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24 घंटे की हिरासत की अवधि तब शुरू होती है जब आरोपी को वास्तविक रूप से हिरासत में लिया जाए, न कि पुलिस द्वारा दर्ज की गई औपचारिक गिरफ्तारी के समय से – केरल हाईकोर्ट का निर्णय

24 घंटे की हिरासत की अवधि तब शुरू होती है जब आरोपी को वास्तविक रूप से हिरासत में लिया जाए, न कि पुलिस द्वारा दर्ज की गई औपचारिक गिरफ्तारी के समय से – केरल हाईकोर्ट का निर्णय

           भारतीय संविधान और आपराधिक न्याय व्यवस्था में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को अत्यधिक महत्व दिया गया है। संविधान का अनुच्छेद 21 प्रत्येक व्यक्ति को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्रदान करता है। इसी संदर्भ में केरल हाईकोर्ट का हालिया निर्णय महत्वपूर्ण है, जिसमें न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि किसी आरोपी को पुलिस हिरासत में रखने की 24 घंटे की अधिकतम सीमा उसकी वास्तविक हिरासत (Effective Detention) से शुरू होगी, न कि पुलिस द्वारा दर्ज किए गए औपचारिक गिरफ्तारी (Formal Arrest) के समय से। यह निर्णय न केवल मानवाधिकारों की सुरक्षा की दृष्टि से अहम है बल्कि पुलिस की मनमानी और अधिकारों के दुरुपयोग पर भी रोक लगाने वाला है।


1. पृष्ठभूमि

भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में जब किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है, तो पुलिस के पास उसे 24 घंटे से अधिक समय तक थाने में रखने का अधिकार नहीं होता। दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code – CrPC) की धारा 57 स्पष्ट रूप से कहती है कि गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करना आवश्यक है। यदि ऐसा नहीं किया जाता है, तो यह गिरफ्तारी अवैध मानी जाएगी।

लेकिन अक्सर यह विवाद उत्पन्न होता है कि यह 24 घंटे की समय-सीमा कब से गिनी जाए – क्या पुलिस द्वारा दर्ज किए गए “गिरफ्तारी के समय” से, या उस क्षण से जब आरोपी वास्तव में पुलिस के नियंत्रण और निगरानी में आ जाता है।

इसी प्रश्न पर विचार करते हुए केरल हाईकोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया और यह साफ किया कि व्यक्ति की वास्तविक स्वतंत्रता छीने जाने के क्षण से ही 24 घंटे की अवधि शुरू होगी


2. मामला और न्यायालय की टिप्पणी

इस मामले में याचिकाकर्ता ने यह दलील दी कि पुलिस ने उसे काफी पहले से हिरासत में रखा था, लेकिन रिकॉर्ड में गिरफ्तारी का समय बाद में दिखाया गया। इसका उद्देश्य केवल 24 घंटे की सीमा से बचना और न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने में देरी को सही ठहराना था।

केरल हाईकोर्ट ने यह स्वीकार किया कि यदि पुलिस ऐसा करती है तो यह आरोपी के मौलिक अधिकारों का सीधा उल्लंघन है। अदालत ने कहा –

  • 24 घंटे की सीमा संविधान और कानून द्वारा आरोपी को दी गई सुरक्षा है।
  • इस अवधि की गणना पुलिस की मनमानी पर आधारित “रिकॉर्डेड टाइम” से नहीं बल्कि वास्तविक हिरासत से की जाएगी।
  • पुलिस यदि किसी व्यक्ति को थाने में बिठाए रखती है, उसकी स्वतंत्र आवाजाही रोकती है और उसे निगरानी में रखती है, तो यह वास्तविक गिरफ्तारी (Effective Arrest/Detention) है।
  • पुलिस द्वारा बाद में लिखे गए औपचारिक गिरफ्तारी समय (Formal Arrest Time) का कोई महत्व नहीं है।

3. कानूनी आधार

न्यायालय ने अपने निर्णय में कई प्रावधानों और पूर्ववर्ती निर्णयों का उल्लेख किया।

  1. संविधान का अनुच्छेद 22(2) – इसमें कहा गया है कि किसी भी गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करना अनिवार्य है।
  2. CrPC की धारा 57 – यह प्रावधान करता है कि पुलिस किसी आरोपी को 24 घंटे से अधिक हिरासत में नहीं रख सकती जब तक कि उसे मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत न किया जाए।
  3. D.K. Basu बनाम राज्य पश्चिम बंगाल (1997) – सुप्रीम कोर्ट ने गिरफ्तारी के समय और प्रक्रिया को लेकर विस्तृत दिशा-निर्देश दिए थे। इनमें आरोपी के अधिकार, परिवार को सूचना देने का दायित्व और गिरफ्तारी की सही समयावधि का उल्लेख करने की बाध्यता शामिल है।
  4. केरल हाईकोर्ट का दृष्टिकोण – इन प्रावधानों और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की रोशनी में हाईकोर्ट ने कहा कि गिरफ्तारी का वास्तविक अर्थ यह है कि व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता से वंचित हो जाता है।

