“17 वर्षों से न्याय का इंतजार: सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात वाणिज्यिक दीवानी न्यायालय की लापरवाही पर जताई नाराज़गी”

“17 वर्षों से न्याय का इंतजार: सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात वाणिज्यिक दीवानी न्यायालय की लापरवाही पर जताई नाराज़गी” Gujarat Industrial Investment Corporation Ltd. vs. Varanasi Srinivas & Others (Supreme Court of India, 2024/2025)

पूरा लेख:

भूमिका:
भारतीय न्यायपालिका का एक मूलभूत सिद्धांत है — न्याय में देरी, न्याय से इनकार के समान है। हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने इसी सिद्धांत को दोहराते हुए एक अहम फैसला सुनाया, जिसमें गुजरात इंडस्ट्रियल इन्वेस्टमेंट कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम वराणसी श्रीनिवास एवं अन्य के मामले में निचली अदालत की कार्यवाही को “अनुचित, लापरवाह और मनमानी” करार दिया गया।

मामले की पृष्ठभूमि:
यह विवाद एक वसूली वाद (recovery suit) से संबंधित है, जिसे गुजरात इंडस्ट्रियल इन्वेस्टमेंट कॉर्पोरेशन लिमिटेड द्वारा दायर किया गया था। यह मामला गुजरात की वाणिज्यिक दीवानी अदालत (Commercial Civil Court) में चल रहा था। इस वाद में आश्चर्यजनक रूप से 17 वर्षों तक अदालत ने मुद्दों (Issues) को ही निर्धारित नहीं किया, जो कि किसी भी दीवानी मुकदमे की उचित सुनवाई के लिए एक अनिवार्य चरण होता है।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी:
सुप्रीम कोर्ट ने यह पाया कि निचली अदालत ने न केवल 17 वर्षों तक मामले को टालते हुए गंभीर न्यायिक लापरवाही दिखाई, बल्कि अंत में बिना पर्याप्त कारणों के वादी की साक्ष्य (Plaintiff’s Evidence) बंद कर दी और उसके पश्चात मुकदमा खारिज कर दिया।
कोर्ट ने यह स्पष्ट रूप से कहा कि—

“ऐसी लापरवाही न केवल वादी के अधिकारों का हनन है, बल्कि न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिह्न लगाती है।”

न्यायपालिका की जिम्मेदारी:
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि दीवानी मामलों में मुद्दों का निर्धारण (framing of issues) शीघ्र और विधिसम्मत रूप से किया जाना चाहिए। 17 वर्षों तक कोई दिशा न देना न्याय के साथ अन्याय है। अदालतों को यह ध्यान रखना चाहिए कि मामलों की निष्पक्ष सुनवाई समयबद्ध ढंग से होनी चाहिए।

आदेश का प्रभाव:
सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत के आदेश को निरस्त (set aside) करते हुए मामला पुनः सुनवाई के लिए भेजा, साथ ही निर्देश दिया कि इस बार तेजी से न्यायिक प्रक्रिया को पूरा किया जाए। कोर्ट ने यह भी कहा कि वादी की साक्ष्य को उचित अवसर देकर पुनः दर्ज किया जाए।

निष्कर्ष:
यह फैसला न केवल एक विशिष्ट वाद का समाधान है, बल्कि यह भारत की निचली अदालतों को एक सख्त संदेश भी है कि न्यायिक प्रक्रिया में अनावश्यक देरी और मनमाना रवैया स्वीकार्य नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट की यह पहल न्याय व्यवस्था को अधिक उत्तरदायी और पारदर्शी बनाने की दिशा में एक ठोस कदम है।