बाल विवाह निषेध अधिनियम, 1929: लड़कियों को शिक्षा और बचपन देने की दिशा में ऐतिहासिक कदम
भूमिका
भारतीय समाज में बाल विवाह एक ऐसी परंपरा थी, जो सदियों से प्रचलित रही। यह केवल सामाजिक बुराई ही नहीं बल्कि बच्चों, विशेषकर लड़कियों के अधिकारों का खुला उल्लंघन था। इसमें नाबालिग लड़के और लड़कियों की शादी कम उम्र में कर दी जाती थी, जिससे उनके बचपन, शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वतंत्रता पर गंभीर प्रभाव पड़ता था। 20वीं सदी के प्रारंभ में सामाजिक सुधारकों के निरंतर प्रयास और जनजागृति के परिणामस्वरूप बाल विवाह निषेध अधिनियम, 1929 (Child Marriage Restraint Act, 1929) पारित हुआ, जिसे प्रचलित रूप से शारदा अधिनियम कहा जाता है। यह कानून भारत में बाल विवाह पर कानूनी अंकुश लगाने वाला पहला प्रयास था।
बाल विवाह की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
बाल विवाह का इतिहास भारत में काफी पुराना है।
- कारण:
- सामाजिक सुरक्षा – लड़कियों की जल्दी शादी करके उन्हें कथित रूप से “सुरक्षित” मानना।
- जाति और गोत्र की शुद्धता बनाए रखना।
- दहेज प्रथा – कम उम्र में दहेज की राशि कम होने का विश्वास।
- अंधविश्वास और धार्मिक मान्यताएँ – यह मानना कि जल्दी शादी से शुभ फल मिलते हैं।
- परिणाम:
- लड़कियों की शिक्षा में रुकावट।
- कम उम्र में गर्भधारण से मातृ मृत्यु दर और शिशु मृत्यु दर बढ़ना।
- मानसिक और शारीरिक विकास पर प्रतिकूल असर।
बाल विवाह के खिलाफ सुधार आंदोलन
19वीं और 20वीं सदी में कई समाज सुधारकों ने बाल विवाह के खिलाफ आंदोलन चलाए।
- राजा राम मोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर और महात्मा गांधी ने इसके खिलाफ आवाज उठाई।
- हरबिलास शारदा (राजस्थान के एक समाज सुधारक और विधायक) ने इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए लगातार संघर्ष किया।
- उन्होंने 1927 में केंद्रीय विधान परिषद में बाल विवाह निषेध विधेयक प्रस्तुत किया, जो 1929 में कानून बन गया।
बाल विवाह निषेध अधिनियम, 1929 के प्रमुख प्रावधान
इस कानून का उद्देश्य बाल विवाह को रोकना था, न कि केवल इसके बाद दंड देना।
- न्यूनतम विवाह आयु (1929 में) –
- लड़कियाँ: 14 वर्ष
- लड़के: 18 वर्ष
- दंड प्रावधान:
- बाल विवाह कराने वाले माता-पिता, अभिभावक या संबंधित व्यक्ति पर जुर्माना और कारावास की सजा।
- दोषी को एक महीने तक का कारावास और 1,000 रुपये तक का जुर्माना हो सकता था।
- क्षेत्राधिकार:
- प्रारंभ में यह कानून केवल ब्रिटिश भारत के कुछ हिस्सों में लागू हुआ, बाद में पूरे भारत में लागू कर दिया गया।
समाज पर कानून का प्रभाव
- इस कानून ने पहली बार कानूनी रूप से बाल विवाह को गलत ठहराया।
- इसके बाद लड़कियों की शिक्षा को प्रोत्साहन मिला और धीरे-धीरे शिक्षा का महत्व समाज में बढ़ा।
- हालांकि प्रारंभ में ग्रामीण क्षेत्रों में इसका विरोध हुआ और कई जगह कानून का पालन ढीला रहा, लेकिन यह महिला अधिकारों की रक्षा के लिए आधारशिला साबित हुआ।
संशोधन और समय के साथ बदलाव
बाल विवाह निषेध अधिनियम में समय-समय पर संशोधन होते रहे:
- 1949 संशोधन – लड़कियों की न्यूनतम विवाह आयु 15 वर्ष कर दी गई।
- 1978 संशोधन – लड़कियों की आयु 18 वर्ष और लड़कों की 21 वर्ष कर दी गई।
- 2006 – इस कानून को बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 से प्रतिस्थापित किया गया, जिसमें अधिक कड़े दंड प्रावधान और निवारक उपाय जोड़े गए।
बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 की मुख्य बातें
- बाल विवाह शून्य (voidable) घोषित किया जा सकता है, अर्थात पीड़ित पक्ष अदालत में जाकर विवाह को रद्द करा सकता है।
- बाल विवाह कराने, उसमें भाग लेने या उसका प्रचार करने वाले व्यक्ति को दो साल तक की सजा और 1 लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है।
- बाल विवाह से जन्मे बच्चों के अधिकार सुरक्षित रहते हैं।
- प्रत्येक जिले में बाल विवाह निषेध अधिकारी नियुक्त किए जाते हैं।
लड़कियों की शिक्षा और बचपन पर प्रभाव
1929 के अधिनियम और इसके बाद के सुधारों ने लड़कियों के जीवन में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाए:
- शिक्षा का प्रसार – कम उम्र में शादी रुकने से लड़कियों को स्कूल और कॉलेज जाने का अवसर मिला।
- स्वास्थ्य में सुधार – किशोरावस्था में गर्भधारण की समस्या कम हुई, जिससे मातृ और शिशु मृत्यु दर में कमी आई।
- आर्थिक सशक्तिकरण – शिक्षा के माध्यम से लड़कियां नौकरी और व्यवसाय में सक्षम हुईं।
- सामाजिक स्थिति में बदलाव – लड़कियों को अपने जीवन के निर्णय लेने की आज़ादी बढ़ी।
चुनौतियां और वर्तमान स्थिति
हालांकि कानूनी प्रावधान मौजूद हैं, लेकिन भारत में बाल विवाह अब भी कुछ क्षेत्रों में जारी है।
- कारण: गरीबी, अशिक्षा, लैंगिक भेदभाव, सामाजिक दबाव और परंपरा।
- राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5, 2019-21) के अनुसार, भारत में 20-24 वर्ष की लगभग 23% महिलाओं की शादी 18 वर्ष से पहले हो जाती है।
- सरकार और सामाजिक संगठनों को मिलकर जागरूकता अभियान, शिक्षा में निवेश, और कानून का सख्त पालन सुनिश्चित करना होगा।
निष्कर्ष
बाल विवाह निषेध अधिनियम, 1929 केवल एक कानून नहीं था, बल्कि यह भारतीय समाज में महिला अधिकारों की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम था। इसने लड़कियों को न केवल बचपन और शिक्षा दी, बल्कि उनके जीवन को अपने तरीके से जीने का अधिकार भी दिया। यह अधिनियम यह संदेश देता है कि सामाजिक बुराइयों को खत्म करने के लिए कानूनी हस्तक्षेप और सामाजिक जागरूकता, दोनों की आवश्यकता होती है।