विशेष अनुबंध (माल विक्रय अधिनियम 1930, भारतीय भागीदारी अधिनियम 1932, सीमित दायित्व भागीदारी अधिनियम 2008)

वस्तुओं की विक्रय अधिनियम, 1930 से संबंधित लघु उत्तरी प्रश्न और उत्तर 

❖ 1. वस्तुओं की विक्रय अधिनियम, 1930 क्या है?

उत्तर:
वस्तुओं की विक्रय अधिनियम, 1930 भारत में वस्तुओं की बिक्री को नियंत्रित करने वाला एक प्रमुख कानून है। यह अधिनियम 1 जुलाई 1930 से लागू हुआ और पहले यह भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 का हिस्सा था, लेकिन बाद में इसे एक अलग अधिनियम के रूप में अधिनियमित किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य विक्रेता और क्रेता के बीच अनुबंध के अधिकारों और कर्तव्यों को स्पष्ट करना है। अधिनियम में वस्तुओं की परिभाषा, मूल्य निर्धारण, अनुबंध की शर्तें, स्वामित्व का अंतरण, और दोनों पक्षों के दायित्वों का निर्धारण किया गया है। यह अधिनियम केवल चल संपत्ति (movable goods) पर लागू होता है।


❖ 2. विक्रय (Sale) और विक्रय करार (Agreement to Sell) में क्या अंतर है?

उत्तर:
विक्रय और विक्रय करार में मुख्य अंतर स्वामित्व के हस्तांतरण का समय है। “विक्रय” (Sale) में वस्तुओं का स्वामित्व तुरंत विक्रेता से खरीदार को स्थानांतरित हो जाता है। वहीं “विक्रय करार” (Agreement to Sell) में स्वामित्व भविष्य की किसी तिथि पर या किसी शर्त के पूरा होने पर स्थानांतरित होता है। यदि विक्रेता अनुबंध का उल्लंघन करता है, तो विक्रय की स्थिति में खरीदार वस्तु पर दावा कर सकता है, जबकि करार की स्थिति में केवल हर्जाना मांग सकता है। यह अंतर खरीदार और विक्रेता के अधिकारों और दायित्वों को प्रभावित करता है।


❖ 3. ‘Goods’ की परिभाषा क्या है?

उत्तर:
वस्तुओं की विक्रय अधिनियम, 1930 की धारा 2(7) के अनुसार, “Goods” से आशय प्रत्येक प्रकार की चल संपत्ति से है, सिवाय दाव (Action) और मुद्रा (Money) के। इसमें उत्पादित वस्तुएँ, निर्मित वस्तुएँ, कृषि उत्पाद, पशु, स्टॉक, और किसी भी प्रकार की भौतिक वस्तुएँ सम्मिलित होती हैं। इसमें मौजूदा वस्तुएँ (Existing Goods), भविष्य की वस्तुएँ (Future Goods), और नियत वस्तुएँ (Specific Goods) भी शामिल होती हैं। यह परिभाषा इस अधिनियम के दायरे को स्पष्ट करती है और यह केवल मूवेबल प्रॉपर्टी (Movable Property) पर ही लागू होती है।


❖ 4. विक्रेता और खरीदार कौन होते हैं?

उत्तर:
विक्रेता (Seller) वह व्यक्ति होता है जो किसी अनुबंध के अंतर्गत वस्तुएँ बेचता है या बेचने का इच्छुक होता है। वहीं, खरीदार (Buyer) वह व्यक्ति होता है जो वस्तुएँ खरीदता है या खरीदने की इच्छा रखता है। दोनों पक्षों के बीच एक वैध अनुबंध होना आवश्यक है, जिसके अंतर्गत विक्रेता वस्तु का स्वामित्व खरीदार को हस्तांतरित करता है और खरीदार उसके बदले मूल्य अदा करता है। अधिनियम के अंतर्गत दोनों पक्षों के अधिकारों और दायित्वों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है, ताकि विवाद की स्थिति में न्याय किया जा सके।


❖ 5. विक्रेता के अधिकार और दायित्व क्या हैं?

उत्तर:
विक्रेता का प्रमुख अधिकार वस्तु का मूल्य प्राप्त करना होता है। यदि खरीदार भुगतान नहीं करता, तो विक्रेता को वस्तुओं पर रोक (Right of Lien), पुनः विक्रय का अधिकार (Right of Resale), और रद्दीकरण का अधिकार प्राप्त होता है। वहीं, दायित्व के रूप में विक्रेता को वस्तुएँ निर्दिष्ट मात्रा, गुणवत्ता और समय पर देना होता है। यदि विक्रेता वस्तु देने से इनकार करता है या अनुबंध की शर्तों का उल्लंघन करता है, तो खरीदार क्षतिपूर्ति मांग सकता है। इन अधिकारों और दायित्वों का उद्देश्य निष्पक्ष व्यापारिक व्यवहार सुनिश्चित करना है।


❖ 6. खरीदार के अधिकार और दायित्व क्या हैं?

उत्तर:
खरीदार का मुख्य अधिकार है कि उसे बेची गई वस्तु अनुबंध के अनुसार उचित गुणवत्ता, मात्रा और समय पर प्राप्त हो। यदि विक्रेता अनुबंध की शर्तों का उल्लंघन करता है, तो खरीदार को मुआवजा, अस्वीकृति और विशिष्ट निष्पादन (Specific Performance) का अधिकार प्राप्त होता है। वहीं, खरीदार का दायित्व है कि वह वस्तु का मूल्य अनुबंध के अनुसार समय पर अदा करे और वस्तुओं को स्वीकार करे। यदि खरीदार अनुबंध के उल्लंघन में आता है, तो विक्रेता उसके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई कर सकता है।


❖ 7. ‘Implied Conditions’ और ‘Implied Warranties’ क्या होती हैं?

उत्तर:
विक्रय अनुबंध में ‘Implied Conditions’ वे शर्तें होती हैं जो अनुबंध में स्पष्ट रूप से नहीं कही जातीं लेकिन कानून द्वारा मान ली जाती हैं, जैसे वस्तु का शीर्षक (Title), गुणवत्ता, और फिटनेस। यदि इनमें से कोई शर्त पूरी नहीं होती, तो खरीदार अनुबंध को रद्द कर सकता है। दूसरी ओर, ‘Implied Warranties’ उपशर्तें होती हैं, जैसे शांतिपूर्ण स्वामित्व, और यह कि वस्तु तीसरे पक्ष के दावे से मुक्त हो। इनके उल्लंघन पर खरीदार केवल हर्जाना मांग सकता है। ये दोनों अवधारणाएँ खरीदार की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं।


यहाँ वस्तुओं की विक्रय अधिनियम, 1930 से संबंधित प्रश्न संख्या 8 से 15 तक के कम से कम 100 शब्दों वाले संक्षिप्त उत्तर (Short Answers) दिए गए हैं:


❖ 8. स्वामित्व (Ownership) का अंतरण कब होता है?

उत्तर:
स्वामित्व का अंतरण उस समय होता है जब विक्रेता वस्तु की सभी शर्तों को पूरा करके वस्तु को खरीदार को सौंप देता है और खरीदार उस वस्तु को स्वीकार कर लेता है। अधिनियम के अनुसार, स्वामित्व का अंतरण इस बात पर निर्भर करता है कि वस्तु विशिष्ट (Specific), सामान्य (Unascertained), या भविष्य की वस्तु (Future Goods) है। यदि वस्तु विशिष्ट है और बिक्री के लिए तैयार है, तो स्वामित्व तुरंत स्थानांतरित हो सकता है। लेकिन यदि वस्तु को तैयार करना बाकी है या मात्रा निर्धारित नहीं हुई है, तो स्वामित्व का अंतरण तब होता है जब आवश्यक शर्तें पूरी हो जाती हैं।


❖ 9. माल की डिलीवरी (Delivery of Goods) के प्रकार क्या हैं?

