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24% ब्याज वाले आर्बिट्रल अवॉर्ड को सुप्रीम कोर्ट की मुहर: सार्वजनिक नीति के आधार पर हस्तक्षेप से इंकार

उच्चतम न्यायालय का स्पष्ट संदेश: 24% वार्षिक ब्याज वाला आर्बिट्रल अवॉर्ड बरकरार — सार्वजनिक नीति की संकीर्ण व्याख्या और मध्यस्थता न्यायालयों के सीमित हस्तक्षेप का सिद्धांत

(Sri Lakshmi Hotel Pvt. Limited & Anr. v. Sriram City Union Finance Ltd., 2025 INSC 1327)


भूमिका

       भारत में मध्यस्थता (Arbitration) को प्रोत्साहित करना और न्यायालयों के हस्तक्षेप को न्यूनतम रखना हमेशा से कानून-निर्माताओं और न्यायपालिका का उद्देश्य रहा है। Arbitration and Conciliation Act, 1996 की धारा 34 में आर्बिट्रल अवॉर्ड को चुनौती देने का प्रावधान है, परंतु सुप्रीम कोर्ट लगातार यह स्पष्ट करता आ रहा है कि यह चुनौती केवल बहुत सीमित आधारों पर ही सफल हो सकती है।

       18 नवंबर 2025 को दिए गए एक महत्वपूर्ण निर्णय में, सर्वोच्च न्यायालय ने इस सिद्धांत को एक बार फिर दृढ़ता से दोहराया। Sri Lakshmi Hotel Pvt. Limited & Anr. v. Sriram City Union Finance Ltd. & Anr. के बहुचर्चित मामले में, कोर्ट ने 24% वार्षिक ब्याज निर्धारित करने वाले आर्बिट्रल अवॉर्ड को बरकरार रखते हुए स्पष्ट कहा कि:

“केवल ब्याज दर अधिक होने के आधार पर आर्बिट्रल अवॉर्ड को सार्वजनिक नीति के उल्लंघन के रूप में नहीं माना जा सकता। जब तक ब्याज दर इतनी अनुचित न हो कि ‘न्यायालयिक विवेक को झकझोर दे’, तब तक हस्तक्षेप का कोई औचित्य नहीं बनता।”

      यह निर्णय भारतीय मध्यस्थता व्यवस्था को और अधिक मजबूत बनाता है और यह संदेश देता है कि अनुबंध की शर्तों से सहमत पार्टियों को बाद में न्यायालयों के माध्यम से राहत पाने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।


मामले की पृष्ठभूमि

       Sri Lakshmi Hotel Pvt. Limited ने Sriram City Union Finance Ltd. से एक ऋण लिया था। ऋण अनुबंध में पुनर्भुगतान की शर्तें, बकाया राशि पर ब्याज और डिफॉल्ट ब्याज दर स्पष्ट रूप से निर्धारित थी।

      जब कंपनी ऋण चुकाने में विफल रही, विवाद मध्यस्थता (Arbitration) के लिए भेजा गया। आर्बिट्रेटर ने अपने विस्तृत अवॉर्ड में ऋणदाता की दावों को सही मानते हुए:

  • मूल बकाया राशि
  • डिफॉल्ट किस्तें
  • और 24% प्रतिवर्ष की दर से ब्याज

अवार्ड किया।

देनदार कंपनी ने इस अवॉर्ड को धारा 34 के तहत चुनौती दी, यह कहते हुए कि:

  1. 24% ब्याज अत्यधिक और अनुचित है
  2. यह ‘सार्वजनिक नीति’ (Public Policy) के विरुद्ध है
  3. इसलिए अवॉर्ड को रद्द किया जाना चाहिए

हालाँकि, ट्रायल कोर्ट एवं हाई कोर्ट दोनों ने इस चुनौती को अस्वीकार कर दिया। अंततः मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा।


सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुख्य प्रश्न

न्यायालय के समक्ष मुख्य कानूनी प्रश्न यह थे:

1. क्या मात्र उच्च ब्याज दर के आधार पर आर्बिट्रल अवॉर्ड को सार्वजनिक नीति के आधार पर रद्द किया जा सकता है?

