Article 136 of the Constitution of India and the Principle of Sustainable Development: A Critical Analysis of Bindu Kapurea v. Subhashish Panda & Others भारतीय संविधान का अनुच्छेद 136 और सतत विकास का सिद्धांत: बिंदु कपूरिया बनाम सुभाषिष पांडा एवं अन्य का आलोचनात्मक विश्लेषण
भारत का संविधान न्यायपालिका को अपील और विशेष अनुमति याचिका (Special Leave Petition – SLP) की असाधारण शक्ति प्रदान करता है। अनुच्छेद 136 (Article 136) इस दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी मामले में, जिसमें सामान्य रूप से अपील का अधिकार उपलब्ध नहीं है, विशेष अनुमति देने और न्याय सुनिश्चित करने की शक्ति प्रदान करता है। हाल ही में Bindu Kapurea बनाम Subhashish Panda एवं अन्य प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय ने इस शक्ति का प्रयोग करते हुए एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय दिया, जिसमें “सतत विकास” (Sustainable Development) और “पर्यावरणीय संतुलन” (Ecological Balance) को “अनुकूली उपयोग” (Adaptive Use) की कसौटी पर परखा गया। इस निर्णय ने स्पष्ट किया कि ऐतिहासिक धरोहर क्षेत्र (Heritage Zone) या हरित पट्टी (Green Belt Land) का उपयोग केवल तभी न्यायसंगत ठहराया जा सकता है जब परिवर्तन न्यूनतम (Minimal), प्रतिवर्ती (Reversible) और पर्यावरणीय दृष्टि से सुरक्षित (Environmentally Sound) हों।
इस लेख में हम इस निर्णय का गहन विश्लेषण करेंगे, जिसमें अनुच्छेद 136 की भूमिका, सतत विकास का सिद्धांत, अनुकूली उपयोग की अवधारणा, तथा न्यायालय द्वारा प्रतिपादित मार्गदर्शन पर विस्तार से चर्चा की जाएगी।
1. प्रस्तावना
पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन बनाना आधुनिक न्यायिक दृष्टिकोण की सबसे बड़ी चुनौती है। जहाँ एक ओर आर्थिक प्रगति और शहरीकरण की आवश्यकता है, वहीं दूसरी ओर प्राकृतिक संसाधनों और सांस्कृतिक धरोहर की सुरक्षा भी उतनी ही अनिवार्य है। Bindu Kapurea बनाम Subhashish Panda प्रकरण इस द्वंद्व का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है, जिसमें न्यायालय ने अनुच्छेद 136 का प्रयोग करते हुए सतत विकास और पर्यावरणीय न्याय (Environmental Justice) के मूल्यों को सुदृढ़ किया।
2. अनुच्छेद 136 का स्वरूप और महत्व
अनुच्छेद 136 सर्वोच्च न्यायालय को “विशेष अनुमति याचिका” (Special Leave to Appeal) की शक्ति देता है। यह शक्ति अपील के सामान्य अधिकार से परे है और न्यायालय को यह स्वतंत्रता देती है कि वह किसी भी न्यायाधिकरण या न्यायालय के निर्णय की समीक्षा कर सके। इसका उद्देश्य है –
- न्यायिक त्रुटियों को दूर करना,
- न्याय का व्यापक उद्देश्य सुनिश्चित करना,
- संविधान के मूल्यों की रक्षा करना।
इस प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 136 के अंतर्गत दखल देकर यह स्पष्ट किया कि पर्यावरण और धरोहर के मामलों में न्यायालय केवल तकनीकी आधार पर नहीं बल्कि व्यापक सार्वजनिक हित और भविष्य की पीढ़ियों के अधिकारों को ध्यान में रखकर निर्णय देगा।
3. सतत विकास का सिद्धांत
“सतत विकास” (Sustainable Development) का तात्पर्य है – ऐसा विकास जो वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति करे, किंतु भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं से समझौता न करे। भारतीय न्यायपालिका ने इस सिद्धांत को कई मामलों में मान्यता दी है, जैसे –
- Vellore Citizens Welfare Forum v. Union of India (1996) – इसमें न्यायालय ने सतत विकास को “भारतीय पर्यावरण कानून का हिस्सा” घोषित किया।
- Narmada Bachao Andolan v. Union of India (2000) – यहाँ न्यायालय ने कहा कि विकास और पर्यावरण दोनों साथ-साथ चलने चाहिए।
Bindu Kapurea मामले में न्यायालय ने इसी सिद्धांत को आगे बढ़ाया और कहा कि हरित क्षेत्र या धरोहर स्थल का उपयोग तभी संभव है जब उससे पर्यावरणीय संतुलन पर कोई गंभीर और अपूरणीय क्षति न हो।
4. अनुकूली उपयोग (Adaptive Use) की अवधारणा
अनुकूली उपयोग का अर्थ है – किसी स्थल, भवन या भूमि के उपयोग में ऐसा परिवर्तन करना जो –
- न्यूनतम (Minimal) हो,
