“यह प्रवृत्ति सही नहीं है” — केरल के राज्यपाल का सवाल विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के चयन में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका पर उठता संवैधानिक विमर्श
भूमिका
भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में शक्ति-संतुलन (Separation of Powers) एक मूलभूत सिद्धांत है। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—तीनों की भूमिकाएँ अलग-अलग होते हुए भी एक-दूसरे के पूरक के रूप में कार्य करती हैं। किंतु जब किसी एक अंग की भूमिका दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप करती प्रतीत हो, तब संवैधानिक बहस और संस्थागत टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
ऐसी ही एक बहस हाल के दिनों में सामने आई है, जब केरल के राज्यपाल ने विश्वविद्यालयों के कुलपतियों (Vice-Chancellors) के चयन से जुड़े मामलों में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका पर सवाल उठाते हुए कहा—
“यह प्रवृत्ति सही नहीं है” (This trend is not correct).
यह टिप्पणी केवल एक राजनीतिक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि उच्च शिक्षा, संघीय ढांचे और संवैधानिक सीमाओं से जुड़ा एक गंभीर प्रश्न बन गई है।
विवाद की पृष्ठभूमि
केरल में पिछले कुछ वर्षों से—
- राज्य सरकार,
- राज्यपाल (जो विश्वविद्यालयों के चांसलर भी होते हैं),
- और विश्वविद्यालय प्रशासन
के बीच कुलपति नियुक्ति को लेकर लगातार टकराव देखने को मिला है।
राज्य सरकार का आरोप रहा है कि—
- राज्यपाल मनमाने ढंग से नियुक्तियाँ कर रहे हैं,
जबकि राज्यपाल का कहना है कि— - राज्य सरकार विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता में हस्तक्षेप कर रही है।
इसी विवाद के दौरान कुछ मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप करते हुए—
- नियुक्तियों की वैधता की समीक्षा की,
- और चयन प्रक्रिया को लेकर दिशानिर्देश दिए।
यहीं से यह प्रश्न उठा कि—
क्या न्यायपालिका का यह स्तर का हस्तक्षेप उचित है?
राज्यपाल की टिप्पणी: “यह प्रवृत्ति सही नहीं है”
केरल के राज्यपाल ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि—
- विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के चयन में
न्यायपालिका की बढ़ती भूमिका एक गलत प्रवृत्ति है।
उनका तर्क था कि—
- कुलपति की नियुक्ति एक प्रशासनिक और वैधानिक प्रक्रिया है,
- जिसमें राज्यपाल, राज्य सरकार और विश्वविद्यालय अधिनियमों की भूमिका निर्धारित है।
राज्यपाल के अनुसार—
यदि हर नियुक्ति अंततः न्यायालय द्वारा तय की जाएगी,
तो इससे न केवल संस्थागत संतुलन बिगड़ेगा,
बल्कि विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता भी प्रभावित होगी।
कुलपति नियुक्ति की संवैधानिक और कानूनी स्थिति
1. राज्यपाल की भूमिका
अधिकांश राज्यों में—
- राज्यपाल विश्वविद्यालयों के चांसलर होते हैं।
- कुलपति की नियुक्ति प्रायः
खोज-सह-चयन समिति (Search-cum-Selection Committee)
की संस्तुति पर होती है।
यह भूमिका—
- औपचारिक होते हुए भी,
- संवैधानिक महत्व रखती है।
2. राज्य सरकार की भूमिका
राज्य सरकार—
- विश्वविद्यालय अधिनियम बनाती है,
- वित्तीय सहायता देती है,
- और नीति निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
इसी कारण राज्य सरकार यह मानती है कि—
- कुलपति नियुक्ति में उसका निर्णायक प्रभाव होना चाहिए।
3. न्यायपालिका की भूमिका
सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालय—
- तभी हस्तक्षेप करते हैं,
जब नियुक्ति प्रक्रिया—- कानून के विरुद्ध हो,
- मनमानी या पक्षपातपूर्ण हो,
- या संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन करती हो।
न्यायालय स्वयं नियुक्ति नहीं करता,
बल्कि प्रक्रिया की कानूनी समीक्षा (Judicial Review) करता है।
तो फिर विवाद क्यों?
केरल के राज्यपाल की आपत्ति इस बात पर है कि—
- हाल के कुछ मामलों में
सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप
सीमाओं से आगे बढ़ता हुआ प्रतीत होता है।
उनके अनुसार—
- न्यायपालिका केवल प्रक्रिया की वैधता देखे,
- न कि यह तय करे कि
कौन कुलपति बने या चयन कैसे हो।
यही कारण है कि उन्होंने इसे
“गलत प्रवृत्ति” कहा।
न्यायिक हस्तक्षेप: आवश्यकता या अतिक्रमण?
