भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (Prevention of Corruption Act, 1988) – एक गहन अध्ययन
प्रस्तावना
भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है भ्रष्टाचार। यह न केवल प्रशासनिक तंत्र को कमजोर करता है, बल्कि जनता का शासन और न्यायपालिका पर विश्वास भी डगमगा देता है। भ्रष्टाचार के कारण विकास की गति धीमी होती है, संसाधनों का दुरुपयोग होता है और सामाजिक असमानता बढ़ती है। स्वतंत्रता के पश्चात् जैसे-जैसे सरकारी विभागों का विस्तार हुआ, भ्रष्टाचार की समस्या भी गहराती गई।
इस समस्या से निपटने के लिए संसद ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (Prevention of Corruption Act, 1988) बनाया। यह अधिनियम पहले से अस्तित्व में मौजूद भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों – भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947, लोक सेवक (निवारण) अधिनियम, 1952 और भारतीय दंड संहिता की कुछ धाराओं को समाहित कर एक समग्र विधि के रूप में लाया गया।
अधिनियम का उद्देश्य
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 का मुख्य उद्देश्य है –
- लोक सेवकों द्वारा किए जाने वाले भ्रष्टाचार पर रोक लगाना।
- रिश्वतखोरी और घूसखोरी को कठोर दंडनीय अपराध बनाना।
- भ्रष्टाचार की जांच और अभियोजन के लिए विशेष प्रावधान करना।
- लोक सेवकों के आचरण को जवाबदेह और पारदर्शी बनाना।
- भ्रष्टाचार को नियंत्रित कर सुशासन और ईमानदार प्रशासन को बढ़ावा देना।
अधिनियम की प्रमुख विशेषताएँ
1. परिभाषाएँ
- लोक सेवक (Public Servant): अधिनियम में “लोक सेवक” की परिभाषा विस्तृत की गई है। इसमें केंद्र और राज्य सरकार के कर्मचारी, न्यायाधीश, सांसद, विधायक, स्थानीय निकायों के कर्मचारी, सरकारी कंपनियों और निगमों के अधिकारी, यहाँ तक कि विश्वविद्यालयों और सहकारी संस्थाओं के कर्मचारी भी शामिल हैं।
- यह परिभाषा भारतीय दंड संहिता (IPC) से भी व्यापक है।
2. दंडनीय अपराध
अधिनियम के अंतर्गत निम्नलिखित कृत्य अपराध माने गए हैं –
- किसी लोक सेवक द्वारा रिश्वत (Gratification) स्वीकार करना या मांगना।
- लोक सेवक द्वारा किसी कार्य या निर्णय के बदले में मूल्यवान वस्तु या लाभ स्वीकार करना।
- लोक सेवक का अमानत में धोखाधड़ी करना।
- लोक सेवक द्वारा संपत्ति का अनुचित अर्जन (Disproportionate Assets)।
- किसी व्यक्ति द्वारा लोक सेवक को रिश्वत देने का प्रयास।
3. विशेष न्यायालय (Special Courts)
- भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों की शीघ्र सुनवाई हेतु विशेष न्यायालयों की स्थापना का प्रावधान किया गया।
- ये न्यायालय केवल लोक सेवकों से संबंधित अपराधों की सुनवाई करते हैं।
4. दंड का प्रावधान
- रिश्वत लेने या देने वाले को न्यूनतम 3 वर्ष से अधिकतम 7 वर्ष तक की सजा और जुर्माने का प्रावधान है।
- अनुचित संपत्ति अर्जित करने पर भी समान दंड दिया जा सकता है।
5. अभियोजन की स्वीकृति (Sanction for Prosecution)
- किसी लोक सेवक पर मुकदमा चलाने के लिए संबंधित प्राधिकारी से पूर्व स्वीकृति आवश्यक है।
- यह प्रावधान ईमानदार अधिकारियों की रक्षा के लिए है, ताकि वे भयमुक्त होकर कार्य कर सकें।
अधिनियम की प्रमुख धाराएँ
- धारा 7: लोक सेवक द्वारा रिश्वत लेने पर दंड।
- धारा 8: किसी अन्य व्यक्ति द्वारा लोक सेवक को रिश्वत देने पर दंड।
- धारा 9: रिश्वत देने में मध्यस्थ की भूमिका पर दंड।
- धारा 11: लोक सेवक द्वारा अवैध उपहार स्वीकार करने पर दंड।
- धारा 13: लोक सेवक द्वारा आपराधिक दुराचार (Criminal Misconduct)।
- धारा 19: अभियोजन की स्वीकृति आवश्यक।
- धारा 20: रिश्वत लेने का अनुमान (Presumption of Guilt)।
सामाजिक महत्व
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 ने भारतीय समाज में भ्रष्टाचार की समस्या को कानूनी दृष्टि से गंभीर अपराध माना। इस कानून ने लोक सेवकों की जवाबदेही बढ़ाई और जनता को यह संदेश दिया कि भ्रष्टाचार को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