4. निर्णय का महत्व

यह फैसला कई दृष्टियों से अत्यंत महत्वपूर्ण है –

  • मानवाधिकार संरक्षण – यह निर्णय आरोपी के मानवाधिकारों की रक्षा करता है ताकि पुलिस मनमाने तरीके से गिरफ्तारी समय को बदलकर आरोपी को अनिश्चितकालीन थाने में न बैठा सके।
  • पुलिस की जवाबदेही – इससे पुलिस को स्पष्ट संदेश मिलता है कि वे गिरफ्तारी की प्रक्रिया में पारदर्शिता रखें और रिकॉर्ड में हेरफेर न करें।
  • न्यायिक निगरानी का सशक्तिकरण – अदालतों के पास यह अधिकार रहेगा कि वे आरोपी के वास्तविक हिरासत समय का आकलन करें और यदि आवश्यक हो तो गिरफ्तारी को अवैध घोषित करें।
  • संवैधानिक अधिकारों का संरक्षण – अनुच्छेद 21 और 22 के तहत दिए गए मौलिक अधिकारों को और मजबूत करता है।

5. व्यावहारिक प्रभाव

इस निर्णय के बाद पुलिस अधिकारियों को अधिक सतर्क रहना होगा। वे किसी भी व्यक्ति को थाने में बुलाकर लंबे समय तक बैठा नहीं सकते और बाद में “गिरफ्तारी समय” को अपनी सुविधानुसार रिकॉर्ड नहीं कर सकते।

इसका एक और प्रभाव यह होगा कि आरोपी और उसके वकील अदालत में यह तर्क रख सकते हैं कि वास्तविक हिरासत समय क्या था और पुलिस ने 24 घंटे की सीमा का उल्लंघन किया या नहीं। यदि उल्लंघन साबित होता है, तो गिरफ्तारी को अवैध घोषित किया जा सकता है और आरोपी को रिहाई का अधिकार मिल सकता है।


6. आलोचना और चुनौतियाँ

हालाँकि यह निर्णय आरोपी के अधिकारों की रक्षा करता है, लेकिन पुलिस की ओर से यह तर्क दिया जा सकता है कि कई बार व्यक्ति को थाने में पूछताछ के लिए बुलाया जाता है, लेकिन वह औपचारिक रूप से गिरफ्तार नहीं होता। ऐसे मामलों में यह तय करना कठिन हो सकता है कि “वास्तविक हिरासत” कब शुरू हुई।

इसके अलावा, इस निर्णय का पालन सुनिश्चित करने के लिए पुलिस व्यवस्था में उचित निगरानी और जवाबदेही तंत्र की आवश्यकता है।


7. निष्कर्ष

केरल हाईकोर्ट का यह निर्णय न्यायिक दृष्टिकोण से अत्यंत प्रगतिशील और संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप है। यह स्पष्ट करता है कि व्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वोपरि है और पुलिस को कानून की सीमाओं में रहकर ही कार्य करना चाहिए

24 घंटे की हिरासत की अवधि को केवल रिकॉर्ड पर दर्ज किए गए समय से जोड़कर देखने की बजाय वास्तविक स्वतंत्रता के हनन से जोड़ना न केवल आरोपी के अधिकारों की रक्षा करता है बल्कि भारतीय न्याय प्रणाली को और भी अधिक मानवीय और न्यायपूर्ण बनाता है।

यह फैसला आने वाले समय में अन्य न्यायालयों के लिए भी मार्गदर्शक सिद्ध होगा और पुलिस प्रशासन को पारदर्शिता तथा संवैधानिक दायित्वों का पालन करने के लिए बाध्य करेगा।


संक्षेप में
केरल हाईकोर्ट ने यह ऐतिहासिक रूप से स्पष्ट किया है कि गिरफ्तारी का 24 घंटे का नियम आरोपी की वास्तविक हिरासत (Effective Detention) से शुरू होगा, न कि पुलिस द्वारा दर्ज किए गए औपचारिक गिरफ्तारी समय से। यह फैसला संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों और मानवाधिकारों की रक्षा की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है।