उत्तर:
डिलीवरी का अर्थ है वस्तुओं का स्वामित्व और कब्जा खरीदार को देना। अधिनियम के अनुसार, डिलीवरी तीन प्रकार की हो सकती है:

  1. वास्तविक डिलीवरी (Actual Delivery): जब वस्तुएँ सीधे खरीदार को दी जाती हैं।
  2. निर्देशात्मक डिलीवरी (Constructive Delivery): जब तीसरा पक्ष खरीदार के निर्देश पर वस्तुएँ उसे सौंपता है।
  3. प्रतीकात्मक डिलीवरी (Symbolic Delivery): जब वस्तु का कोई प्रतीक (जैसे गोदाम की चाबी) खरीदार को दिया जाता है।
    डिलीवरी का तरीका परिस्थिति पर निर्भर करता है और इसका उद्देश्य वस्तु का वैध हस्तांतरण करना होता है।

❖ 10. बिना भुगतान वाला विक्रेता (Unpaid Seller) कौन होता है?

उत्तर:
जब विक्रेता ने वस्तु बेची हो लेकिन उसे पूरा मूल्य नहीं मिला हो, तो उसे “Unpaid Seller” कहा जाता है। अधिनियम की धारा 45 के अनुसार, विक्रेता तब भी Unpaid Seller माना जाएगा यदि चेक या ड्राफ्ट का भुगतान असफल हो जाए। Unpaid Seller को कुछ विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं, जैसे वस्तुओं पर रोक (Right of Lien), वस्तुओं की वापसी (Right of Stoppage in Transit), और पुनः विक्रय (Right of Resale)। ये अधिकार खरीदार के द्वारा अनुबंध के उल्लंघन की स्थिति में विक्रेता को सुरक्षा प्रदान करते हैं।


❖ 11. बिना भुगतान वाले विक्रेता के अधिकार क्या हैं?

उत्तर:
Unpaid Seller को विक्रय अधिनियम के तहत कई अधिकार प्राप्त होते हैं।
i. वस्तुओं पर रोक (Right of Lien): जब तक विक्रेता को भुगतान नहीं मिल जाता, वह वस्तु अपने पास रख सकता है।
ii. ट्रांजिट में रोक (Right of Stoppage in Transit): यदि वस्तु रास्ते में है और खरीदार दिवालिया हो गया है, तो विक्रेता उसे रोक सकता है।
iii. पुनः विक्रय (Right of Resale): यदि खरीदार अनुबंध का पालन नहीं करता, तो विक्रेता वस्तु को दोबारा बेच सकता है।
iv. मुकदमा (Suit for Price): विक्रेता खरीदार से मूल्य प्राप्त करने के लिए न्यायालय में वाद कर सकता है।
ये अधिकार विक्रेता को कानूनी सुरक्षा प्रदान करते हैं।


❖ 12. मूल्य (Price) निर्धारित कैसे किया जाता है?

उत्तर:
विक्रय अनुबंध में मूल्य (Price) वह राशि होती है जिसे खरीदार को वस्तुओं के बदले में विक्रेता को देना होता है। मूल्य को तीन तरीकों से निर्धारित किया जा सकता है:

  1. स्पष्ट रूप से अनुबंध में लिखा हुआ (Expressly Fixed): जब मूल्य पहले से निर्धारित होता है।
  2. पिछली व्यापार परंपरा के अनुसार: जब मूल्य पूर्व व्यापार व्यवहार के अनुसार तय होता है।
  3. उचित मूल्य (Reasonable Price): जब अनुबंध में मूल्य निर्दिष्ट न हो, तब वस्तु का बाजार मूल्य उचित माना जाता है।
    मूल्य का निर्धारण आवश्यक है, अन्यथा अनुबंध शून्य हो सकता है।

❖ 13. विशिष्ट वस्तु (Specific Goods) क्या होती है?

उत्तर:
विशिष्ट वस्तुएँ वे होती हैं जिन्हें अनुबंध बनाते समय पहचाना और परिभाषित किया जा चुका हो। अधिनियम की धारा 2(14) के अनुसार, जब विक्रेता और खरीदार किसी विशेष वस्तु को अनुबंध का हिस्सा बनाते हैं, जैसे कि एक विशेष कार या मशीन, तो वह विशिष्ट वस्तु कहलाती है। इसका विपरीत अनिर्धारित (Unascertained) वस्तुएँ होती हैं, जिन्हें अनुबंध के समय स्पष्ट नहीं किया गया हो। विशिष्ट वस्तुओं में स्वामित्व का अंतरण अनुबंध के समय या वस्तु की डिलीवरी के समय हो सकता है। इनके विवाद की स्थिति में विशिष्ट पहचान मददगार होती है।


❖ 14. भविष्य की वस्तुएँ (Future Goods) क्या होती हैं?

उत्तर:
भविष्य की वस्तुएँ वे होती हैं जो विक्रेता अनुबंध के समय मौजूद नहीं होतीं लेकिन बाद में बनाकर, पैदा करके या प्राप्त करके दी जाती हैं। अधिनियम की धारा 2(6) के अनुसार, जैसे किसान द्वारा फसल काटने के बाद बेचना या फैक्टरी द्वारा निर्माण के बाद वस्तु देना। ऐसी वस्तुओं का स्वामित्व तुरंत हस्तांतरित नहीं होता, बल्कि किसी भविष्य की तिथि पर जब वे तैयार हो जाती हैं, तब खरीदार को स्थानांतरित किया जाता है। भविष्य की वस्तुओं की बिक्री दरअसल एक “Agreement to Sell” होती है, न कि “Sale”।


❖ 15. सामान्य वस्तुएँ (Unascertained Goods) क्या होती हैं?

उत्तर:
सामान्य या अनिर्धारित वस्तुएँ वे होती हैं जो अनुबंध के समय स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट नहीं होतीं। उदाहरण के लिए, यदि कोई अनुबंध किया जाए कि “100 बोरी चावल बेचे जाएंगे” लेकिन यह न बताया जाए कि कौन-सी बोरी, तो वह अनुबंध सामान्य वस्तु का है। जब इन वस्तुओं को बाद में पहचान कर अलग किया जाता है, तभी स्वामित्व का अंतरण होता है। सामान्य वस्तुओं की बिक्री “Agreement to Sell” होती है, और इनका स्थानांतरण तब होता है जब वस्तुएँ खरीदार के लिए निर्धारित की जाती हैं।


❖ 16. वस्तुओं पर रोक (Right of Lien) क्या है?

उत्तर:
जब विक्रेता ने वस्तु बेच दी हो, लेकिन उसे मूल्य नहीं मिला हो, और वस्तु अब भी उसके कब्जे में हो, तो उसे उस वस्तु को रोक कर रखने का अधिकार होता है। इसे ‘Right of Lien’ कहते हैं। यह अधिकार केवल तभी लागू होता है जब वस्तु खरीदार के कब्जे में न गई हो और भुगतान नहीं हुआ हो। विक्रेता बिना भुगतान के वस्तु नहीं देगा। यह अधिकार तब तक लागू रहता है जब तक विक्रेता को पूरा भुगतान नहीं मिल जाता या कोई अन्य विशेष समझौता न हो।


❖ 17. ट्रांजिट में वस्तु को रोकना (Right of Stoppage in Transit) क्या है?

उत्तर:
यदि विक्रेता ने वस्तु भेज दी हो और वह रास्ते में है, लेकिन उसे पता चले कि खरीदार दिवालिया हो गया है, तो उसे ट्रांजिट में वस्तु को रोकने का अधिकार प्राप्त है। इसे ‘Right of Stoppage in Transit’ कहते हैं। यह अधिकार Unpaid Seller को वस्तु की डिलीवरी के पूर्व मिलता है और यह तब तक लागू रहता है जब तक वस्तु खरीदार के कब्जे में नहीं पहुँच जाती। यह अधिकार विक्रेता की आर्थिक सुरक्षा के लिए बहुत आवश्यक होता है।


❖ 18. पुनः विक्रय (Right of Resale) का क्या अर्थ है?