2018 का संशोधन
समय के साथ यह अधिनियम भी सुधार की मांग करता रहा। 2018 में इसमें महत्वपूर्ण संशोधन किए गए –
- रिश्वत देने वाले (Bribe Giver) को भी कठोर दंड का प्रावधान।
- लोक सेवकों के खिलाफ मुकदमा चलाने हेतु पूर्व स्वीकृति अनिवार्य।
- रिश्वत लेने और देने दोनों को अपराध की समान श्रेणी में रखा गया।
- कंपनियों और कॉरपोरेट निकायों को भी उत्तरदायी ठहराया गया।
- न्यूनतम सजा की अवधि 3 वर्ष से बढ़ाकर 4 वर्ष कर दी गई।
न्यायालयों की व्याख्या
(1) सी.के. दामोदरन नायर बनाम भारत संघ (1997)
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि रिश्वत लेने की सजा तभी दी जा सकती है जब यह साबित हो कि लोक सेवक ने जानबूझकर अवैध लाभ लिया है।
(2) मनोहर लाल शर्मा बनाम भारत संघ (कोलगेट घोटाला मामला, 2014)
अदालत ने कहा कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम का उद्देश्य उच्च पदस्थ अधिकारियों को भी जवाबदेह बनाना है।
(3) सुब्रमण्यम स्वामी बनाम मनमोहन सिंह (2012)
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अभियोजन की स्वीकृति देने में अनावश्यक देरी करना न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध है।
अधिनियम की उपलब्धियाँ
- इस अधिनियम के कारण अनेक बड़े घोटालों और भ्रष्टाचार के मामलों का पर्दाफाश हुआ।
- लोक सेवकों में भय और जवाबदेही की भावना विकसित हुई।
- विशेष न्यायालयों के माध्यम से मामलों की शीघ्र सुनवाई संभव हुई।
- 2018 के संशोधन ने निजी क्षेत्र और कंपनियों को भी जिम्मेदार ठहराया।
अधिनियम की आलोचनाएँ और चुनौतियाँ
- स्वीकृति प्रावधान का दुरुपयोग: कई बार अभियोजन की स्वीकृति न मिलने से भ्रष्ट अधिकारी बच जाते हैं।
- जांच एजेंसियों पर राजनीतिक दबाव: अक्सर जांच एजेंसियां स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर पातीं।
- मुकदमों में देरी: विशेष न्यायालयों के बावजूद भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों का निपटारा वर्षों तक लंबित रहता है।
- भ्रष्टाचार के नए रूप: तकनीक और कॉर्पोरेट जगत में भ्रष्टाचार के नए रूप सामने आ रहे हैं, जिनसे निपटना चुनौतीपूर्ण है।
- सजा की कम दर: कई मामलों में पर्याप्त सबूत न मिलने पर आरोपी छूट जाते हैं।
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम और अन्य कानून
- यह अधिनियम भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 161-165 को निरस्त कर लाया गया।
- लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 तथा सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के साथ मिलकर यह भ्रष्टाचार विरोधी तंत्र को मजबूत करता है।
- केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC) और लोकपाल भी इसी अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने में भूमिका निभाते हैं।
निष्कर्ष
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भारतीय लोकतंत्र में सुशासन और पारदर्शिता सुनिश्चित करने की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है। इसने लोक सेवकों को जवाबदेह बनाया और रिश्वतखोरी को कठोर दंडनीय अपराध घोषित किया। हालांकि, इसके प्रभावी क्रियान्वयन में कई चुनौतियाँ हैं – जैसे राजनीतिक हस्तक्षेप, मुकदमों में देरी और स्वीकृति प्रावधान का दुरुपयोग।
यदि सरकार और न्यायपालिका मिलकर इस अधिनियम को कड़ाई से लागू करें, जांच एजेंसियों को स्वतंत्र बनाएं और जनता में जागरूकता फैलाएं, तभी भ्रष्टाचार जैसी गहरी समस्या से प्रभावी ढंग से निपटा जा सकता है।
भ्रष्टाचार पर नियंत्रण केवल कानून बनाने से नहीं होगा, बल्कि उसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति, प्रशासनिक ईमानदारी और नागरिकों की भागीदारी भी आवश्यक है। यही इस अधिनियम का मूल संदेश है।