न्यायपालिका के समर्थन में तर्क
- कानून का शासन (Rule of Law)
यदि नियुक्तियाँ कानून के विरुद्ध हों,
तो न्यायालय का हस्तक्षेप आवश्यक है। - राजनीतिक हस्तक्षेप से सुरक्षा
विश्वविद्यालयों को
राजनीतिक दबाव से बचाने के लिए
न्यायपालिका की भूमिका महत्वपूर्ण है। - शैक्षणिक गुणवत्ता की रक्षा
कुलपति केवल प्रशासक नहीं,
बल्कि अकादमिक नेतृत्व भी होते हैं।
राज्यपाल के दृष्टिकोण से आपत्तियाँ
- संघीय ढांचे पर प्रभाव
शिक्षा राज्य सूची का विषय है,
अतः अत्यधिक न्यायिक हस्तक्षेप
संघीय संतुलन को बिगाड़ सकता है। - संस्थागत सीमाओं का उल्लंघन
यदि न्यायपालिका चयन प्रक्रिया निर्देशित करने लगे,
तो यह कार्यपालिका के क्षेत्र में दखल होगा। - निरंतर मुकदमेबाजी
हर नियुक्ति न्यायालय तक पहुँचना
प्रशासनिक स्थिरता को प्रभावित करता है।
उच्च शिक्षा की स्वायत्तता का प्रश्न
यह विवाद मूलतः एक बड़े सवाल की ओर इशारा करता है—
क्या भारतीय विश्वविद्यालय वास्तव में स्वायत्त हैं?
यदि—
- राज्य सरकार हस्तक्षेप करे → राजनीतिकरण,
- राज्यपाल हस्तक्षेप करे → संवैधानिक विवाद,
- न्यायपालिका हस्तक्षेप करे → संस्थागत टकराव।
तो प्रश्न उठता है कि—
- विश्वविद्यालयों की स्वतंत्र पहचान कहाँ रह जाती है?
पूर्व के न्यायिक दृष्टांत
सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में कहा है कि—
- विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता
संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है। - लेकिन यह स्वायत्तता
कानून के दायरे में ही हो सकती है।
न्यायालय का रुख यह रहा है कि—
- जब तक चयन प्रक्रिया पारदर्शी और वैधानिक है,
तब तक हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए।
राजनीति बनाम शिक्षा
केरल का यह विवाद केवल कानूनी नहीं,
बल्कि राजनीतिक भी है।
एक ओर—
- निर्वाचित सरकार अपने अधिकारों की बात करती है,
दूसरी ओर— - राज्यपाल संवैधानिक पद की गरिमा की रक्षा की बात करते हैं।
बीच में—
- न्यायपालिका संतुलन बनाने का प्रयास करती है।
परंतु इस संघर्ष में—
- सबसे अधिक प्रभावित होती है
उच्च शिक्षा व्यवस्था।
सुप्रीम कोर्ट की भूमिका पर बढ़ती बहस
केरल के राज्यपाल की टिप्पणी के बाद—
- यह प्रश्न राष्ट्रीय स्तर पर उठ खड़ा हुआ है कि—
क्या सुप्रीम कोर्ट को
प्रशासनिक मामलों में
अधिक संयम बरतना चाहिए?
या फिर—
क्या न्यायपालिका ही
अंतिम संरक्षक है
जो संस्थाओं को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचा सकती है?
संभावित समाधान
- स्पष्ट कानून और दिशानिर्देश
कुलपति नियुक्ति की प्रक्रिया
स्पष्ट और विवाद-मुक्त होनी चाहिए। - स्वतंत्र चयन समितियाँ
जिनमें- शिक्षाविद,
- प्रशासनिक विशेषज्ञ,
- और सीमित सरकारी प्रतिनिधित्व हो।
- न्यायिक संयम
न्यायपालिका केवल
असाधारण मामलों में हस्तक्षेप करे। - संवाद और सहयोग
राज्य सरकार, राज्यपाल और विश्वविद्यालय
टकराव के बजाय संवाद अपनाएँ।
निष्कर्ष
केरल के राज्यपाल द्वारा कही गई पंक्ति—
“यह प्रवृत्ति सही नहीं है”
केवल एक टिप्पणी नहीं,
बल्कि भारतीय लोकतंत्र में संस्थागत सीमाओं पर एक गंभीर चेतावनी है।
यह विवाद हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि—
- न्यायपालिका की सक्रियता कहाँ तक उचित है,
- कार्यपालिका की स्वतंत्रता कहाँ समाप्त होती है,
- और विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता कैसे सुरक्षित रखी जाए।
यदि शिक्षा राजनीति और संस्थागत टकराव की भेंट चढ़ेगी,
तो उसका नुकसान केवल सरकारों या अदालतों को नहीं,
बल्कि पूरे समाज और आने वाली पीढ़ियों को होगा।
अतः आवश्यकता है—
- संतुलन की,
- संयम की,
- और संविधान की भावना के अनुरूप
सह-अस्तित्व (Cooperative Constitutionalism) की।
यही इस पूरे विवाद से निकलने वाला सबसे बड़ा सबक है।