उत्तर:
जब कोई खरीदार वस्तु का भुगतान नहीं करता और विक्रेता Unpaid Seller बन जाता है, तो उसे उस वस्तु को दोबारा बेचने का अधिकार मिल जाता है। इसे ‘Right of Resale’ कहते हैं। यह अधिकार विशेष रूप से तब उपयोग में आता है जब खरीदार वस्तु लेने या मूल्य चुकाने से इंकार कर देता है। पुनः विक्रय से प्राप्त राशि से विक्रेता अपना नुकसान पूरा कर सकता है। यदि कोई अतिरिक्त लाभ होता है, तो वह खरीदार को मिल सकता है। यह अधिकार विक्रेता के हितों की रक्षा करता है।


❖ 19. विक्रय और विनिमय में अंतर लिखिए।

उत्तर:
विक्रय (Sale) और विनिमय (Exchange) में प्रमुख अंतर यह है कि विक्रय में वस्तु के बदले मूल्य (Price) का भुगतान किया जाता है, जबकि विनिमय में वस्तु के बदले वस्तु दी जाती है। उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति ₹1000 में घड़ी बेचता है तो यह विक्रय है; लेकिन अगर वह घड़ी के बदले रेडियो लेता है, तो यह विनिमय है। भारतीय कानून के तहत केवल वह लेन-देन विक्रय माना जाता है जिसमें “मूल्य” का भुगतान किया गया हो। विनिमय पर सामान्य अनुबंध अधिनियम लागू होता है।


❖ 20. वस्तुओं की विक्रय में ‘Agreement to Sell’ और ‘Sale’ में अंतर?

उत्तर:
‘Sale’ और ‘Agreement to Sell’ में मुख्य अंतर स्वामित्व के स्थानांतरण का है। Sale में स्वामित्व तुरंत खरीदार को स्थानांतरित हो जाता है, जबकि Agreement to Sell में भविष्य की किसी तारीख पर या किसी शर्त के पूरा होने पर स्थानांतरित होता है। Sale एक पूर्ण अनुबंध है, जबकि Agreement to Sell एक निष्पादित अनुबंध (executory contract) है। Sale में यदि खरीदार भुगतान नहीं करता, तो विक्रेता मुकदमा कर सकता है; जबकि Agreement to Sell में वस्तु के स्वामित्व के स्थानांतरण से पहले विक्रेता वस्तु पर रोक रख सकता है।


❖ 21. वस्तु का नाश होने का नियम क्या है?

उत्तर:
यदि कोई वस्तु अनुबंध बनने से पहले ही नष्ट हो चुकी हो और दोनों पक्षों को इसकी जानकारी न हो, तो अनुबंध शून्य हो जाता है। यदि अनुबंध बनने के बाद और स्वामित्व के खरीदार को स्थानांतरण से पहले वस्तु का नाश होता है, और यह किसी पक्ष की गलती से नहीं हुआ है, तब भी अनुबंध स्वतः समाप्त हो जाता है। इसे Doctrine of Frustration के अंतर्गत देखा जाता है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी पक्ष किसी ऐसी वस्तु की जिम्मेदारी न उठाए, जो अब अस्तित्व में नहीं है।


❖ 22. विक्रेता और खरीदार के बीच उत्पन्न विवाद कहाँ सुलझाया जा सकता है?

उत्तर:
विक्रेता और खरीदार के बीच उत्पन्न विवाद को भारतीय न्यायालयों में सिविल वाद (civil suit) के माध्यम से सुलझाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, यदि अनुबंध में मध्यस्थता (Arbitration) की शर्त हो, तो मामला मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा हल किया जा सकता है। भारतीय अनुबंध अधिनियम और विक्रय अधिनियम के प्रावधानों के आधार पर पक्ष न्याय प्राप्त कर सकते हैं। कुछ मामलों में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत भी खरीदार राहत ले सकता है। विवाद के समाधान के लिए अनुबंध की शर्तें निर्णायक होती हैं।


❖ 23. विक्रय अनुबंध में ‘Condition’ और ‘Warranty’ में क्या अंतर है?

उत्तर:
‘Condition’ अनुबंध की मूलभूत शर्त होती है, जिसका उल्लंघन होने पर खरीदार अनुबंध रद्द कर सकता है। वहीं, ‘Warranty’ गौण शर्त होती है, जिसका उल्लंघन होने पर खरीदार केवल हर्जाना (damages) मांग सकता है, अनुबंध रद्द नहीं कर सकता। उदाहरणस्वरूप, यदि किसी घोड़े की नस्ल को लेकर झूठ कहा जाए, तो वह ‘Condition’ होगी, लेकिन अगर घोड़े की रस्सी कमजोर हो, तो वह ‘Warranty’ होगी। दोनों में अंतर अनुबंध के उल्लंघन के प्रभाव के आधार पर निर्धारित किया जाता है।


❖ 24. ‘Passing of Risk’ का क्या अर्थ है?

उत्तर:
‘Passing of Risk’ का अर्थ है माल के नुकसान या क्षति का खतरा किस पक्ष पर होगा। सामान्यतः, जोखिम (Risk) उसी पक्ष पर होता है जिस पर वस्तु का स्वामित्व होता है। यदि वस्तु खरीदार को हस्तांतरित कर दी गई है, तो उस पर कोई भी क्षति या हानि का उत्तरदायित्व खरीदार का होगा, भले ही उसने वस्तु प्राप्त न की हो। यह नियम “Risk follows ownership” के सिद्धांत पर आधारित है। परंतु, यदि डिलीवरी में विलंब किसी पक्ष की गलती से हो, तो जिम्मेदारी उसी पक्ष पर होगी।


❖ 25. ‘Auction Sale’ क्या है?

उत्तर:
Auction Sale वह विधि है जिसमें वस्तुएँ बोली के माध्यम से बेची जाती हैं। इसमें विक्रेता किसी व्यक्ति को नीलामीकर्ता नियुक्त करता है, जो वस्तुओं की बोली लगवाता है। उच्चतम बोली लगाने वाले व्यक्ति को वस्तु बेची जाती है। अधिनियम के अनुसार, जब नीलामीकर्ता हथौड़ा या अन्य प्रतीक के माध्यम से स्वीकृति देता है, तभी विक्रय पूरा होता है। Auction में गोपनीय न्यूनतम मूल्य (Reserve Price) भी हो सकता है। खरीदार को बोली से पहले शर्तों को समझना आवश्यक होता है।


यहाँ वस्तुओं की विक्रय अधिनियम, 1930 से संबंधित प्रश्न संख्या 26 से 30 तक के 100 शब्दों में संक्षिप्त उत्तर (Short Answers) प्रस्तुत किए जा रहे हैं:


❖ 26. ‘Unpaid Seller’ कौन होता है?

उत्तर:
‘Unpaid Seller’ वह विक्रेता होता है जिसे वस्तु का मूल्य पूरी तरह से नहीं मिला हो या भुगतान का वादा किया गया चेक, बिल आदि बाउंस हो गया हो। ऐसा विक्रेता विक्रय अधिनियम की धारा 45 के अंतर्गत आता है। उसे कुछ विशेष अधिकार प्राप्त होते हैं जैसे कि Lien (रोकने का अधिकार), Stoppage in Transit (ट्रांजिट में रोकने का अधिकार), और Resale (पुनर्विक्रय का अधिकार)। यह स्थिति विक्रेता के हितों की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण है, विशेषकर जब खरीदार दिवालिया हो जाए या भुगतान से मुकर जाए।


❖ 27. ‘Document of Title to Goods’ से आप क्या समझते हैं?

उत्तर:
‘Document of Title to Goods’ वह दस्तावेज होता है जो माल के स्वामित्व या कब्जे को दर्शाता है और जिसे स्थानांतरित करके माल का स्वामित्व भी स्थानांतरित किया जा सकता है। उदाहरणस्वरूप, बिल ऑफ लेडिंग (Bill of Lading), रेलवे रसीद (Railway Receipt), वेयरहाउस रसीद (Warehouse Receipt) आदि। इस दस्तावेज़ के माध्यम से खरीदार माल की डिलीवरी प्राप्त कर सकता है या किसी अन्य को ट्रांसफर कर सकता है। यह व्यापार में सुविधाजनक और सुरक्षित लेन-देन का साधन होता है, खासकर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में।


❖ 28. ‘Specific Goods’, ‘Ascertained Goods’ और ‘Unascertained Goods’ में अंतर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:

  • Specific Goods: वे वस्तुएँ जो अनुबंध के समय स्पष्ट रूप से पहचानी जाती हैं।
  • Ascertained Goods: अनुबंध के बनने के बाद विशेष रूप से अलग की गई वस्तुएँ।
  • Unascertained Goods: वे वस्तुएँ जो अनुबंध के समय निश्चित नहीं होतीं, बाद में चयनित की जाती हैं।
    उदाहरण: अगर अनुबंध में लिखा हो “वह नीली कार जो गेराज में है”, तो वह Specific Goods है। अगर 100 बोरे चावल में से 10 बाद में चुने गए, तो वे Ascertained हैं। यदि केवल “10 बोरे चावल” लिखा हो और चयन न हुआ हो, तो वे Unascertained हैं।

❖ 29. ‘Caveat Emptor’ सिद्धांत क्या है?

