“1985 से जारी निर्दोष सिख नागरिकों के विरुद्ध भारतीय संसद, कार्यपालिका और न्यायपालिका द्वारा किए गए गंभीर अपराध: एक न्यायिक अन्याय का ऐतिहासिक दस्तावेज़”

शीर्षक: “1985 से जारी निर्दोष सिख नागरिकों के विरुद्ध भारतीय संसद, कार्यपालिका और न्यायपालिका द्वारा किए गए गंभीर अपराध: एक न्यायिक अन्याय का ऐतिहासिक दस्तावेज़”

प्रस्तावना:
भारत के लोकतंत्र में संसद, कार्यपालिका और न्यायपालिका की त्रयी को “न्याय, समानता और स्वतंत्रता” के रक्षक के रूप में देखा जाता है। परंतु जब यही संस्थान निर्दोष नागरिकों के खिलाफ पक्षपात, दमन और अन्याय की प्रतीक बन जाएं, तब यह केवल संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन नहीं, बल्कि मानवता के विरुद्ध अपराध बन जाता है। 1984 के सिख विरोधी दंगों के बाद, 07 जून 1985 को पारित की गई राष्ट्रपति पुरस्कार अधिसूचना संख्या 64 और उसके बाद हुई न्यायिक व प्रशासनिक कार्यवाहियां इसी त्रासदी का प्रतीक हैं।

घटना का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य:
1984 में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश के कई हिस्सों में सिख समुदाय के खिलाफ हिंसा फैली, जिसमें हजारों निर्दोष सिख पुरुष, महिलाएं और बच्चे मारे गए। इस भयावह नरसंहार के पीछे न केवल उग्र भीड़ थी, बल्कि कई रिपोर्टों के अनुसार सरकारी तंत्र, पुलिस, और कुछ राजनीतिक नेतृत्व की संलिप्तता भी स्पष्ट रूप से सामने आई।

07 जून 1985 की अधिसूचना और उससे जुड़ा अपराध:
भारत सरकार ने दिनांक 07-06-1985 को राष्ट्रपति पुरस्कार अधिसूचना संख्या 64 के माध्यम से यह घोषित किया कि 05-11-1984 को घटी एक घटना में 17 सिख व्यक्तियों (जिनमें 4 नाबालिग बच्चे भी शामिल थे) ने दो व्यक्तियों की हत्या की। आश्चर्य की बात यह है कि उक्त घटना की पुलिस चार्जशीट 31-01-1986 को दायर की गई थी — यानी एक ऐसी घटना के लिए पहले ही राष्ट्रपति पुरस्कार के माध्यम से निष्कर्ष निकाल लिया गया जबकि जांच भी पूरी नहीं हुई थी। यह न केवल भारतीय विधिक प्रक्रिया के सिद्धांतों के विरुद्ध है बल्कि एक पूर्व-निर्धारित राजनीतिक एजेंडे की ओर भी इशारा करता है।

न्यायपालिका की भूमिका और संवैधानिक विफलता:
1985 से लेकर अब तक, भारत की विभिन्न न्यायिक पीठों ने इस अन्याय को सुधारने की बजाय उसे अनदेखा किया और उक्त 17 निर्दोष सिख नागरिकों को दोषी ठहराया। यह स्पष्ट रूप से न्याय के उस सिद्धांत का उल्लंघन है जो कहता है — “दस अपराधी छूट जाएं तो चलेगा, लेकिन एक भी निर्दोष को सज़ा नहीं होनी चाहिए।”

प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्रिमंडल की भूमिका:
तत्कालीन प्रधानमंत्री और सभी केंद्रीय मंत्रियों की यह सामूहिक चुप्पी, और राष्ट्रपति की ओर से बिना न्यायिक प्रक्रिया के हस्तक्षेप करना, यह दर्शाता है कि यह एक सोची-समझी साजिश थी ताकि 1984 के दंगों में भारतीय पुलिस और सशस्त्र बलों की भूमिका को ढंका जा सके। वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का भी इस मुद्दे पर मौन और कार्यवाही न करना इस निरंतर अन्याय को समर्थन देना प्रतीत होता है।

मानवाधिकार और अंतर्राष्ट्रीय न्याय के संदर्भ में:
इस प्रकार के संस्थागत अपराध केवल भारतीय कानूनों के उल्लंघन नहीं हैं, बल्कि यह अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानूनों के भी प्रतिकूल हैं। इस प्रकरण को अंतरराष्ट्रीय मंचों जैसे संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC) या अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) में प्रस्तुत किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष:
1985 से अब तक — 41 वर्षों से — 17 निर्दोष सिख नागरिकों का जीवन न्याय की प्रतीक्षा में नष्ट हो चुका है। इस त्रासदी के पीछे केवल एक राजनीतिक चाल नहीं, बल्कि एक पूरे समुदाय के प्रति गहरे विद्वेष की झलक मिलती है। यह लेख एक आह्वान है — न केवल सच्चाई के पुनर्परीक्षण का, बल्कि भारत की लोकतांत्रिक संस्थाओं को उनके कर्तव्य और संवैधानिक मर्यादा की याद दिलाने का भी।

सुझाव:

  1. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वतः संज्ञान लेकर इस प्रकरण की पुन: सुनवाई की जानी चाहिए।
  2. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को इसकी स्वतंत्र जांच करानी चाहिए।
  3. पीड़ितों और उनके परिवारों को मुआवज़ा, सम्मान और न्याय दिया जाना चाहिए।
  4. राष्ट्रपति अधिसूचना संख्या 64 को असंवैधानिक घोषित किया जाना चाहिए।