिविल न्यायालय दीवानी मामलों की।
(ख) अधिकार क्षेत्र
- सिविल न्यायालय – संपत्ति विवाद, अनुबंध विवाद, विवाह एवं उत्तराधिकार संबंधी मामले।
- दंड न्यायालय (Criminal Courts) – दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत अपराधों की सुनवाई।
- विशेष न्यायालय – जैसे पारिवारिक न्यायालय, किशोर न्यायालय, वाणिज्यिक न्यायालय।
- मजिस्ट्रेट न्यायालय – छोटे अपराधों एवं विवादों की सुनवाई।
(ग) महत्व
अधीनस्थ न्यायालय नागरिकों के लिए न्याय का पहला द्वार हैं। यहीं से अधिकतर मुकदमों की शुरुआत होती है और इन न्यायालयों का बोझ सबसे अधिक होता है।
4. भारतीय न्यायपालिका की विशेषताएँ
- एकीकृत न्यायपालिका – सर्वोच्च न्यायालय से लेकर अधीनस्थ न्यायालय तक सभी एक ही प्रणाली के अंग हैं।
- स्वतंत्रता – न्यायपालिका को कार्यपालिका और विधायिका से स्वतंत्र रखा गया है।
- न्यायिक पुनरावलोकन – असंवैधानिक कानूनों को निरस्त करने का अधिकार।
- न्याय सुलभता – जनता को त्वरित न्याय उपलब्ध कराना मुख्य उद्देश्य।
- लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा – न्यायपालिका लोकतंत्र को जीवंत बनाए रखती है।
5. चुनौतियाँ
- मुकदमों का भारी बोझ – लाखों मामले लंबित हैं।
- न्यायधीशों की कमी – पर्याप्त संख्या में नियुक्ति न होने से न्याय वितरण धीमा है।
- तकनीकी संसाधनों की कमी – कई न्यायालय अभी भी डिजिटल प्रणाली से पूर्णतः नहीं जुड़े हैं।
- भ्रष्टाचार और विलंब – न्याय प्रक्रिया में देरी से लोगों का विश्वास कम होता है।
6. सुधार के उपाय
- न्यायधीशों की संख्या बढ़ाना ताकि लंबित मामलों का शीघ्र निपटारा हो।
- ई-कोर्ट प्रणाली का विस्तार ताकि तकनीक के माध्यम से त्वरित सुनवाई संभव हो।
- वैकल्पिक विवाद निपटान प्रणाली (ADR) को प्रोत्साहन देना।
- विशेष न्यायालयों की स्थापना ताकि विशेष प्रकार के मामलों का शीघ्र समाधान हो।
- जनजागरूकता – नागरिकों को उनके अधिकारों और न्यायिक प्रक्रियाओं की जानकारी दी जानी चाहिए।
निष्कर्ष
भारतीय न्यायपालिका लोकतंत्र की आत्मा है और संविधान की रक्षा करने वाला प्रहरी। सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालय मिलकर एक मजबूत न्यायिक ढांचा तैयार करते हैं। इनकी भूमिका केवल विवादों का निपटारा करना ही नहीं बल्कि न्याय, समानता और स्वतंत्रता जैसे संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करना भी है।
यद्यपि न्यायपालिका अनेक चुनौतियों का सामना कर रही है, फिर भी यह भारतीय लोकतंत्र की नींव को मजबूत बनाए रखने में सफल रही है। आवश्यकता है कि न्यायपालिका को और अधिक पारदर्शी, त्वरित तथा जनोन्मुख बनाया जाए ताकि “न्याय में विलंब, न्याय से वंचित करने” की स्थिति न बने।