उत्तर:
‘Caveat Emptor’ एक लैटिन सिद्धांत है जिसका अर्थ है “खरीदार सावधान रहे”। इसका तात्पर्य है कि वस्तु खरीदते समय खरीदार को स्वयं उसकी गुणवत्ता और उपयुक्तता की जाँच करनी चाहिए। यदि वस्तु में कोई दोष हो और खरीदार ने सावधानी नहीं बरती, तो वह विक्रेता पर दोष नहीं लगा सकता। यह नियम खरीदार पर जिम्मेदारी डालता है। हालांकि, कुछ अपवाद भी हैं, जैसे कि जब खरीदार ने विशेष प्रयोजन बताया हो और विक्रेता ने भरोसा दिलाया हो, तब विक्रेता उत्तरदायी होगा।


❖ 30. विक्रय अनुबंध समाप्त कब होता है?

उत्तर:
विक्रय अनुबंध निम्नलिखित स्थितियों में समाप्त हो सकता है:

  1. जब दोनों पक्ष आपसी सहमति से अनुबंध रद्द करें।
  2. यदि अनुबंध की शर्तों का उल्लंघन हो और खरीदार या विक्रेता अनुबंध निरस्त कर दे।
  3. जब वस्तु नष्ट हो जाए और अनुबंध शून्य हो जाए।
  4. यदि खरीदार दिवालिया हो जाए और विक्रेता पुनर्विक्रय करे।
  5. वस्तु की डिलीवरी और मूल्य का पूर्ण भुगतान हो जाने पर।
    अतः अनुबंध की समाप्ति वास्तविक घटना, समझौते या कानून के अनुसार होती है।

भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 से संबंधित लघु उत्तरी प्रश्न और उत्तर 

1. साझेदारी (Partnership) क्या है?
साझेदारी वह संबंध है जो उन व्यक्तियों के बीच होता है जो किसी व्यवसाय को चलाने और लाभ बांटने के उद्देश्य से सहमत होते हैं। इसे भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 की धारा 4 के अंतर्गत परिभाषित किया गया है। इसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति साझेदार कहलाते हैं और संयुक्त रूप से व्यापार करते हैं। साझेदारी अनुबंध (Partnership Deed) द्वारा स्थापित की जाती है।


2. साझेदारी फर्म (Partnership Firm) क्या होती है?
जब दो या दो से अधिक व्यक्ति किसी व्यवसाय को साझेदारी में करते हैं, तो उस समूह को साझेदारी फर्म कहा जाता है। यह कोई अलग कानूनी इकाई नहीं होती, बल्कि इसके सदस्य ही कानूनी रूप से उत्तरदायी होते हैं। फर्म का नाम और स्थान साझेदारी समझौते में तय किया जाता है।


3. साझेदारों के प्रकार (Types of Partners)
भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 में साझेदारों के कई प्रकार होते हैं: (i) सक्रिय साझेदार (Active Partner), (ii) निष्क्रिय साझेदार (Sleeping Partner), (iii) लाभ साझेदार (Partner in Profits Only), (iv) नाममात्र साझेदार (Nominal Partner), आदि। प्रत्येक की भूमिका और दायित्व साझेदारी अनुबंध के अनुसार निर्धारित होते हैं।


4. साझेदारी अनुबंध (Partnership Deed) क्या है?
साझेदारी अनुबंध वह लिखित दस्तावेज है जिसमें साझेदारी की शर्तें और नियम निर्धारित किए जाते हैं। इसमें साझेदारों के नाम, पूंजी का योगदान, लाभ-हानि का बंटवारा, कार्य की जिम्मेदारी आदि का उल्लेख होता है। यह अनुबंध विवाद की स्थिति में महत्वपूर्ण साक्ष्य होता है।


5. साझेदारों के कर्तव्य (Duties of Partners)
साझेदारों के मुख्य कर्तव्य हैं: (i) निष्ठा और सद्भावना से कार्य करना, (ii) लाभ साझा करना, (iii) हानि में भागीदारी, (iv) फर्म के हित के विरुद्ध कार्य न करना, (v) फर्म के लेखा-जोखा बनाए रखना, आदि। ये कर्तव्य भारतीय साझेदारी अधिनियम की विभिन्न धाराओं में वर्णित हैं।


6. साझेदारी की समाप्ति (Dissolution of Partnership)
साझेदारी समाप्ति का तात्पर्य साझेदारों के बीच व्यापारिक संबंध का अंत है। यह (i) सभी साझेदारों की सहमति से, (ii) समय अवधि समाप्त होने पर, (iii) साझेदार की मृत्यु या दिवालियापन पर, (iv) अदालती आदेश से हो सकती है। अधिनियम की धारा 39 से 44 इस विषय को नियंत्रित करती है।


7. साझेदारी फर्म का पंजीकरण (Registration of Partnership Firm)
पंजीकरण भारतीय साझेदारी अधिनियम के अंतर्गत स्वैच्छिक है, लेकिन पंजीकृत फर्म को कानूनी लाभ प्राप्त होते हैं, जैसे कि मुकदमा करने का अधिकार। इसके लिए रजिस्ट्रार ऑफ फर्म्स के पास आवेदन करना होता है। अपंजीकृत फर्म मुकदमेबाजी संबंधी अधिकारों से वंचित रहती है।


8. साझेदार की देयता (Liability of Partners)
साझेदारों की देयता अनंत (Unlimited) होती है, अर्थात फर्म के ऋणों और देयों के लिए वे व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होते हैं। यदि फर्म की संपत्ति ऋण चुकाने में पर्याप्त नहीं होती, तो साझेदार की व्यक्तिगत संपत्ति से वसूली की जा सकती है।


9. साझेदार की सेवानिवृत्ति (Retirement of Partner)
साझेदार अनुबंध या सभी साझेदारों की सहमति से फर्म से सेवानिवृत्त हो सकता है। सेवानिवृत्ति के बाद वह केवल उन दायित्वों के लिए जिम्मेदार रहेगा जो उसके कार्यकाल में बने थे। यदि उसका नाम फर्म से हटाया नहीं गया, तो वह उत्तरदायित्व में बना रह सकता है।


10. साझेदारी और सहकारिता में अंतर (Difference between Partnership and Co-operative Society)
साझेदारी लाभ कमाने के उद्देश्य से निजी व्यक्तियों द्वारा बनाई जाती है जबकि सहकारी समिति सामाजिक कल्याण हेतु बनाई जाती है। साझेदारी में सदस्यों की संख्या सीमित होती है, जबकि सहकारी समिति में यह अधिक हो सकती है। साझेदारी अधिनियम द्वारा शासित होती है, जबकि सहकारी समितियाँ राज्य के सहकारी अधिनियमों के अंतर्गत आती हैं।


11. साझेदारी की विशेषताएँ (Features of Partnership)
साझेदारी की मुख्य विशेषताएँ हैं: (i) दो या दो से अधिक व्यक्तियों का समूह, (ii) व्यापार को मिलकर चलाना, (iii) लाभ और हानि में साझा करना, (iv) साझेदारों के बीच समझौता, (v) आपसी विश्वास पर आधारित संबंध, (vi) असीमित उत्तरदायित्व। साझेदारी व्यवसाय का संचालन आपसी सहयोग और पारदर्शिता से होता है।