2. क्या 24% वार्षिक ब्याज दर ‘अनुचित’, ‘पेनल्टी’ या ‘शॉकिंग’ मानी जा सकती है?

3. क्या न्यायालय आर्बिट्रल अवॉर्ड के वाणिज्यिक निष्कर्षों (commercial wisdom) में हस्तक्षेप कर सकता है?


कोर्ट की विस्तृत तर्क-वितर्क और विश्लेषण

1. धारा 34 के तहत न्यायालय का हस्तक्षेप अत्यंत सीमित

कोर्ट ने कहा कि मध्यस्थता प्रणाली की मूल भावना है—
“न्यायालयीय हस्तक्षेप न्यूनतम हो।”

इसलिए धारा 34 के तहत केवल वही अवॉर्ड रद्द किया जा सकता है:

  • जिसमें न्याय के सिद्धांतों का गंभीर उल्लंघन हुआ हो
  • या अवॉर्ड ‘मूलभूत नीति’ (Fundamental Policy) के विरुद्ध हो
  • या अवॉर्ड ऐसी असंगतियों से भरा हो जो ‘न्यायालयिक विवेक को झकझोर दे’

केवल यह कहना कि ब्याज अधिक है—
हस्तक्षेप का आधार नहीं बनता।


2. ब्याज दर अनुबंध द्वारा निर्धारित थी

कोर्ट ने पाया कि:

  • 24% ब्याज दर दोनों पक्षों द्वारा लिखित अनुबंध में स्पष्ट रूप से तय की गई थी
  • ऋण व्यवसाय में डिफॉल्ट ब्याज अक्सर अधिक होता है
  • यह दर उद्योग मानक के भीतर मानी जा सकती है, विशेषतः उच्च जोखिम वाले ऋण मामलों में

इसलिए बाद में उधारकर्ता का शिकायत करना उचित नहीं।


3. अनुबंध की शर्तों को स्वयं मानने वाली पार्टी बाद में राहत नहीं मांग सकती

कोर्ट ने कहा:

“एक बार जब पक्षकार किसी शर्त पर सहमत हो जाते हैं और उसे स्वीकार कर लेते हैं, तो उसके परिणामों से बचने के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाना उचित नहीं है।”

यह वाणिज्यिक अनुबंधों की पवित्रता (Sanctity of Contract) का सिद्धांत है।


4. क्या 24% ब्याज ‘शॉकिंग’ है?—कोर्ट ने कहा नहीं

न्यायालय ने कहा कि:

  • कुछ मामलों में अदालतें 36% या 48% तक की ब्याज दरों पर भी हस्तक्षेप से बची हैं
  • वाणिज्यिक अनुबंधों में उच्च ब्याज दर का उद्देश्य समय पर भुगतान सुनिश्चित करना होता है
  • इसलिए 24% की दर ‘न्यायिक विवेक को झकझोरने’ वाली नहीं मानी जा सकती

5. सार्वजनिक नीति का दायरा अत्यंत संकीर्ण

कोर्ट ने ‘सार्वजनिक नीति’ की संकीर्ण व्याख्या को एक बार फिर दोहराया।
सार्वजनिक नीति के आधार पर अवॉर्ड तभी रद्द होगा जब:

  • उसमें भ्रष्टाचार या धोखाधड़ी हो
  • प्राकृतिक न्याय का गंभीर उल्लंघन हुआ हो
  • अवॉर्ड पूरी तरह अवैध या असंगत हो
  • या ऐसा परिणाम दे जो न्यायिक चेतना को झकझोर दे

इस मामले में ऐसा कुछ नहीं पाया गया।


निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि:

✔ आर्बिट्रल अवॉर्ड पूर्णतः वैध है
✔ 24% ब्याज अनुबंध आधारित और उचित है
✔ धारा 34 के तहत चुनौती योग्य नहीं
✔ न कोई कानून का उल्लंघन, न सार्वजनिक नीति का

