मूल संरचना सिद्धांत (Doctrine of Basic Structure) : प्रमुख न्यायिक दृष्टांतों सहित
भारतीय संविधान विश्व का सबसे बड़ा और विस्तृत संविधान है। इसमें संशोधन की प्रक्रिया भी दी गई है, ताकि समय और परिस्थितियों के अनुरूप इसमें आवश्यक परिवर्तन किए जा सकें। संविधान के अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संसद को संविधान संशोधन की शक्ति प्रदान की गई है। किंतु प्रश्न यह उठा कि क्या संसद को इतनी असीमित शक्ति प्राप्त है कि वह संविधान के किसी भी भाग को बदल सके, यहाँ तक कि संविधान की मूल आत्मा को भी? इसी प्रश्न का उत्तर भारतीय न्यायपालिका ने “मूल संरचना सिद्धांत (Doctrine of Basic Structure)” के रूप में दिया।
यह सिद्धांत न्यायपालिका की देन है और इसका उद्देश्य संविधान की मूल आत्मा, लोकतांत्रिक मूल्य तथा न्यायिक गरिमा की रक्षा करना है।
मूल संरचना सिद्धांत की अवधारणा
“मूल संरचना सिद्धांत” का अर्थ है कि संविधान के कुछ ऐसे मौलिक तत्व हैं जिन्हें संसद किसी भी प्रकार के संशोधन द्वारा समाप्त या नष्ट नहीं कर सकती। यद्यपि संविधान संशोधन संसद की विधायी शक्ति का ही विस्तार है, लेकिन यह शक्ति पूर्णत: निरंकुश नहीं है।
संविधान संशोधन की प्रक्रिया का उद्देश्य संविधान को लचीला बनाना है, परंतु उसकी आत्मा और मूल संरचना को अक्षुण्ण रखना भी उतना ही आवश्यक है। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहा कि संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन संविधान की मूल संरचना (Basic Structure) को नहीं बदल सकती।
मूल संरचना सिद्धांत के विकास की न्यायिक यात्रा
1. शंकर प्रसाद केस (Shankari Prasad v. Union of India, 1951)
इस मामले में संविधान (प्रथम संशोधन) 1951 को चुनौती दी गई थी, जिसमें मौलिक अधिकारों में कटौती की गई थी। याचिकाकर्ता ने कहा कि संसद को मौलिक अधिकारों में संशोधन करने का अधिकार नहीं है।
निर्णय: सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संसद अनुच्छेद 368 के तहत संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है, और मौलिक अधिकार भी इसमें सम्मिलित हैं।
2. सज्जन सिंह केस (Sajjan Singh v. State of Rajasthan, 1965)
इस मामले में 17वें संशोधन को चुनौती दी गई। न्यायालय ने फिर दोहराया कि संसद को संविधान संशोधन की असीमित शक्ति प्राप्त है और वह मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर सकती है।
हालाँकि, न्यायमूर्ति जे. आर. मुद्होलकर ने अपने मत में यह प्रश्न उठाया कि क्या संविधान की मूल विशेषताएँ संसद द्वारा संशोधित की जा सकती हैं? यहीं से “मूल संरचना सिद्धांत” का बीज बोया गया।
3. गोलकनाथ केस (I.C. Golaknath v. State of Punjab, 1967)
यह मामला भारतीय संवैधानिक इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण है। गोलकनाथ परिवार ने पंजाब भूमि अधिग्रहण कानून को चुनौती दी थी।
निर्णय: 11 न्यायाधीशों की पीठ में 6:5 के बहुमत से यह निर्णय हुआ कि संसद को मौलिक अधिकारों में संशोधन करने का अधिकार नहीं है। संविधान संशोधन “कानून” की श्रेणी में आता है और अनुच्छेद 13(2) के तहत संसद ऐसा कोई कानून नहीं बना सकती जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करे।
इस निर्णय से संसद की शक्ति पर गंभीर अंकुश लगा और व्यापक बहस छिड़ गई।
4. केशवानंद भारती केस (Kesavananda Bharati v. State of Kerala, 1973)
यह मामला भारतीय संविधान की व्याख्या में मील का पत्थर है। केरल सरकार ने भूमि सुधार कानून बनाए, जिन्हें केशवानंद भारती नामक मठाधीश ने चुनौती दी। इस मामले में 13 न्यायाधीशों की पीठ बैठी, जो अब तक की सबसे बड़ी पीठ थी।
निर्णय:
- 7:6 के बहुमत से न्यायालय ने कहा कि संसद को संविधान में संशोधन की शक्ति है, लेकिन वह संविधान की मूल संरचना (Basic Structure) को नहीं बदल सकती।
- न्यायालय ने यह भी कहा कि मौलिक अधिकारों में संशोधन संभव है, किंतु संविधान की मूल आत्मा नष्ट नहीं की जा सकती।