12. साझेदार की अधिकार (Rights of Partners)
प्रत्येक साझेदार को व्यवसाय चलाने में भाग लेने, लाभ में हिस्सेदारी, खातों की जांच करने, फर्म के हित में निर्णय लेने, साझेदारी से बाहर निकलने (जहाँ अनुबंध अनुमति दे), तथा सेवानिवृत्ति के समय अपनी पूंजी वापस लेने का अधिकार होता है। ये अधिकार साझेदारी अनुबंध और अधिनियम की धारा 12 और 13 में निहित हैं।


13. नयापन साझेदार (Incoming Partner) कौन होता है?
नयापन साझेदार वह व्यक्ति होता है जिसे फर्म में नए साझेदार के रूप में शामिल किया जाता है। उसकी नियुक्ति के लिए सभी मौजूदा साझेदारों की सहमति आवश्यक होती है। नयापन साझेदार पुराने ऋणों के लिए तब तक उत्तरदायी नहीं होता जब तक कि वह अलग से उत्तरदायित्व लेने के लिए सहमत न हो।


14. साझेदार की मृत्यु के प्रभाव (Effect of Death of Partner)
किसी साझेदार की मृत्यु पर साझेदारी स्वतः समाप्त हो जाती है, जब तक कि साझेदारी अनुबंध में अन्यथा प्रावधान न हो। मृतक साझेदार की संपत्ति उसकी मृत्यु तक हुए दायित्वों के लिए जिम्मेदार होती है, लेकिन उसके उत्तराधिकारी फर्म के उत्तरदायी नहीं होते जब तक वे साझेदारी में शामिल न हों।


15. साझेदार का निष्कासन (Expulsion of Partner)
साझेदार को निष्कासित करने के लिए यह आवश्यक है कि (i) साझेदारी अनुबंध में ऐसा प्रावधान हो, (ii) निष्कासन सद्भावना से किया जाए, और (iii) अन्य साझेदारों की बहुमत सहमति हो। यदि यह प्रक्रिया अनुचित हो, तो निष्कासित साझेदार न्यायालय में अपील कर सकता है।


16. साझेदारी में नाबालिग का स्थान (Position of Minor in Partnership)
नाबालिग साझेदार नहीं बन सकता, लेकिन उसे फर्म के लाभों में साझेदार बनाया जा सकता है। वह फर्म के निर्णयों या हानियों के लिए जिम्मेदार नहीं होता। 18 वर्ष की आयु पूरी होने पर उसे निर्णय लेना होता है कि वह पूर्ण साझेदार बनेगा या नहीं। यह व्यवस्था धारा 30 में दी गई है।


17. साझेदारी का पंजीकरण क्यों आवश्यक है? (Why Registration is Important?)
यद्यपि साझेदारी का पंजीकरण अनिवार्य नहीं है, लेकिन पंजीकरण से फर्म को कई लाभ मिलते हैं, जैसे – (i) फर्म कानूनी कार्यवाही कर सकती है, (ii) साझेदार एक-दूसरे पर दावा कर सकते हैं, (iii) ऋण वसूली संभव होती है। बिना पंजीकरण के फर्म न्यायालय में अधिकांश प्रकार के मुकदमे नहीं कर सकती।


18. साझेदारी व्यवसाय और संयुक्त हिंदू परिवार में अंतर
साझेदारी अनुबंध पर आधारित होती है जबकि संयुक्त हिंदू परिवार जन्म से बनता है। साझेदारी में सभी सदस्य सहमत होते हैं जबकि संयुक्त परिवार में सदस्यता स्वतः होती है। साझेदारी फर्म की समाप्ति साझेदार की मृत्यु से होती है, जबकि संयुक्त परिवार चलता रहता है। साझेदारों की देयता असीमित होती है जबकि संयुक्त परिवार में ‘कॉपार्सनर’ की देयता सीमित हो सकती है।


19. साझेदारी फर्म और एकल स्वामित्व में अंतर (Partnership vs Sole Proprietorship)
एकल स्वामित्व में एक व्यक्ति पूरा व्यवसाय नियंत्रित करता है जबकि साझेदारी में दो या अधिक लोग होते हैं। साझेदारी में निर्णय सामूहिक रूप से होते हैं जबकि एकल स्वामित्व में सभी निर्णय अकेले लिए जाते हैं। एकल स्वामी स्वयं पूंजी, जोखिम और लाभ उठाता है जबकि साझेदारी में यह साझा होता है।


20. साझेदारी की समाप्ति के तरीके (Modes of Dissolution of Partnership)
साझेदारी समाप्ति के प्रमुख तरीके हैं: (i) सभी साझेदारों की सहमति से, (ii) अनुबंध की अवधि समाप्त होने पर, (iii) साझेदार की मृत्यु, दिवालियापन या पागलपन पर, (iv) न्यायालय के आदेश से, (v) गैरकानूनी व्यवसाय होने पर। ये तरीके अधिनियम की धारा 39 से 44 में वर्णित हैं।


21. साझेदार की व्यक्तिगत देनदारी (Personal Liability of Partner)
साझेदार की देनदारी असीमित होती है। यदि फर्म की संपत्ति ऋण या दायित्व चुकाने के लिए पर्याप्त न हो, तो साझेदार की व्यक्तिगत संपत्ति से भी भुगतान किया जा सकता है। प्रत्येक साझेदार संयुक्त रूप से और पृथक रूप से उत्तरदायी होता है। यह अधिनियम की धारा 25 में स्पष्ट किया गया है।


22. साझेदारी में पारस्परिक एजेंसी (Mutual Agency in Partnership)
साझेदारी की सबसे प्रमुख विशेषता पारस्परिक एजेंसी है। इसका अर्थ है कि प्रत्येक साझेदार न केवल अपने लिए बल्कि फर्म और अन्य साझेदारों के लिए भी कार्य करता है। उसका कार्य संपूर्ण फर्म को बाध्य करता है। यह साझेदारी के संबंध का कानूनी आधार है।


23. साझेदारी और कंपनी में अंतर (Difference between Partnership and Company)
साझेदारी अनुबंध पर आधारित निजी व्यवसाय है, जबकि कंपनी एक वैधानिक संस्था होती है। साझेदारी में असीमित देनदारी होती है, जबकि कंपनी में सीमित। साझेदारी में न्यूनतम 2 और अधिकतम 50 साझेदार हो सकते हैं, जबकि कंपनी में अधिक सदस्य हो सकते हैं। कंपनी का पृथक कानूनी व्यक्तित्व होता है।


24. साझेदारी के लिए आवश्यक तत्व (Essential Elements of Partnership)
साझेदारी के लिए आवश्यक तत्व हैं: (i) दो या दो से अधिक व्यक्ति, (ii) साझेदारी अनुबंध, (iii) लाभ की साझेदारी की सहमति, (iv) व्यापार का उद्देश्य, (v) पारस्परिक एजेंसी का अस्तित्व। ये सभी तत्व साझेदारी को मान्य और कानूनी बनाते हैं।


25. साझेदारों के बीच विवाद निपटान के उपाय (Dispute Resolution among Partners)
साझेदारी अनुबंध में विवाद समाधान की प्रक्रिया का उल्लेख किया जा सकता है, जैसे मध्यस्थता या पंचायती प्रक्रिया। यदि आपसी समझौते से विवाद न सुलझे, तो अदालत में वाद दायर किया जा सकता है। पंजीकृत फर्म ही न्यायालय में वाद प्रस्तुत कर सकती है।


26. साझेदारी के लाभ (Advantages of Partnership)
साझेदारी के लाभ हैं: (i) पूंजी का संयुक्त योगदान, (ii) कार्य का विभाजन, (iii) निर्णयों में विविधता, (iv) जोखिम साझा करना, (v) संचालन में सरलता। यह छोटे और मध्यम व्यवसायों के लिए उपयुक्त रूप है जिसमें विश्वास और सहयोग पर जोर दिया जाता है।


27. साझेदारी के नुकसान (Disadvantages of Partnership)
साझेदारी के नुकसान हैं: (i) असीमित देनदारी, (ii) साझेदारों के बीच मतभेद की संभावना, (iii) पूंजी सीमित होती है, (iv) साझेदार की मृत्यु से समाप्ति, (v) निर्णय लेने में विलंब। व्यवसाय का भविष्य साझेदारों के संबंधों पर निर्भर करता है।


