“16 से 18 वर्ष आयु वर्ग के किशोरों द्वारा किए गए जघन्य अपराधों के संदर्भ में किशोर न्याय अधिनियम, 2015 की प्रासंगिकता और न्यायिक दृष्टिकोण की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।”
✨ प्रस्तावना:
किशोरों द्वारा अपराध करना एक संवेदनशील सामाजिक और कानूनी विषय है। भारत में पारंपरिक रूप से यह माना गया है कि किशोर (18 वर्ष से कम आयु के) अपराधियों को सुधारात्मक दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए, न कि दंडात्मक दृष्टिकोण से। परंतु 2012 के निर्भया कांड ने इस धारणा को चुनौती दी, क्योंकि उस अपराध में एक प्रमुख आरोपी 17 वर्ष का था, परंतु उसे वयस्क अपराधियों की तरह सज़ा नहीं दी जा सकी। इस पृष्ठभूमि में किशोर न्याय अधिनियम, 2015 पारित किया गया, जिसने 16 से 18 वर्ष आयु वर्ग के किशोरों द्वारा किए गए जघन्य अपराधों की सुनवाई के लिए नई व्यवस्था की।
⚖️ प्रासंगिक कानूनी प्रावधान:
1. जघन्य अपराध की परिभाषा:
- अधिनियम की धारा 2(33) के अनुसार, ऐसे अपराध जिनके लिए न्यूनतम सज़ा 7 वर्ष या उससे अधिक हो – उन्हें जघन्य अपराध (Heinous Offences) कहा गया है।
उदाहरण: हत्या, बलात्कार, एसिड अटैक, अपहरण आदि।
2. धारा 15 – प्रारंभिक आकलन (Preliminary Assessment):
- यदि 16 से 18 वर्ष का किशोर जघन्य अपराध करता है, तो Juvenile Justice Board यह आकलन करेगा कि क्या वह किशोर मानसिक, बौद्धिक और नैतिक रूप से इतना परिपक्व है कि उसकी सुनवाई वयस्क के रूप में की जा सके।
3. धारा 18(3) – वयस्क के रूप में कार्यवाही:
- यदि बोर्ड यह तय करता है कि किशोर की सुनवाई वयस्क की तरह की जानी चाहिए, तो मामला सत्र न्यायालय (Children’s Court) को स्थानांतरित कर दिया जाता है।
4. न्यायालय की भूमिका:
- सत्र न्यायालय भी सुनवाई के दौरान यह देखता है कि किशोर के साथ वयस्क अपराधियों की तरह व्यवहार किया जाना उचित है या नहीं।
🧠 न्यायिक दृष्टिकोण और व्यवहारिक चुनौतियाँ:
✅ सकारात्मक दृष्टिकोण:
- समाज और पीड़ितों की अपेक्षा है कि गंभीर अपराधियों को दंडित किया जाए, चाहे वे किशोर हों या वयस्क।
- यह धारणा कि 16–18 वर्ष की उम्र में व्यक्ति अच्छे-बुरे का भेद समझ सकता है, एक मजबूत आधार बनाती है।
- इससे अपराध करने वाले किशोरों के बीच प्रतिरोधक प्रभाव (Deterrence) पैदा होता है।
❌ आलोचनात्मक बिंदु:
- बाल मनोविज्ञान की उपेक्षा:
- यह सिद्ध किया गया है कि किशोरों का मस्तिष्क पूरी तरह परिपक्व नहीं होता, इसलिए उन्हें वयस्कों की तरह दंडित करना न्यायोचित नहीं हो सकता।
- सुधार की संभावना क्षीण होती है:
- यदि किशोर को जेल में वयस्क अपराधियों के साथ रखा जाए, तो वह और अधिक अपराध प्रवृत्त हो सकता है।
- अभ्यास में कठिनाई:
- “प्रारंभिक आकलन” (Preliminary Assessment) एक अत्यंत जटिल प्रक्रिया है। न्यायिक अधिकारी और बोर्ड सदस्य मनोवैज्ञानिक नहीं होते, जिससे गलत निर्णय की संभावना रहती है।
- संविधानिक प्रश्न:
- समानता, पुनर्वास और गरिमा जैसे मौलिक अधिकारों की दृष्टि से यह प्रावधान कई बार संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के विपरीत प्रतीत होता है।
📜 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:
⚖️ Dr. Subramanian Swamy v. Raju (2016)
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अधिनियम का उद्देश्य संतुलन बनाए रखना है — किशोर की मानसिक स्थिति के साथ-साथ समाज की सुरक्षा।
- कोर्ट ने 2015 के प्रावधान को संवैधानिक माना, लेकिन इसकी व्याख्या करते हुए यह भी कहा कि सुनवाई से पहले हर मामले में उचित आकलन अनिवार्य है।
🌐 अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण:
- भारत ने UN Convention on the Rights of the Child (UNCRC) पर हस्ताक्षर किया है, जो 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों को वयस्कों जैसा दंड देने का विरोध करता है।
- 2015 का अधिनियम इस कन्वेंशन की भावना से थोड़ा हटकर प्रतीत होता है।
✅ निष्कर्ष:
किशोर न्याय अधिनियम, 2015, जघन्य अपराधों के संबंध में एक प्रगतिशील लेकिन विवादास्पद विधिक कदम है। यह एक तरफ़ समाज और पीड़ित के न्याय की मांग को मान्यता देता है, वहीं दूसरी ओर यह बाल अधिकारों, सुधार और पुनर्वास की भावना को कुछ हद तक चुनौती देता है।
इसलिए आवश्यकता है कि:
- प्रारंभिक आकलन निष्पक्ष और विशेषज्ञों की मदद से हो,
- सुधार गृहों की गुणवत्ता बढ़ाई जाए,
- और पुनर्वास को प्राथमिकता दी जाए।
तभी यह अधिनियम न्याय, सुरक्षा और सहानुभूति के बीच संतुलन बना पाएगा।