यही से “मूल संरचना सिद्धांत” का जन्म हुआ।
मूल संरचना में सम्मिलित तत्व
सर्वोच्च न्यायालय ने यह सूचीबद्ध नहीं किया कि “मूल संरचना” में क्या-क्या शामिल है, परंतु विभिन्न निर्णयों में निम्नलिखित तत्वों को मूल संरचना का हिस्सा माना गया है—
- संविधान की सर्वोच्चता
- गणराज्य और लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था
- धर्मनिरपेक्षता
- संघात्मक व्यवस्था
- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का विभाजन
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता
- न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review)
- मौलिक अधिकारों की सुरक्षा
- कानून का शासन (Rule of Law)
- चुनावों की स्वतंत्रता और निष्पक्षता
- समानता का सिद्धांत
- संसद और राज्य विधानसभाओं की संप्रभुता, परंतु संविधान की सर्वोच्चता के अधीन
- प्रस्तावना में निहित मूल आदर्श – स्वतंत्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व।
मूल संरचना सिद्धांत से संबंधित अन्य प्रमुख मामले
(i) इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण केस (1975)
आपातकाल के समय 39वें संविधान संशोधन द्वारा प्रधानमंत्री के चुनाव को न्यायिक पुनरावलोकन से बाहर कर दिया गया था।
निर्णय: सर्वोच्च न्यायालय ने इसे संविधान की मूल संरचना – लोकतांत्रिक व्यवस्था और न्यायिक पुनरावलोकन – के खिलाफ माना और संशोधन को असंवैधानिक घोषित कर दिया।
(ii) मिनर्वा मिल्स केस (Minerva Mills v. Union of India, 1980)
इस मामले में 42वें संशोधन को चुनौती दी गई, जिसने संसद की संशोधन शक्ति को असीमित बना दिया था।
निर्णय: न्यायालय ने कहा कि “सीमित संशोधन शक्ति” भी संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है। संसद अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर संविधान की आत्मा को नष्ट नहीं कर सकती।
(iii) वामन राव केस (Waman Rao v. Union of India, 1981)
न्यायालय ने कहा कि 24 अप्रैल 1973 (केशवानंद भारती निर्णय की तिथि) के बाद किए गए सभी संशोधन मूल संरचना सिद्धांत के अधीन होंगे और यदि वे मूल संरचना के विरुद्ध पाए गए तो निरस्त हो सकते हैं।
(iv) एस. आर. बोम्मई केस (S.R. Bommai v. Union of India, 1994)
इस ऐतिहासिक मामले में न्यायालय ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है। यदि कोई राज्य सरकार धर्म के आधार पर शासन चलाती है, तो उसे असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है।
(v) आई.आर. कोएल्हो केस (I.R. Coelho v. State of Tamil Nadu, 2007)
न्यायालय ने कहा कि नौंवीं अनुसूची (9th Schedule) में रखे गए कानून भी यदि मूल संरचना का उल्लंघन करते हैं तो न्यायिक समीक्षा से बाहर नहीं रह सकते।
मूल संरचना सिद्धांत का महत्व
- संविधान की आत्मा की रक्षा: यह सिद्धांत संविधान के मूल आदर्शों और लोकतांत्रिक मूल्यों की सुरक्षा करता है।
- संसद की शक्ति पर नियंत्रण: इससे संसद की संशोधन शक्ति निरंकुश नहीं रहती।
- जनता के अधिकारों की रक्षा: यह सिद्धांत नागरिकों के मौलिक अधिकारों को संरक्षित करता है।
- न्यायपालिका की भूमिका: यह सिद्धांत न्यायपालिका को संविधान की अंतिम संरक्षक बनाता है।
- लोकतंत्र की स्थिरता: यह सुनिश्चित करता है कि लोकतंत्र केवल बहुमत की शक्ति पर आधारित न होकर संविधान के बुनियादी मूल्यों पर टिका रहे।
निष्कर्ष
“मूल संरचना सिद्धांत” भारतीय संविधान का प्रहरी है। यह संसद की असीमित शक्ति को नियंत्रित कर संविधान की आत्मा, लोकतांत्रिक ढाँचे और न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा करता है। यदि यह सिद्धांत न होता, तो संसद राजनीतिक स्वार्थवश संविधान की मूल भावना को बदल सकती थी।
इस प्रकार, केशवानंद भारती केस (1973) से उत्पन्न यह सिद्धांत आज भी भारतीय लोकतंत्र की मजबूती और संविधान की स्थिरता का आधार स्तंभ है। यह सिद्धांत सुनिश्चित करता है कि संविधान मात्र एक कानूनी दस्तावेज नहीं, बल्कि राष्ट्र की आत्मा और नागरिकों की स्वतंत्रता का रक्षक है।