28. साझेदारी में लाभ-हानि वितरण (Distribution of Profit and Loss in Partnership)
लाभ और हानि का वितरण साझेदारी अनुबंध के अनुसार होता है। यदि अनुबंध मौन है, तो सभी साझेदार लाभ-हानि में समान भागीदार माने जाते हैं। योगदान के अनुपात में लाभ बांटने का भी प्रावधान किया जा सकता है। यह धारा 13 में वर्णित है।


29. साझेदारी में खाता पुस्तक रखने का महत्व (Importance of Keeping Accounts in Partnership)
साझेदारी फर्म में खाता पुस्तकों का रखाव पारदर्शिता और उत्तरदायित्व सुनिश्चित करता है। प्रत्येक साझेदार को खातों की जांच का अधिकार होता है। यह विवादों से बचाव और लेखा परीक्षण में सहायक होता है। उचित लेखा प्रणाली से साझेदारों का विश्वास बना रहता है।


30. साझेदारी में नवनियुक्त साझेदार की देयता (Liability of Incoming Partner)
नवनियुक्त साझेदार केवल उसी उत्तरदायित्व के लिए जिम्मेदार होता है जो उसकी नियुक्ति के बाद उत्पन्न हुआ हो। पूर्व के ऋणों या दायित्वों के लिए वह तब तक उत्तरदायी नहीं होता जब तक वह सहमति पूर्वक उसे स्वीकार न करे। यह नियम धारा 31 में वर्णित है।


सीमित दायित्व साझेदारी अधिनियम, 2008 से संबंधित लघु उत्तरी प्रश्न और उत्तर 


1. सीमित दायित्व साझेदारी (LLP) क्या है?
उत्तर:
सीमित दायित्व साझेदारी (LLP) एक प्रकार की व्यवसायिक इकाई है जिसमें साझेदारों की व्यक्तिगत देनदारी सीमित होती है। LLP में कंपनी की तरह एक पृथक कानूनी पहचान होती है, लेकिन यह साझेदारी की लचीलापन भी प्रदान करती है। LLP अधिनियम, 2008 के अंतर्गत गठित LLP, कर योग्य संस्था होती है और इसमें प्रत्येक साझेदार की जिम्मेदारी उनके निवेश या अनुबंध के अनुसार सीमित होती है। यह स्वरूप पेशेवरों, छोटे व्यवसायों और सेवा क्षेत्रों के लिए उपयुक्त होता है।


2. LLP अधिनियम, 2008 कब पारित हुआ और कब लागू हुआ?
उत्तर:
सीमित दायित्व साझेदारी अधिनियम, 2008 को संसद द्वारा 7 जनवरी 2009 को पारित किया गया और यह अधिनियम 31 मार्च 2009 से प्रभाव में आया। इसका उद्देश्य एक वैकल्पिक व्यवसायिक ढांचा प्रदान करना था जो कंपनी और पारंपरिक साझेदारी दोनों के लाभों को सम्मिलित करे। अधिनियम LLP को एक पृथक कानूनी इकाई के रूप में मान्यता देता है और साझेदारों की देनदारी को सीमित करता है, जिससे यह व्यवसाय करने का एक आधुनिक और सुरक्षित तरीका बन जाता है।


3. LLP के प्रमुख लाभ क्या हैं?
उत्तर:
LLP के कई लाभ हैं, जिनमें प्रमुख हैं:

  1. सीमित दायित्व – साझेदारों की निजी संपत्ति सुरक्षित रहती है।
  2. पृथक कानूनी पहचान – LLP की अपनी स्वतंत्र पहचान होती है।
  3. निरंतरता – LLP की स्थिति साझेदारों के परिवर्तन से प्रभावित नहीं होती।
  4. नियामक अनुपालन कम – निजी कंपनियों की तुलना में कम कानूनी औपचारिकताएँ।
  5. कर में लाभ – LLP पर कंपनी अधिनियम की तुलना में सरल कर नियम लागू होते हैं।
    इसलिए यह स्वरूप स्टार्टअप्स और पेशेवर फर्मों के लिए लोकप्रिय है।

4. LLP का पंजीकरण कैसे होता है?
उत्तर:
LLP का पंजीकरण ऑनलाइन प्रक्रिया द्वारा होता है जिसे Ministry of Corporate Affairs (MCA) के पोर्टल पर किया जाता है। इसमें निम्नलिखित चरण शामिल हैं:

  1. DSC (Digital Signature Certificate) प्राप्त करना।
  2. DIN (Director Identification Number) प्राप्त करना।
  3. LLP के नाम की उपलब्धता की जांच और आरक्षण।
  4. Form FiLLiP और अन्य आवश्यक दस्तावेज़ों के साथ आवेदन।
  5. रजिस्ट्रार द्वारा प्रमाण पत्र जारी करना।
    पंजीकरण के बाद LLP को एक LLPIN (LLP Identification Number) मिलता है।

5. LLP और पारंपरिक साझेदारी में क्या अंतर है?
उत्तर:
LLP और पारंपरिक साझेदारी में कई अंतर हैं:

  • LLP एक पृथक कानूनी इकाई है जबकि पारंपरिक साझेदारी नहीं होती।
  • LLP में साझेदारों की देनदारी सीमित होती है जबकि पारंपरिक साझेदारी में साझेदारों की देनदारी असीमित होती है।
  • LLP का पंजीकरण अनिवार्य है, पारंपरिक साझेदारी में यह वैकल्पिक हो सकता है।
  • LLP में नियामक पारदर्शिता अधिक होती है।
    इस प्रकार, LLP एक अधिक संरचित और सुरक्षित साझेदारी ढांचा प्रदान करता है।

6. LLP के लिए न्यूनतम कितने साझेदार आवश्यक हैं?
उत्तर:
LLP अधिनियम, 2008 के अनुसार, किसी भी LLP को गठित करने के लिए कम से कम दो साझेदारों का होना अनिवार्य है। यदि किसी समय LLP में केवल एक साझेदार शेष रह जाए तो उसे 6 महीने के भीतर दूसरा साझेदार जोड़ना होता है। अन्यथा LLP और शेष साझेदार दोनों उत्तरदायी होंगे। LLP में अधिकतम साझेदारों की कोई सीमा नहीं है, जो इसे लचीला बनाता है।


7. LLP में Designated Partner कौन होता है?
उत्तर:
LLP में Designated Partner वे साझेदार होते हैं जिन्हें LLP की कानूनी और नियामक जिम्मेदारियाँ निभाने के लिए नियुक्त किया गया है। LLP अधिनियम के अनुसार, प्रत्येक LLP में कम से कम दो Designated Partners का होना आवश्यक है, जिनमें से कम से कम एक भारतीय निवासी होना चाहिए। Designated Partners को LLP के पंजीकरण के समय नामित किया जाता है और उन्हें DPIN (Designated Partner Identification Number) प्राप्त करना होता है।


8. LLP की वार्षिक फाइलिंग आवश्यकताएँ क्या हैं?
उत्तर:
LLP को प्रत्येक वर्ष दो प्रमुख फॉर्म फाइल करने होते हैं:

  1. Form 11 (Annual Return) – यह LLP के साझेदारों और संरचना की जानकारी देता है और इसे हर वर्ष 30 मई तक दाखिल करना होता है।
  2. Form 8 (Statement of Account & Solvency) – इसमें LLP की वित्तीय स्थिति और सॉल्वेंसी का विवरण होता है और इसे हर वर्ष 30 अक्टूबर तक दाखिल करना होता है।
    यदि LLP की आय या पूंजी एक निश्चित सीमा से अधिक है, तो लेखापरीक्षित खातों की आवश्यकता होती है।

9. क्या LLP कर योग्य इकाई है?
उत्तर:
हाँ, LLP एक पृथक कर योग्य इकाई होती है। इसे आयकर अधिनियम, 1961 के तहत साझेदारी फर्म के रूप में माना जाता है और उस पर कर लागू होता है। LLP को 30% की दर से आयकर देना होता है। लाभांश वितरण कर (DDT) की कोई आवश्यकता नहीं होती, जिससे यह निजी कंपनियों की तुलना में कर की दृष्टि से लाभप्रद हो सकता है। LLP पर वैधानिक कर लेखा परीक्षा भी लागू हो सकती है यदि उसकी आय या पूंजी निर्धारित सीमा से अधिक हो।


