न्यायपालिका (Judiciary) और विधायिका (Legislature) के संबंध में भारत में प्रावधान
भारत में न्यायपालिका (Judiciary) और विधायिका (Legislature) के बीच संबंध संविधान द्वारा निर्धारित किया गया है। भारत में सरकार के तीन अंग—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—एक-दूसरे के अधिकार क्षेत्रों का सम्मान करते हुए कार्य करते हैं। भारतीय संविधान ने इन तीनों के बीच शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए विभिन्न प्रावधान किए हैं।
संवैधानिक प्रावधान
1. शक्ति विभाजन (Separation of Powers) – अनुच्छेद 50
- अनुच्छेद 50 के तहत न्यायपालिका और कार्यपालिका को अलग रखने की बात कही गई है, ताकि न्यायपालिका स्वतंत्र रूप से कार्य कर सके।
- विधायिका कानून बनाती है, जबकि न्यायपालिका उन कानूनों की व्याख्या करती है और उनके अनुसार न्याय देती है।
- हालांकि, भारत में पूर्ण रूप से “शक्ति विभाजन” नहीं है, बल्कि एक संतुलित व्यवस्था (Balance of Powers) है।
2. न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) – अनुच्छेद 13, 32, 226
- न्यायपालिका के पास यह अधिकार है कि वह विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों की समीक्षा करे और यह देखे कि वे संविधान के अनुरूप हैं या नहीं।
- यदि कोई कानून संविधान के मूल ढांचे (Basic Structure) का उल्लंघन करता है, तो न्यायपालिका उसे असंवैधानिक घोषित कर सकती है।
- अनुच्छेद 13 कहता है कि कोई भी कानून संविधान के मौलिक अधिकारों के विरुद्ध नहीं होना चाहिए।
- अनुच्छेद 32 (सुप्रीम कोर्ट) और अनुच्छेद 226 (हाई कोर्ट) नागरिकों को मौलिक अधिकारों के हनन के मामले में न्याय पाने का अधिकार देते हैं।
उदाहरण:
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने “मूल संरचना सिद्धांत (Basic Structure Doctrine)” स्थापित किया और कहा कि संसद संविधान के मूल ढांचे को नहीं बदल सकती।
3. विधायिका का न्यायिक शक्तियों पर नियंत्रण
- संसद के पास यह अधिकार है कि वह संविधान संशोधन (Constitutional Amendment) द्वारा न्यायपालिका के निर्णयों को प्रभावित कर सकती है, लेकिन यह संशोधन संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं कर सकता।
- संसद और राज्य विधानसभाओं के विशेषाधिकारों का उल्लंघन करने पर न्यायपालिका कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकती।
- संसद को न्यायपालिका के निर्णयों के आधार पर नए कानून बनाने या मौजूदा कानूनों में संशोधन करने का अधिकार है।
उदाहरण:
- 77वां संविधान संशोधन (1995) द्वारा सरकार ने मंडल आयोग के फैसले को लागू करने के लिए संविधान में संशोधन किया और अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए आरक्षण को न्यायिक समीक्षा से बाहर कर दिया।
4. उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति – अनुच्छेद 124, 217
- अनुच्छेद 124 के तहत सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, लेकिन इसमें कॉलिजियम सिस्टम (Chief Justice और अन्य वरिष्ठ न्यायाधीशों की सिफारिशें) की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
- अनुच्छेद 217 के तहत हाई कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति भी राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
विधायिका और न्यायपालिका के बीच विवाद:
- NJAC (National Judicial Appointments Commission) बनाम Collegium System विवाद – संसद ने 99वां संविधान संशोधन (2014) पारित कर NJAC बनाया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया क्योंकि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता के खिलाफ था।
5. महाभियोग (Impeachment) के माध्यम से न्यायपालिका पर नियंत्रण – अनुच्छेद 124(4)
- यदि कोई न्यायाधीश भ्रष्टाचार में लिप्त पाया जाता है या अपने पद के योग्य नहीं है, तो संसद उसे महाभियोग प्रक्रिया द्वारा हटा सकती है।
- अब तक किसी भी न्यायाधीश को पूरी तरह से महाभियोग के माध्यम से नहीं हटाया गया है।
- न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी (1993) के खिलाफ महाभियोग लाया गया था, लेकिन वह पारित नहीं हो सका।
6. विधायिका के विशेषाधिकार बनाम न्यायिक हस्तक्षेप
- संसद और विधानसभाओं के पास अपने सदस्यों के आचरण और कार्यवाही को नियंत्रित करने का विशेषाधिकार है।
- यदि कोई सदस्य सदन की कार्यवाही में बाधा डालता है, तो उसे दंडित किया जा सकता है।
- सुप्रीम कोर्ट इस क्षेत्र में बहुत सीमित हस्तक्षेप कर सकता है।
उदाहरण:
- केशव सिंह मामला (1965) – उत्तर प्रदेश विधानसभा ने केशव सिंह को विशेषाधिकार हनन के लिए दंडित किया, लेकिन हाई कोर्ट ने हस्तक्षेप किया। मामला सुप्रीम कोर्ट गया, जिसने संतुलन बनाए रखने का निर्देश दिया।
न्यायपालिका और विधायिका के बीच विवाद
हालांकि संविधान दोनों के बीच संतुलन बनाए रखने की कोशिश करता है, फिर भी कई बार दोनों के बीच विवाद उत्पन्न होते हैं।
- NJAC बनाम Collegium विवाद (2015) – संसद ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए NJAC कानून बनाया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया।
- सुप्रीम कोर्ट द्वारा संसद के कानूनों को असंवैधानिक घोषित करना – कई बार न्यायपालिका ने संसद के बनाए गए कानूनों को असंवैधानिक घोषित कर दिया, जिससे विवाद हुआ।
- सुप्रीम कोर्ट और संसद के विशेषाधिकारों का टकराव – संसद के विशेषाधिकारों पर न्यायपालिका के हस्तक्षेप को लेकर कई बार बहस होती है।
निष्कर्ष
भारत में न्यायपालिका और विधायिका के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए संविधान में कई प्रावधान किए गए हैं। न्यायपालिका को स्वतंत्र रखा गया है ताकि वह विधायिका के कानूनों की समीक्षा कर सके और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा कर सके। वहीं, विधायिका के पास यह अधिकार है कि वह कानून बनाकर न्यायपालिका के निर्णयों को प्रभावित कर सके। हालांकि, दोनों के बीच समय-समय पर टकराव देखने को मिलता है, लेकिन भारतीय लोकतंत्र ने अब तक संतुलन बनाए रखा है।