अंततः अदालत ने अपील को खारिज कर दिया और अवॉर्ड को बरकरार रखा।


न्यायालय की प्रमुख टिप्पणियाँ (Key Judicial Observations)

  1. मध्यस्थता अवॉर्ड को चुनौती देने का अधिकार सीमित और प्रतिबंधित है।
  2. ब्याज दर पर मतभेद ‘सार्वजनिक नीति’ का मुद्दा नहीं है।
  3. जब तक ब्याज ‘शॉकिंग’ न हो, अदालत को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
  4. धारा 34 पुनर्विचार (Re-Appreciation) का मंच नहीं है।
  5. वाणिज्यिक अनुबंधों की शर्तों से न्यायालय को अनावश्यक छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए।

इस निर्णय का व्यापक प्रभाव (Implications of the Judgment)

1. मध्यस्थता प्रणाली की विश्वसनीयता में वृद्धि

यह निर्णय निवेशकों, वित्तीय संस्थानों और वाणिज्यिक पक्षों के लिए महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह दिखाता है कि भारतीय अदालतें मध्यस्थता अवॉर्ड का सम्मान करती हैं।


2. कंपनियों और उधारकर्ताओं के लिए चेतावनी

अनुबंध पर हस्ताक्षर करते समय पार्टियों को अधिक सतर्क रहना होगा।
केवल यह कहकर राहत नहीं मिलेगी कि “हमें ब्याज अधिक लगा।”


3. धारा 34 के दुरुपयोग पर रोक

कई बार पक्षकार आर्बिट्रल अवॉर्ड को केवल देर करने के लिए चुनौती देते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि ऐसे प्रयास हतोत्साहित किए जाएंगे।


4. ऋण व्यवसाय में स्पष्टता

NBFCs और बैंकों को वैधता मिलती है कि—
यदि ब्याज अनुबंध में तय है और पक्षकारों ने सहमति दी है, तो उसे अमान्य नहीं माना जाएगा।


5. न्यायालयों का सीमित हस्तक्षेप—एक बार फिर दृढ़ हुआ

यह निर्णय Arbitration Act के मूल उद्देश्य—
“न्यूनतम हस्तक्षेप और अधिकतम स्वायत्तता”
—को मजबूत करता है।


मामले की आलोचनात्मक समीक्षा (Critical Analysis)

यह निर्णय निश्चित रूप से आर्बिट्रेशन-फ्रेंडली है, लेकिन कुछ विद्वानों का तर्क है कि:

  • उच्च ब्याज दरें कभी-कभी वित्तीय बोझ को असंगत बना सकती हैं
  • न्यायालयों को यह देखने का अधिकार होना चाहिए कि ब्याज दर अनुचित या दंडात्मक (penal) तो नहीं

हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने इन चिंताओं को इस आधार पर खारिज किया कि:

  • अनुबंध वाणिज्यिक है
  • दोनों पक्ष बराबरी की स्थिति में थे
  • दर सहमति से निर्धारित हुई

इसलिए अदालत का दृष्टिकोण अनुबंध की स्वतंत्रता को सर्वोपरि रखने वाला है।


निष्कर्ष

Sri Lakshmi Hotel Pvt. Ltd. v. Sriram City Union Finance Ltd. का निर्णय भारतीय मध्यस्थता कानून के विकास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। यह स्पष्ट करता है कि:

  • न्यायालय आर्बिट्रेशन अवॉर्ड के वाणिज्यिक पहलुओं में दखल नहीं देंगे
  • ब्याज दर पर मतभेद धारा 34 के तहत हस्तक्षेप का वैध आधार नहीं
  • अनुबंध की पवित्रता सर्वोपरि है
  • सार्वजनिक नीति का दायरा सीमित है

यह निर्णय भारत को एक Arbitration-Friendly Jurisdiction बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान देता है।