“धारा 21 सीपीसी की न्यायिक व्याख्या: संदीप भटनागर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य – अधिकार क्षेत्र की आपत्तियों की समय सीमा और न्याय में विफलता की कसौटी”

लेख शीर्षक:
“धारा 21 सीपीसी की न्यायिक व्याख्या: संदीप भटनागर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य – अधिकार क्षेत्र की आपत्तियों की समय सीमा और न्याय में विफलता की कसौटी”

परिचय:
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 21 (Section 21 of CPC) का उद्देश्य न्यायिक प्रक्रिया में कुशलता और निष्पक्षता सुनिश्चित करना है। यह धारा स्पष्ट करती है कि यदि किसी वाद में क्षेत्रीय (territorial) या आर्थिक (pecuniary) अधिकार क्षेत्र की कमी की आपत्ति है, तो उसे प्रथम दृष्टया और यथाशीघ्र संबंधित न्यायालय के समक्ष उठाना आवश्यक है।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के “संदीप भटनागर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य” (Sandeep Bhatnagar v. State of Uttar Pradesh) वाद में इस धारा की व्याख्या करते हुए यह स्पष्ट किया गया कि यदि ऐसी आपत्ति समय रहते नहीं उठाई जाती और बाद में उठाई जाती है, तो तब तक उस पर विचार नहीं किया जाएगा जब तक यह सिद्ध न हो जाए कि न्याय में स्पष्ट विफलता हुई है।

मामले की पृष्ठभूमि:
वादी संदीप भटनागर ने एक दीवानी वाद में कुछ राहतें माँगी थीं। प्रतिवादी राज्य सरकार की ओर से यह आपत्ति उठाई गई कि संबंधित न्यायालय के पास इस वाद की सुनवाई का प्रादेशिक या आर्थिक अधिकार क्षेत्र नहीं है। यह आपत्ति वाद की प्रारंभिक अवस्था में नहीं बल्कि प्रक्रिया के काफी आगे बढ़ जाने के बाद उठाई गई थी।

प्रमुख कानूनी प्रश्न:

  • क्या अधिकार क्षेत्र (jurisdiction) से जुड़ी आपत्तियाँ किसी भी स्तर पर उठाई जा सकती हैं?
  • क्या देरी से उठाई गई आपत्तियों को न्यायालय में माना जा सकता है?

धारा 21 की प्रमुख धाराएँ:

  1. क्षेत्रीय और आर्थिक अधिकार क्षेत्र से जुड़ी आपत्तियाँ उस न्यायालय में उठाई जानी चाहिए जहाँ वाद लंबित है।
  2. ऐसी आपत्तियाँ उसी समय उठाई जानी चाहिए जब वाद की सुनवाई प्रारंभ होती है।
  3. यदि आपत्ति देरी से उठाई जाती है, तो केवल उसी स्थिति में उस पर विचार किया जाएगा जब यह दिखाया जा सके कि इससे न्याय में स्पष्ट रूप से विफलता हुई है।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय:
माननीय न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि:

  • वाद की सुनवाई में अत्यधिक प्रगति के बाद क्षेत्रीय या आर्थिक अधिकार क्षेत्र की आपत्ति उठाना केवल न्यायिक प्रक्रिया में बाधा डालने के लिए होता है।
  • ऐसा आचरण विधि के उद्देश्य के विपरीत है, जो निष्पक्ष और शीघ्र न्याय सुनिश्चित करना चाहता है।
  • जब तक यह साबित न हो कि इस प्रकार की प्रक्रिया के कारण न्याय का हनन हुआ है, तब तक इस आपत्ति को अस्वीकार किया जाएगा।

न्यायालय की टिप्पणियाँ:

  • न्यायिक अनुशासन: धारा 21 न्यायिक अनुशासन को बनाए रखने में सहायक है ताकि मुकदमे की प्रक्रिया को लंबा खींचने से रोका जा सके।
  • न्याय में विफलता की कसौटी: यदि वादी यह सिद्ध करने में असफल रहता है कि अधिकार क्षेत्र की त्रुटि से उसे वास्तविक नुकसान हुआ है, तो संशोधन या अपील में यह आधार मान्य नहीं होगा।

महत्व:
इस निर्णय ने स्पष्ट किया कि क्षेत्रीय अथवा आर्थिक अधिकार क्षेत्र की आपत्तियाँ “तकनीकी आपत्तियाँ” होती हैं और इनका प्रयोग न्याय को विलंबित करने के लिए नहीं किया जा सकता। धारा 21 यह सुनिश्चित करती है कि ऐसे आपत्तियों को तुरंत उठाया जाए ताकि न्यायिक प्रक्रिया समयबद्ध और सार्थक बनी रहे।

निष्कर्ष:
“संदीप भटनागर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य” एक मार्गदर्शक निर्णय है जो बताता है कि सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 21 का पालन अनिवार्य है। यह निर्णय न केवल अधिकार क्षेत्र की सीमाओं को रेखांकित करता है, बल्कि न्याय में विलंब और प्रक्रिया के दुरुपयोग को भी रोकने का प्रयास करता है। यदि कोई पक्ष अधिकार क्षेत्र की आपत्ति उठाना चाहता है, तो उसे यह कार्य तत्काल और स्पष्ट आधार पर करना होगा; अन्यथा उसे न्यायालय द्वारा अस्वीकार किया जा सकता है।