“निजता बनाम संदेह: सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय – बेवफाई के शक में बच्चों का डीएनए परीक्षण अनिवार्य नहीं”

“निजता बनाम संदेह: सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय – बेवफाई के शक में बच्चों का डीएनए परीक्षण अनिवार्य नहीं”
(Right to Privacy Over Suspicion: Supreme Court Rejects Mandatory DNA Testing of Children in Marital Disputes)


📚 विस्तृत विश्लेषणात्मक लेख:

🔰 न्यायालय: भारत का सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court of India)
🔰 पीठ (Bench):
माननीय न्यायमूर्ति वी. रामासुब्रमण्यम (Justice V. Ramasubramanian)
माननीय न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना (Justice B. V. Nagarathna)

🔰 मामला:
2021 के बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली एक महिला की याचिका पर सुनवाई


🔍 पृष्ठभूमि:

पति-पत्नी के वैवाहिक संबंधों में अक्सर आपसी विश्वास में दरार आने पर बेवफाई (infidelity) के आरोप सामने आते हैं। हाल के वर्षों में ऐसे मामलों में यह प्रवृत्ति देखी जा रही है कि पति यह सिद्ध करने के लिए कि बच्चा उसका नहीं है, नाबालिग बच्चे का डीएनए परीक्षण (DNA Test) करवाने की मांग करता है।
सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे एक मामले में अहम टिप्पणी करते हुए इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की आवश्यकता जताई।


⚖️ मुख्य प्रश्न:

क्या वैवाहिक बेवफाई के संदेह मात्र पर नाबालिग बच्चे का डीएनए परीक्षण किया जा सकता है?


🏛️ सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय:

1️⃣ निजता का हनन (Violation of Privacy):

कोर्ट ने कहा कि किसी बच्चे का जबरन डीएनए परीक्षण उसके निजता के मूल अधिकार (Right to Privacy) का उल्लंघन है, खासकर तब जब वह स्वयं कानूनी विवाद का पक्षकार भी नहीं है।

2️⃣ बच्चा कोई वस्तु नहीं:

बेंच ने कहा कि बच्चे कोई वस्तु नहीं हैं, जिन्हें परीक्षण के लिए प्रस्तुत किया जाए। उनका भी आत्म-सम्मान और गरिमा है, और समाज तथा न्यायालय को इसका संरक्षण करना चाहिए।

3️⃣ मानसिक प्रभाव:

इस तरह के परीक्षण से बच्चे पर गंभीर मानसिक प्रभाव पड़ सकता है। उन्हें यह संदेश मिलता है कि उन्हें अपने ही अस्तित्व को साबित करना है, जो बचपन की मासूमियत को तोड़ देता है।

4️⃣ डीएनए टेस्ट शॉर्टकट नहीं:

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वैवाहिक विवादों में डीएनए परीक्षण को सच जानने का शॉर्टकट नहीं समझा जाना चाहिए। पति-पत्नी के आपसी झगड़ों में बच्चे को इस प्रकार घसीटना अनुचित और अन्यायपूर्ण है।


🔎 कानूनी सिद्धांत और मौलिक अधिकार:

📜 निजता का अधिकार (Right to Privacy):
2017 के Puttaswamy v. Union of India (9 जजों की बेंच) फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने निजता को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अभिन्न अंग माना।
डीएनए परीक्षण के जरिए किसी व्यक्ति की जैविक पहचान सार्वजनिक करना उसी निजता का उल्लंघन माना जाता है।


📌 निर्णय के प्रमुख निष्कर्ष:

  • केवल संदेह के आधार पर नाबालिग बच्चों का डीएनए परीक्षण नहीं किया जा सकता।
  • बच्चों को अपने “जन्म की वैधता सिद्ध करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता”
  • बच्चे न्यायिक प्रक्रिया में प्रतिवादी नहीं, फिर भी सबसे अधिक प्रभावित होते हैं।
  • न्यायालयों को बच्चों की गरिमा और मनोवैज्ञानिक स्थिति का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
  • बेवफाई का संदेह = डीएनए टेस्ट की अनुमति नहीं।

📘 सामाजिक व विधिक प्रभाव:

  1. बच्चों की गरिमा की सुरक्षा: यह निर्णय बच्चों की अस्मिता और बचपन की मानसिक शांति को प्राथमिकता देता है।
  2. न्यायिक संतुलन का संकेत: कोर्ट ने स्पष्ट किया कि केवल तथ्यों की खोज के नाम पर किसी के मौलिक अधिकारों की बलि नहीं दी जा सकती
  3. डीएनए टेस्ट का नियंत्रित प्रयोग: अब डीएनए टेस्ट केवल अत्यावश्यक और न्यायोचित परिस्थितियों में ही अनुमन्य होगा

✍️ निष्कर्ष:

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय न्यायशास्त्र में एक संवेदनशील एवं मानवाधिकार आधारित दृष्टिकोण का परिचायक है। यह फैसला स्पष्ट करता है कि न्याय की खोज में हमें कभी-कभी स्वयं को मानवता और गरिमा की सीमा में बांधना पड़ता है।
बच्चों को वैवाहिक संदेह के जाल में फँसाकर उन्हें ‘सबूत’ बनाने की प्रवृत्ति पर यह निर्णय एक सख्त चेतावनी है।