10. क्या LLP को समाप्त या बंद किया जा सकता है? यदि हाँ, तो कैसे?
उत्तर:
हाँ, LLP को दो तरीकों से समाप्त किया जा सकता है:

  1. स्वैच्छिक समाप्ति (Voluntary Winding Up) – जब साझेदार स्वेच्छा से LLP को समाप्त करना चाहें।
  2. न्यायालय द्वारा समाप्ति (Compulsory Winding Up) – जब LLP कानून का उल्लंघन करती है या दिवालिया हो जाती है।
    LLP को समाप्त करने के लिए निर्धारित फॉर्म्स (Form 24 आदि) MCA में दाखिल करने होते हैं और यदि कोई ऋण या दायित्व नहीं है, तो रजिस्ट्रार इसे समाप्त घोषित कर सकता है।

11. LLP का नामकरण कैसे किया जाता है?
उत्तर:
LLP के नाम का चयन करते समय LLP अधिनियम, 2008 और कंपनी नामकरण दिशा-निर्देशों का पालन करना होता है। नाम में अंत में “LLP” या “Limited Liability Partnership” शब्दों का उपयोग अनिवार्य है। नाम अद्वितीय होना चाहिए और किसी मौजूदा कंपनी या LLP के नाम से मिलता-जुलता नहीं होना चाहिए। नाम के लिए RUN-LLP (Reserve Unique Name) पोर्टल के माध्यम से आवेदन किया जाता है। नाम प्रस्तावित उद्देश्यों के अनुरूप होना चाहिए और इसमें कोई आपत्तिजनक या निषिद्ध शब्द नहीं होने चाहिए।


12. LLP और प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में क्या अंतर है?
उत्तर:
LLP और प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में प्रमुख अंतर ये हैं:

  • गठन कानून: LLP का गठन LLP अधिनियम, 2008 के अंतर्गत होता है जबकि प्राइवेट कंपनी कंपनी अधिनियम, 2013 के तहत।
  • संरचना: LLP अधिक लचीला होता है, जबकि कंपनी में कठोर प्रबंधन ढांचा होता है।
  • कर: LLP पर लाभांश कर नहीं लगता, जबकि कंपनियों पर DDT लगता है।
  • फंडिंग: कंपनियाँ निवेशकों से आसानी से फंड प्राप्त कर सकती हैं, जबकि LLP में यह कठिन है।
    इसलिए, LLP छोटे व्यवसायों के लिए उपयुक्त है जबकि कंपनियाँ बड़े व्यापार के लिए।

13. LLP के लिए DPIN क्या होता है?
उत्तर:
DPIN (Designated Partner Identification Number) एक विशिष्ट पहचान संख्या है जो LLP के Designated Partner को दी जाती है। यह MCA द्वारा जारी की जाती है और इसका उपयोग नियामक दस्तावेजों में किया जाता है। DPIN प्राप्त करने के लिए PAN, पहचान पत्र, पते का प्रमाण और फोटोग्राफ के साथ आवेदन करना होता है। यदि व्यक्ति के पास पहले से DIN (Director Identification Number) है, तो वह DPIN के रूप में कार्य करता है। यह संख्या Designated Partner की पहचान और पारदर्शिता सुनिश्चित करती है।


14. LLP की साझेदार पूंजी (Capital Contribution) का क्या महत्व है?
उत्तर:
साझेदार पूंजी LLP में प्रत्येक साझेदार द्वारा किया गया वित्तीय या गैर-वित्तीय योगदान होता है। यह LLP के संचालन, उत्तरदायित्वों और लाभ-हानि के वितरण के लिए आधार बनाता है। यह पूंजी नकद, संपत्ति, सेवाएँ, बौद्धिक संपदा, आदि के रूप में हो सकती है। पूंजी की जानकारी LLP समझौते में स्पष्ट रूप से उल्लेखित होनी चाहिए। LLP के वित्तीय विवरण में पूंजी का उचित लेखांकन आवश्यक है और पूंजी में परिवर्तन MCA को सूचित करना अनिवार्य है।


15. क्या LLP में विदेशी निवेश (FDI) की अनुमति है?
उत्तर:
हाँ, भारत सरकार द्वारा निर्धारित FDI नीति के अनुसार, LLP में 100% FDI कुछ क्षेत्रों में स्वचालित मार्ग (Automatic Route) के तहत अनुमति है, बशर्ते LLP को ऐसे क्षेत्र में निवेश करना हो जहां 100% FDI की अनुमति हो और कोई प्रदर्शन शर्तें लागू न हों। हालांकि, LLP को विदेशी निवेश प्राप्त करने से पहले यह सुनिश्चित करना होता है कि वह संबंधित शर्तों और RBI दिशानिर्देशों का पालन करता हो। विशेष अनुमतियों की आवश्यकता वाले क्षेत्रों में पूर्व अनुमति आवश्यक हो सकती है।


16. LLP का LLPIN क्या होता है?
उत्तर:
LLPIN (Limited Liability Partnership Identification Number) एक विशिष्ट पहचान संख्या होती है जो रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज़ (ROC) द्वारा प्रत्येक LLP को उसके पंजीकरण के समय जारी की जाती है। यह 7 अंकों का अल्फा-न्यूमेरिक कोड होता है, जैसे: AAA-1234। LLPIN का उपयोग सभी सरकारी दस्तावेजों, रिपोर्टों और कानूनी पत्राचार में किया जाता है। यह LLP की कानूनी पहचान और वैधता को दर्शाता है, ठीक वैसे ही जैसे कंपनियों के लिए CIN (Corporate Identification Number) होता है।


17. LLP समझौता (LLP Agreement) क्या होता है?
उत्तर:
LLP समझौता वह लिखित दस्तावेज होता है जो LLP के साझेदारों के बीच अधिकारों, कर्तव्यों, जिम्मेदारियों और दायित्वों को निर्धारित करता है। इसमें पूंजी योगदान, लाभ वितरण, प्रबंधन संरचना, निर्णय लेने की प्रक्रिया, विवाद समाधान प्रणाली आदि का उल्लेख होता है। यह LLP के गठन के 30 दिनों के भीतर Form 3 के माध्यम से रजिस्ट्रार को दाखिल किया जाना चाहिए। यदि कोई LLP समझौता नहीं होता है, तो LLP अधिनियम की डिफ़ॉल्ट शर्तें लागू होती हैं।


18. LLP में ऑडिट की आवश्यकता कब होती है?
उत्तर:
LLP में ऑडिट की अनिवार्यता उसके वार्षिक कारोबार और पूंजी योगदान पर निर्भर करती है। यदि किसी LLP का वार्षिक टर्नओवर ₹40 लाख से अधिक है या पूंजी योगदान ₹25 लाख से अधिक है, तो उसे एक योग्य चार्टर्ड अकाउंटेंट से लेखा-परीक्षण (Audit) कराना आवश्यक है। अन्यथा, LLP को ऑडिट से छूट मिलती है। यह प्रावधान छोटे LLP को अनुपालन में राहत प्रदान करता है जबकि बड़े LLP के लिए वित्तीय पारदर्शिता सुनिश्चित करता है।


19. LLP में साझेदार की समाप्ति (Removal/Resignation) कैसे होती है?
उत्तर:
LLP में साझेदार की समाप्ति LLP समझौते की शर्तों के अनुसार की जाती है। यदि कोई साझेदार इस्तीफा देना चाहता है, तो वह लिखित रूप में नोटिस देकर त्याग कर सकता है। मृत्यु, दिवालिया होना, असमर्थता, या LLP से निष्कासन की शर्तें भी समाप्ति के आधार हो सकते हैं। समाप्ति के बाद, LLP को Form 4 दाखिल कर MCA को सूचना देनी होती है। त्याग देने वाले साझेदार की देनदारी त्याग के पूर्व के कृत्यों के लिए बनी रहती है।