- प्रतिवर्ती (Reversible) हो, अर्थात भविष्य में मूल अवस्था में लौटाया जा सके,
- पर्यावरणीय दृष्टि से सुरक्षित (Environmentally Sound) हो।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धरोहर या हरित भूमि का उपयोग किसी व्यावसायिक या आवासीय परियोजना के लिए तभी किया जा सकता है जब यह उपरोक्त कसौटियों पर खरा उतरता हो। यदि परिवर्तन स्थायी और अपूरणीय हैं, तो यह न केवल सतत विकास के विपरीत है, बल्कि संविधान द्वारा प्रदत्त “जीवन के अधिकार” (Article 21) का भी उल्लंघन होगा।
5. Bindu Kapurea v. Subhashish Panda प्रकरण के तथ्य
इस मामले में विवाद इस बात पर था कि क्या हरित पट्टी भूमि, जो कि पर्यावरणीय दृष्टि से संरक्षित थी, का उपयोग आवासीय/अन्य निर्माण कार्यों के लिए किया जा सकता है।
- याचिकाकर्ता (Bindu Kapurea) का तर्क था कि इस भूमि का उपयोग करने से पर्यावरणीय असंतुलन होगा और यह धरोहर क्षेत्र के मूल स्वरूप को नष्ट कर देगा।
- प्रतिवादी (Subhashish Panda एवं अन्य) ने यह कहा कि प्रस्तावित परिवर्तन न्यूनतम हैं और इससे सार्वजनिक हित को लाभ मिलेगा।
न्यायालय ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद यह माना कि –
- यदि परिवर्तन सीमित, नियंत्रित और प्रतिवर्ती हैं, तो उन्हें स्वीकार किया जा सकता है।
- लेकिन यदि परिवर्तन से पर्यावरण या धरोहर पर स्थायी क्षति होती है, तो यह संविधान के अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 48A (पर्यावरण संरक्षण का राज्य का कर्तव्य) का उल्लंघन होगा।
6. न्यायालय का निर्णय और तर्क
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में निम्नलिखित महत्वपूर्ण बिंदु प्रतिपादित किए –
- सतत विकास और धरोहर संरक्षण दोनों समान रूप से महत्वपूर्ण हैं।
- अनुकूली उपयोग केवल तभी मान्य है जब परिवर्तन –
- न्यूनतम हों,
- भविष्य में उलटे जा सकें (Reversible),
- पर्यावरण को कोई गंभीर क्षति न पहुँचाएँ।
- हरित पट्टी या धरोहर स्थल को स्थायी रूप से परिवर्तित करना असंवैधानिक है।
- Article 136 का प्रयोग करते हुए न्यायालय ने कहा कि न्याय केवल वर्तमान विवाद तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आने वाली पीढ़ियों की जिम्मेदारी भी है।
7. निर्णय का महत्व
यह निर्णय कई दृष्टियों से ऐतिहासिक है –
- यह दर्शाता है कि न्यायपालिका केवल विवाद निपटाने की संस्था नहीं है, बल्कि पर्यावरण और धरोहर की संरक्षक भी है।
- इसने अनुकूली उपयोग (Adaptive Use) की कसौटियों को स्पष्ट किया, जो भविष्य में नीतिगत निर्णयों और परियोजनाओं के लिए मार्गदर्शक होंगे।
- यह निर्णय संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) और अनुच्छेद 48A (पर्यावरण संरक्षण) को व्यावहारिक रूप में लागू करता है।
8. आलोचनात्मक विश्लेषण
हालाँकि यह निर्णय पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से सराहनीय है, लेकिन इसमें कुछ चुनौतियाँ भी निहित हैं –
- न्यूनतम और प्रतिवर्ती परिवर्तन की परिभाषा अस्पष्ट है। भविष्य में यह विवाद का कारण बन सकती है।
- विकास और संरक्षण के बीच संतुलन बनाने का दायित्व कार्यपालिका पर भी है, केवल न्यायपालिका पर नहीं।
- भूमि उपयोग से संबंधित नीति-निर्माण अधिक स्पष्ट और कठोर होना चाहिए ताकि न्यायालय पर अत्यधिक भार न पड़े।
9. निष्कर्ष
Bindu Kapurea बनाम Subhashish Panda का निर्णय भारतीय न्यायपालिका की पर्यावरणीय चेतना और संवैधानिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है। अनुच्छेद 136 के अंतर्गत न्यायालय ने यह सुनिश्चित किया कि सतत विकास केवल एक सैद्धांतिक अवधारणा न रह जाए, बल्कि उसे व्यवहार में भी लागू किया जाए।
इस निर्णय ने यह सिद्ध कर दिया कि –
- विकास और धरोहर संरक्षण विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हो सकते हैं।
- न्यायपालिका भविष्य की पीढ़ियों के अधिकारों की संरक्षक है।
- हरित क्षेत्र और धरोहर भूमि का अनुकूली उपयोग तभी मान्य है जब यह पर्यावरणीय दृष्टि से न्यायोचित हो।
अतः यह निर्णय न केवल भारतीय संवैधानिक कानून की दिशा तय करता है, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी यह संदेश देता है कि सतत विकास ही भविष्य का एकमात्र विकल्प है।