भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013: किसान हितों की सुरक्षा और विकास के बीच संतुलन

भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013: किसान हितों की सुरक्षा और विकास के बीच संतुलन :

प्रस्तावना

भूमि अधिग्रहण भारतीय राजनीति और समाज का एक संवेदनशील विषय रहा है। देश में जैसे-जैसे शहरीकरण, औद्योगीकरण और बुनियादी ढांचे का विस्तार हुआ, वैसे-वैसे भूमि अधिग्रहण की आवश्यकता बढ़ी। परंतु इसके साथ-साथ भूमि अधिग्रहण की प्रक्रियाओं में किसानों, आदिवासियों और ग्रामीण समुदायों के अधिकारों की अनदेखी भी सामने आती रही। भूमि केवल संपत्ति नहीं, बल्कि एक जीवनदायिनी स्रोत है – जिसमें लोगों की पहचान, संस्कृति, रोजगार और भविष्य निहित होता है।

वर्ष 2013 में पारित भूमि अधिग्रहण अधिनियम ने इस दिशा में एक ऐतिहासिक पहल करते हुए विकास और मानव अधिकारों के बीच संतुलन स्थापित करने की कोशिश की।


अधिनियम की उत्पत्ति और कारण

भारत में भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया लंबे समय तक भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 द्वारा संचालित थी, जो ब्रिटिश शासन के दौरान बनाया गया था। इस कानून में भूमि मालिकों की सहमति की कोई आवश्यकता नहीं थी और मुआवज़ा भी अक्सर बाज़ार दर से कम दिया जाता था। पुनर्वास की कोई कानूनी गारंटी नहीं थी।

इस अधिनियम की कमियों के कारण अनेक सामाजिक आंदोलनों जैसे नर्मदा बचाओ आंदोलन, सिंगूर और नंदीग्राम आंदोलन, और पोलावरम बांध विरोध आदि उठे। अंततः केंद्र सरकार ने 2011 में एक नया विधेयक संसद में प्रस्तुत किया और 2013 में उसे अधिनियम के रूप में पारित कर लागू किया गया।


अधिनियम के उद्देश्य

  • भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया को न्यायसंगत, पारदर्शी और लोकतांत्रिक बनाना।
  • प्रभावित व्यक्तियों को उचित मुआवजा, पुनर्वास और पुनर्स्थापन प्रदान करना।
  • किसानों और भूमिहीनों के आजीविका अधिकार की रक्षा करना।
  • जन-सहमति और सामाजिक मूल्यांकन के माध्यम से निर्णय प्रक्रिया को लोक सहभागी बनाना।

महत्वपूर्ण विशेषताएँ

1. सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन (SIA)

सभी परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण से पहले सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन आवश्यक है। इसमें अधिग्रहण के प्रभावों की विस्तृत रिपोर्ट तैयार की जाती है – जैसे आजीविका, पर्यावरण, संस्कृति, विस्थापन आदि।

2. जन-सहमति का प्रावधान

  • निजी परियोजनाओं के लिए – 80% प्रभावित परिवारों की सहमति अनिवार्य।
  • PPP परियोजनाओं के लिए – 70% प्रभावित परिवारों की सहमति आवश्यक।
  • इससे प्रभावित समुदायों को निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी का अधिकार मिलता है।

3. उचित मुआवज़ा

  • ग्रामीण क्षेत्रों में बाजार मूल्य का कम से कम दोगुना
  • शहरी क्षेत्रों में 1 गुना या उससे अधिक
  • साथ ही 100% सोलातियम (Solatium) और अन्य लाभ जैसे पंजीकरण शुल्क, आजीविका सहायता आदि।

4. पुनर्वास और पुनर्स्थापन (R&R)

भूमि से बेदखल लोगों के लिए –

  • वैकल्पिक घर,
  • कृषि भूमि,
  • मासिक भत्ता,
  • नौकरी या स्वरोजगार सहायता,
  • बच्चों की शिक्षा,
  • चिकित्सा और आधारभूत सुविधाएँ।
    R&R के बिना कोई अधिग्रहण मान्य नहीं होगा।

5. लंबित अधिग्रहणों पर भी लागू

जो अधिग्रहण 5 वर्षों से अधिक समय से अधूरे हैं, उन पर भी यह अधिनियम लागू होता है, जिससे पुराने मामलों में भी न्याय सुनिश्चित हो।


अधिनियम के लाभ

  • यह किसानों और आदिवासियों को भूमि का उचित मूल्य और पुनर्स्थापन का अधिकार देता है।
  • विकास परियोजनाओं को जन-समर्थन के साथ क्रियान्वित करने में मदद करता है।
  • जमीन के मालिकों और प्रभावित समुदायों की सम्मानजनक भागीदारी सुनिश्चित करता है।
  • राजनीतिक और प्रशासनिक मनमानी को नियंत्रित करता है।
  • यह अधिनियम “विकास का मानवीकरण” करता है।

चुनौतियाँ और आलोचनाएँ

  • भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया लंबी और जटिल हो गई है, जिससे परियोजनाओं में देरी होती है।
  • कई राज्यों ने इस अधिनियम के प्रावधानों को अपने संशोधित कानूनों द्वारा शिथिल कर दिया है।
  • SIA रिपोर्टें औपचारिकता मात्र बन जाती हैं, जनसुनवाई प्रभावी नहीं होती।
  • अधिग्रहण की लागत कई गुना बढ़ जाने से निजी निवेश में कमी आई है।
  • कई बार पुनर्वास योजनाएं कागज़ों में रह जाती हैं, व्यवहार में नहीं।

न्यायपालिका की भूमिका

भारतीय न्यायपालिका ने इस अधिनियम के सिद्धांतों को मज़बूती से समर्थन दिया है। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट्स ने अनेक बार यह दोहराया है कि:

  • भूमि अधिग्रहण लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत होना चाहिए।
  • मुआवज़ा बाज़ार मूल्य पर आधारित और समयबद्ध होना चाहिए।
  • जन-सहमति के बिना अधिग्रहण रद्द किया जा सकता है।

निष्कर्ष

भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 भारत में विकास और सामाजिक न्याय के संतुलन की दिशा में एक दूरदर्शी कदम है। यह कानून केवल भूमि अधिग्रहण का साधन नहीं, बल्कि एक नैतिक और संवेदनशील दृष्टिकोण है जो यह स्वीकार करता है कि “भूमि केवल संपत्ति नहीं, बल्कि आजीविका, संस्कृति और आत्मसम्मान है।”

भविष्य में इस अधिनियम की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि राज्य सरकारें इसे कितनी निष्ठा से लागू करती हैं, और कितना जन-हित इसके केंद्र में बनाए रखती हैं।