20. क्या LLP को नियामक निरीक्षण (Inspection) के अधीन लाया जा सकता है?
उत्तर:
हाँ, LLP अधिनियम, 2008 के अंतर्गत सरकार को यह अधिकार है कि वह किसी LLP के कार्यों की जांच या निरीक्षण (Inspection/Investigation) करवा सकती है यदि उसे संदेह हो कि LLP किसी प्रकार की धोखाधड़ी, अनुचित प्रबंधन या कानून का उल्लंघन कर रही है। इस कार्य के लिए निरीक्षकों की नियुक्ति की जाती है, जो LLP के खातों, दस्तावेजों और समझौते की जांच कर सकते हैं। आवश्यक होने पर दंडात्मक कार्रवाई और LLP को समाप्त करने की प्रक्रिया भी शुरू की जा सकती है।


21. LLP के वार्षिक अनुपालनों (Annual Compliances) में कौन-कौन से फॉर्म आवश्यक होते हैं?
उत्तर:
LLP को MCA के समक्ष प्रत्येक वित्तीय वर्ष में निम्नलिखित फॉर्म दाखिल करने होते हैं:

  1. Form 11 (Annual Return): वित्तीय वर्ष की समाप्ति के 60 दिनों के भीतर।
  2. Form 8 (Statement of Accounts & Solvency): वित्तीय वर्ष की समाप्ति के 30 अक्टूबर तक।
  3. यदि ऑडिट आवश्यक हो, तो CA द्वारा प्रमाणित लेखा-जोखा।
    इन अनुपालनों का उद्देश्य LLP की पारदर्शिता और विधिसम्मत संचालन सुनिश्चित करना होता है। अनुपालन में विफलता पर दंड शुल्क और अन्य विधिक दंड लगाए जा सकते हैं।

22. LLP में Books of Accounts कैसे बनाए जाते हैं?
उत्तर:
LLP अधिनियम, 2008 के अनुसार प्रत्येक LLP को अपने व्यापारिक लेन-देन का लेखा-जोखा बनाए रखना अनिवार्य है। यह आत्मनिर्भर आधार (Accrual Basis) पर और दोहरी लेखा पद्धति (Double Entry System) में किया जाना चाहिए। ये लेखे फर्म के पंजीकृत कार्यालय में रखे जाने चाहिए और 8 वर्षों तक सुरक्षित रखने होते हैं। ये रिकॉर्ड LLP की वित्तीय पारदर्शिता बनाए रखने में सहायक होते हैं और जरूरत पड़ने पर निरीक्षण व लेखा-परीक्षण में काम आते हैं।


23. क्या LLP को GST रजिस्ट्रेशन की आवश्यकता होती है?
उत्तर:
हाँ, यदि कोई LLP भारत में ऐसा व्यापार कर रही है जिसकी वार्षिक टर्नओवर ₹20 लाख (सेवा के लिए) या ₹40 लाख (माल के लिए) से अधिक है, या यदि वह इंटर-स्टेट सप्लाई कर रही है, तो उसे GST रजिस्ट्रेशन अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त, यदि LLP ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म से व्यापार करती है तो भी GST पंजीकरण अनिवार्य है। GST रजिस्ट्रेशन LLP को इनपुट टैक्स क्रेडिट प्राप्त करने और कर अनुपालन सुनिश्चित करने की सुविधा देता है।


24. LLP की समाप्ति (Winding Up) कैसे की जाती है?
उत्तर:
LLP की समाप्ति दो प्रकार से हो सकती है:

  1. स्वैच्छिक समाप्ति (Voluntary Winding Up) – जब साझेदारों का बहुमत LLP को बंद करने का निर्णय लेता है।
  2. न्यायिक समाप्ति (Compulsory Winding Up) – जब LLP कानूनों का उल्लंघन करती है, धोखाधड़ी करती है या संचालन असंभव हो जाता है।
    इसके लिए Form 24 MCA पोर्टल पर दाखिल किया जाता है। प्रक्रिया में सभी देनदारियों का भुगतान, कर चुकाना और रजिस्ट्रार से अनुमोदन प्राप्त करना शामिल होता है।

25. क्या LLP एक कृत्रिम विधिक व्यक्ति (Artificial Legal Person) होता है?
उत्तर:
हाँ, LLP एक कृत्रिम विधिक व्यक्ति (Artificial Legal Person) होता है, जिसका अर्थ है कि यह एक अलग विधिक इकाई है, जो अपने नाम से संपत्ति रख सकती है, मुकदमा कर सकती है और उसके खिलाफ मुकदमा चलाया जा सकता है। LLP अपने साझेदारों से स्वतंत्र होती है और उसके कर्तव्य और अधिकार स्वतंत्र रूप से मौजूद होते हैं। यह विधिक व्यक्तित्व LLP को स्थायित्व प्रदान करता है, भले ही साझेदारों में परिवर्तन हो।


26. क्या एक LLP सार्वजनिक (Public) बन सकती है?
उत्तर:
नहीं, LLP का ढांचा निजी साझेदारी (Private Partnership) जैसा होता है और इसे IPO (Initial Public Offering) द्वारा सार्वजनिक नहीं किया जा सकता। LLP में शेयर पूंजी का कोई प्रावधान नहीं होता और न ही इसे स्टॉक एक्सचेंज पर सूचीबद्ध किया जा सकता है। इसके विपरीत, कंपनियाँ सार्वजनिक रूप से पूंजी जुटा सकती हैं और शेयर जारी कर सकती हैं। इसलिए LLP केवल निजी स्तर पर संचालन के लिए उपयुक्त होती है।


27. LLP में ‘LLP Agreement’ में परिवर्तन कैसे किया जाता है?
उत्तर:
LLP समझौते में कोई भी परिवर्तन करने के लिए साझेदारों की सहमति आवश्यक होती है और परिवर्तन को लिखित रूप में दर्ज किया जाना चाहिए। इसके पश्चात LLP को Form 3 के माध्यम से 30 दिनों के भीतर MCA को परिवर्तन की सूचना देनी होती है। इसमें संशोधित LLP समझौते की प्रति संलग्न करना आवश्यक होता है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो LLP अधिनियम के अंतर्गत दंडात्मक कार्रवाई हो सकती है।


28. क्या LLP एक स्थायी संस्था है?
उत्तर:
हाँ, LLP एक स्थायी संस्था (Perpetual Succession) होती है, जिसका अस्तित्व साझेदारों के परिवर्तन से प्रभावित नहीं होता। इसका अर्थ है कि किसी साझेदार की मृत्यु, दिवालियापन, इस्तीफा या निष्कासन से LLP का अस्तित्व समाप्त नहीं होता। यह गुण LLP को स्थिरता और व्यावसायिक निरंतरता प्रदान करता है। यह कंपनियों जैसी ही कानूनी स्थायित्व वाली संरचना प्रदान करता है।


29. क्या LLP में ट्रस्टी या लाभार्थी हो सकते हैं?
उत्तर:
LLP का उद्देश्य व्यापार करना होता है न कि ट्रस्ट बनाना या धर्मार्थ कार्य करना। LLP एक व्यावसायिक संस्था है, न कि ट्रस्ट अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत संस्था। हालांकि LLP किसी ट्रस्ट के साथ व्यापारिक संबंध बना सकती है, लेकिन LLP स्वयं ट्रस्ट के रूप में कार्य नहीं कर सकती। LLP में साझेदार लाभ के अधिकारी होते हैं, लेकिन वे लाभार्थी (Beneficiaries) के रूप में कार्य नहीं करते जैसे ट्रस्ट में होता है।


30. LLP को डिजिटल सिग्नेचर सर्टिफिकेट (DSC) की आवश्यकता क्यों होती है?
उत्तर:
LLP पंजीकरण और MCA पोर्टल पर सभी दस्तावेजों की ई-फाइलिंग के लिए डिजिटल सिग्नेचर सर्टिफिकेट (DSC) आवश्यक होता है। यह डिजिटल पहचान प्रमाणपत्र होता है जो दस्तावेजों की सत्यता और प्रमाणीकरण को सुनिश्चित करता है। सभी Designated Partners को DSC प्राप्त करना होता है क्योंकि वे ही अधिकांश वैधानिक दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करते हैं। DSC MCA के पंजीकृत एजेंसियों से जारी किया जाता है और इसे हर 2-3 वर्षों में नवीनीकृत करना होता है।