शीर्षक: 21 वर्षों बाद बरी: NDPS मामले में पांच अभियुक्तों को न्याय मिला
परिचय:
न्याय प्रक्रिया में देरी और प्रक्रियात्मक खामियों के चलते कई निर्दोष व्यक्ति वर्षों तक जेल की सलाखों के पीछे जीवन बिताने को मजबूर हो जाते हैं। ऐसा ही एक मामला हाल ही में सामने आया जब मुंबई की एक विशेष NDPS (Narcotic Drugs and Psychotropic Substances) अदालत ने ड्रग तस्करी के एक पुराने मामले में पांच अभियुक्तों को बरी कर दिया, जो पहले ही लगभग 21 वर्षों की सजा काट चुके थे।
मामले का संक्षिप्त विवरण:
यह मामला अप्रैल 2004 का है, जब कस्टम विभाग के एक अधिकारी को सूचना मिली कि मोहम्मद उमर मिस्त्री नामक व्यक्ति जे.जे. अस्पताल में बुप्रेनोर्फीन (Buprenorphine) नामक मादक पदार्थ के चार बड़े पैकेट बिना वैध दस्तावेजों के ले जा रहा है। इस सूचना के आधार पर मिस्त्री समेत अन्य अभियुक्तों—धर्मेंद्र सरोज, अतीक उर रहमान, उदय राज यादव और सिराज पंजवानी को गिरफ्तार किया गया। प्रत्येक पैकेट में लगभग 20,000 एम्प्यूल थे।
अभियोजन का तर्क:
प्रोसीक्यूशन के अनुसार, मिस्त्री ने यह पैकेट लमिंगटन रोड स्थित एक अंगड़िया से प्राप्त किए थे, जिसे सरोज ने अपने भांजे के माध्यम से भेजा था। जांच में यह भी पाया गया कि ये पैकेट सिराज पंजवानी ने बुक किए थे, जो रहमान, यादव और प्रताप सिंह के संपर्क में था। प्रताप सिंह ने ये दवाइयां यादव की कंपनी ‘यूडी सर्जिकल एंड फार्मास्यूटिकल’ से प्राप्त की थीं।
न्यायालय की टिप्पणियाँ और फैसला:
इस केस का ट्रायल 30 जनवरी 2017 को शुरू हुआ और कई वर्षों की सुनवाई के बाद अदालत ने अभियोजन की प्रक्रिया में गंभीर खामियां पाईं।
- सबसे पहले, कस्टम अधिकारी ने जिस सूचना के आधार पर कार्रवाई की, उसे न तो लिखित में दर्ज किया और न ही अपने वरिष्ठ अधिकारियों को सूचित किया।
- दूसरी बड़ी चूक यह थी कि जब्त की गई दवाओं के भंडारण और परिवहन का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा गया।
- इसके अलावा, जब्ती की प्रक्रिया में भी नियमों का पालन नहीं किया गया, जिससे रासायनिक परीक्षण की रिपोर्ट अविश्वसनीय हो गई।
- अदालत ने यह भी पाया कि मिस्त्री के पास से बरामद मादक पदार्थ और अन्य अभियुक्तों के बीच कोई स्पष्ट संबंध स्थापित नहीं किया गया।
इन सभी प्रक्रियात्मक त्रुटियों के चलते अदालत ने यह मानते हुए कि अभियोजन अपने आरोपों को प्रमाणित करने में विफल रहा, सभी पांच अभियुक्तों को बरी कर दिया।
निष्कर्ष:
यह मामला भारतीय न्याय प्रणाली में लंबित मामलों और प्रक्रियात्मक अनुशासन के महत्व को रेखांकित करता है। 21 वर्षों की लंबी कैद के बाद निर्दोष व्यक्तियों को न्याय मिलना एक त्रासदीपूर्ण उपलब्धि है। यह घटनाक्रम यह सोचने पर मजबूर करता है कि कितने लोग न्यायिक प्रक्रियाओं की त्रुटियों के कारण अपने जीवन के अनमोल वर्ष जेल में व्यतीत कर रहे हैं। न्याय में देरी अपने आप में अन्याय है—यह मामला उसी की एक ज्वलंत मिसाल है।
सुझाव:
इस प्रकार की त्रुटियों से बचने के लिए जरूरी है कि—
- जांच अधिकारी प्रत्येक सूचना को दस्तावेजी रूप दें।
- जब्ती और परीक्षण प्रक्रियाओं में पूरी पारदर्शिता और विधिक नियमों का पालन हो।
- मामलों की त्वरित सुनवाई सुनिश्चित की जाए ताकि निर्दोष व्यक्ति लंबी अवधि तक जेल में न रहें।
इससे न केवल न्यायपालिका की गरिमा बनी रहेगी बल्कि आमजन का विश्वास भी न्याय व्यवस्था में बना रहेगा।