सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Code of Civil Procedure – CPC) — विस्तृत लेख
प्रस्तावना
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Code of Civil Procedure – CPC) भारत में दीवानी मामलों की सुनवाई और निर्णय की प्रक्रिया को नियंत्रित करने वाला प्रमुख अधिनियम है। इसका उद्देश्य न्यायालयों में दीवानी वादों के संचालन के लिए एक समान, स्पष्ट और व्यवस्थित ढांचा प्रदान करना है ताकि न्याय जल्दी, प्रभावी और निष्पक्ष रूप से प्रदान किया जा सके। यह संहिता न केवल न्यायालयों के अधिकार और प्रक्रिया को निर्धारित करती है बल्कि वाद दाखिल करने से लेकर उसके अंतिम निस्तारण तक के सभी चरणों का विस्तृत विवरण देती है।
1. इतिहास और पृष्ठभूमि
CPC का प्रारंभिक रूप ब्रिटिश शासन के दौरान 1859 में लाया गया था, लेकिन वह केवल उच्च न्यायालयों के अधीन लागू था। बाद में 1877 और 1882 में इसमें संशोधन हुए। अंततः 21 मार्च 1908 को वर्तमान सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 पारित हुई, जो 1 जनवरी 1909 से लागू हुई। यह पूरे भारत में लागू है, सिवाय उन क्षेत्रों के जहां विशेष प्रावधान अलग से बनाए गए हैं।
2. उद्देश्य
CPC का मुख्य उद्देश्य है:
- समान प्रक्रिया: सभी दीवानी न्यायालयों में एक समान प्रक्रिया लागू करना।
- न्याय में तीव्रता: अनावश्यक विलंब और तकनीकी बाधाओं को कम करना।
- निष्पक्षता: सभी पक्षों को समान अवसर प्रदान करना।
- न्यायालय की कार्यवाही का स्पष्ट निर्धारण।
3. संरचना (Structure of CPC)
CPC दो भागों में विभाजित है:
- प्रथम भाग – धाराएं (Sections 1 to 158)
- इसमें CPC के सामान्य सिद्धांत और परिभाषाएँ दी गई हैं।
- इसमें न्यायालय की शक्तियाँ, अधिकार क्षेत्र, स्थानांतरण, संयुक्त कार्यवाही आदि से संबंधित प्रावधान हैं।
- द्वितीय भाग – अनुसूचियां (First Schedule: Orders & Rules)
- इसमें 51 आदेश (Orders) और उनके नियम (Rules) हैं।
- ये आदेश वाद दाखिल करने, नोटिस जारी करने, गवाह बुलाने, साक्ष्य लेने, निर्णय सुनाने आदि की विस्तृत प्रक्रिया बताते हैं।
4. मुख्य प्रावधान और सिद्धांत
(A) अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction)
- विषयाधिकार (Subject matter jurisdiction): किस प्रकार के वाद सुनने का अधिकार है।
- क्षेत्राधिकार (Territorial jurisdiction): किस क्षेत्र के वाद सुनने का अधिकार है।
- मूल्याधिकार (Pecuniary jurisdiction): वाद के मूल्य के आधार पर अधिकार।
(B) वाद की प्रक्रिया (Stages of Suit)
- वाद दायर करना (Institution of suit) – plaint की फाइलिंग।
- समन जारी करना (Issue of summons) – प्रतिवादी को नोटिस।
- उत्तरपत्र (Written statement) – प्रतिवादी का जवाब।
- मुद्दों का निर्धारण (Framing of issues) – विवादित बिंदुओं की पहचान।
- साक्ष्य और गवाह (Evidence & witnesses) – दोनों पक्ष साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।
- बहस (Arguments) – वकीलों की मौखिक दलीलें।
- निर्णय और डिक्री (Judgment & Decree) – अदालत का अंतिम आदेश।
(C) अस्थायी राहतें (Interim Reliefs)
- अस्थायी निषेधाज्ञा (Temporary injunction)
- अस्थायी कुर्की (Attachment before judgment)
- नियुक्ति रिसीवर (Appointment of receiver)
(D) निर्णय और डिक्री (Judgment & Decree)
- निर्णय: न्यायालय द्वारा तथ्यों और कानून पर आधारित अंतिम कारणयुक्त बयान।
- डिक्री: न्यायालय का औपचारिक और बाध्यकारी आदेश।
(E) अपील, पुनरीक्षण और पुनर्विचार (Appeal, Revision & Review)
- अपील: उच्चतर न्यायालय में निर्णय को चुनौती देना।
- पुनरीक्षण: उच्च न्यायालय द्वारा अधीनस्थ न्यायालय के निर्णय की जांच।
- पुनर्विचार: उसी न्यायालय द्वारा अपने निर्णय का पुनः परीक्षण।
5. CPC में संशोधन
1908 से अब तक CPC में कई संशोधन हुए हैं, जैसे 1976, 1999 और 2002 के संशोधन, जिनका उद्देश्य न्यायिक प्रक्रिया को सरल और त्वरित बनाना था। हाल के संशोधनों में ई-फाइलिंग, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, और समयबद्ध निस्तारण जैसी व्यवस्थाएं भी जोड़ी गई हैं।
6. महत्व और प्रासंगिकता
CPC भारत की न्यायिक व्यवस्था की रीढ़ है। इसके बिना दीवानी न्यायालयों का संचालन संभव नहीं। यह पक्षकारों के अधिकारों की रक्षा करता है, विवाद समाधान को सुव्यवस्थित करता है और न्याय को सुनिश्चित करता है।
7. निष्कर्ष
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 केवल एक कानूनी दस्तावेज नहीं, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया का विस्तृत मार्गदर्शन है। समय-समय पर इसमें संशोधन करते रहना आवश्यक है ताकि यह बदलते सामाजिक और तकनीकी परिवेश में प्रभावी बना रहे। न्याय में देरी को कम करने और निष्पक्षता बनाए रखने के लिए CPC का सही और त्वरित पालन करना प्रत्येक न्यायालय और पक्षकार के लिए अनिवार्य है।