“15 वर्ष से अधिक उम्र की पत्नी से यौन संबंध दुष्कर्म नहीं: इलाहाबाद हाई कोर्ट ने दो दशक पुराना दोषसिद्धि आदेश किया रद्द”
भूमिका
भारत में वैवाहिक संबंधों और यौन अपराधों से संबंधित कानूनों की व्याख्या हमेशा से संवेदनशील और विवादास्पद रही है। विशेष रूप से तब, जब मामला “नाबालिग पत्नी” से जुड़ा हो। हाल ही में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक ऐसे ही प्रकरण में ऐतिहासिक निर्णय देते हुए कहा कि — यदि पत्नी की आयु घटना के समय 15 वर्ष से अधिक थी, तो पति द्वारा सहमति से स्थापित यौन संबंध को “दुष्कर्म (Rape)” नहीं कहा जा सकता, बशर्ते यह घटना 2017 के Independent Thought vs Union of India निर्णय से पहले की हो।
इस फैसले ने न केवल एक पुराने मामले में न्यायिक स्पष्टता दी है, बल्कि यह भी बताया कि सुप्रीम कोर्ट के संवैधानिक व्याख्या वाले निर्णयों का प्रभाव पूर्ववर्ती मामलों (retrospective effect) पर किस प्रकार लागू किया जा सकता है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात जिले का है, जहां लगभग दो दशक पहले, यानी वर्ष 2004 में, एक व्यक्ति इस्लाम उर्फ पलटू के खिलाफ उसकी कथित नाबालिग पत्नी के साथ दुष्कर्म और अपहरण का मामला दर्ज किया गया था।
शिकायतकर्ता — जो कि पीड़िता का पिता था — ने भोगनीपुर थाने में प्राथमिकी दर्ज कराई थी कि पलटू उसकी 16 वर्षीय बेटी को बहला-फुसलाकर भगा ले गया। बाद में जब पुलिस ने आरोपी को गिरफ्तार किया, तो उसने निकाहनामा (विवाह प्रमाण) प्रस्तुत किया, जिसमें यह स्पष्ट था कि दोनों ने मुस्लिम रीति-रिवाज के अनुसार विवाह किया था और उसके बाद ही वे साथ रहने लगे।
निचली अदालत का फैसला
11 सितंबर 2007 को निचली अदालत (ट्रायल कोर्ट) ने यह मानते हुए कि लड़की उस समय नाबालिग (18 वर्ष से कम) थी, पलटू को निम्न धाराओं के तहत दोषी ठहराया —
- धारा 363 (अपहरण) – 5 वर्ष का कारावास + ₹1,000 जुर्माना
- धारा 366 (विवाह हेतु अपहरण) – 7 वर्ष का कारावास + ₹1,000 जुर्माना
- धारा 376 (दुष्कर्म) – 7 वर्ष का कारावास + ₹2,000 जुर्माना
इस तरह कुल मिलाकर आरोपी को 19 वर्ष की सजा सुनाई गई।
इलाहाबाद हाई कोर्ट में अपील
आरोपी इस्लाम उर्फ पलटू ने इस फैसले को इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी। उनका मुख्य तर्क था कि —
- घटना के समय लड़की की उम्र 16 वर्ष से अधिक थी।
- दोनों के बीच विवाह (निकाह) हुआ था और वे पति-पत्नी के रूप में रह रहे थे।
- इस स्थिति में यह संबंध “वैवाहिक सहमति” के अंतर्गत आता है, जिसे भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 375 के अपवाद 2 (Exception 2) में दुष्कर्म की परिभाषा से बाहर रखा गया है।
हाई कोर्ट का निर्णय
न्यायमूर्ति अनिल कुमार की एकल पीठ ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए आरोपी को सभी आरोपों से बरी कर दिया।
कोर्ट ने अपने विस्तृत आदेश में कहा कि —
“घटना के समय पीड़िता की उम्र 16 वर्ष से अधिक थी और दोनों के बीच विवाह हुआ था। इस स्थिति में आरोपी को भारतीय दंड संहिता की धारा 376 (दुष्कर्म) के अंतर्गत दोषी नहीं ठहराया जा सकता।”
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि सुप्रीम कोर्ट का 2017 का फैसला (Independent Thought vs Union of India), जिसमें 15 वर्ष से अधिक लेकिन 18 वर्ष से कम आयु की पत्नी के साथ यौन संबंध को भी दुष्कर्म माना गया, वह निर्णय पूर्ववर्ती (retroactive) रूप से लागू नहीं किया जा सकता।
अर्थात — 2017 से पहले हुई घटनाओं पर यह कानून लागू नहीं होगा।
सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय (2017)
साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने Independent Thought vs Union of India मामले में महत्वपूर्ण फैसला दिया था।
इससे पहले, भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 375 के अपवाद 2 के तहत यह प्रावधान था कि —
“यदि किसी पुरुष ने अपनी पत्नी (जो 15 वर्ष से अधिक आयु की है) के साथ यौन संबंध बनाया, तो वह दुष्कर्म नहीं माना जाएगा।”
लेकिन Independent Thought केस में न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर और दीपक गुप्ता की पीठ ने कहा कि —
“यह प्रावधान असंवैधानिक है, क्योंकि यह 18 वर्ष से कम उम्र की बालिकाओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। अतः 18 वर्ष से कम आयु की पत्नी के साथ यौन संबंध को दुष्कर्म माना जाएगा।”
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया था कि यह निर्णय आगे से लागू (prospective effect) होगा, यानी यह 2017 के बाद की घटनाओं पर प्रभाव डालेगा, न कि उससे पहले हुई घटनाओं पर।
हाई कोर्ट का विधिक विश्लेषण
हाई कोर्ट ने अपने निर्णय में निम्न बिंदुओं पर विशेष जोर दिया —
- घटना का समय और कानून की स्थिति:
घटना 2004 की थी, जब IPC की धारा 375 का अपवाद 2 यथावत लागू था। उस समय 15 वर्ष से अधिक आयु की पत्नी से यौन संबंध “दुष्कर्म” की परिभाषा में नहीं आता था। - सहमति और वैवाहिक संबंध:
चूंकि दोनों के बीच वैध निकाह हुआ था और वे पति-पत्नी की तरह रह रहे थे, इसलिए यह संबंध सहमति से था। - सुप्रीम कोर्ट का 2017 का निर्णय पूर्ववर्ती नहीं:
अदालत ने कहा कि 2017 के फैसले को retrospective प्रभाव नहीं दिया जा सकता, इसलिए उस आधार पर आरोपी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। - न्याय और मानवता के बीच संतुलन:
कोर्ट ने माना कि इस मामले में “कानून की आत्मा” और “मानवता के सिद्धांत” दोनों को ध्यान में रखना आवश्यक है। जब विवाह समाज द्वारा मान्य था और दोनों वयस्कता के निकट थे, तब इस संबंध को अपराध कहना न्यायसंगत नहीं होगा।
फैसले का व्यापक प्रभाव
यह निर्णय भारतीय न्याय प्रणाली में ‘रेट्रोस्पेक्टिव एप्लीकेशन ऑफ लॉ’ (Retroactive Effect of Law) की सीमाओं को एक बार फिर स्पष्ट करता है।
- यह फैसला यह भी दर्शाता है कि किसी कानून में संशोधन या सुप्रीम कोर्ट की नई व्याख्या स्वतः पुरानी घटनाओं पर लागू नहीं होती, जब तक कि अदालत स्पष्ट रूप से ऐसा न कहे।
- यह मामला वैवाहिक दुष्कर्म (Marital Rape) पर चल रही बहस को भी नई दिशा देता है, क्योंकि भारत में अब तक विवाह के भीतर यौन संबंधों को दुष्कर्म की श्रेणी में नहीं रखा गया है।
- साथ ही यह निर्णय मुस्लिम विवाहों में नाबालिग पत्नी की स्थिति पर भी न्यायिक दृष्टि से एक नया आयाम प्रस्तुत करता है।
कानूनी विश्लेषण (Legal Analysis)
| मुद्दा | कानूनी स्थिति (2004 में) | सुप्रीम कोर्ट के बाद की स्थिति (2017 के बाद) |
|---|---|---|
| नाबालिग पत्नी से संबंध (15–18 वर्ष) | दुष्कर्म नहीं (IPC 375 Exception 2) | दुष्कर्म माना जाएगा |
| निर्णय का प्रभाव | Prospective नहीं था | Prospective (केवल आगे के मामलों पर लागू) |
| पलटू केस का परिणाम | बरी | कोई अपराध नहीं ठहराया गया |
निष्कर्ष
इलाहाबाद हाई कोर्ट का यह निर्णय न केवल एक व्यक्ति के लिए न्याय का मार्ग प्रशस्त करता है, बल्कि यह भी स्पष्ट करता है कि कानून का अनुप्रयोग समय-सीमा से बंधा होता है।
यह फैसला इस सिद्धांत को दोहराता है कि —
“कानून को उसके निर्माण की तिथि से पूर्व लागू नहीं किया जा सकता, जब तक कि विधान या न्यायालय स्वयं ऐसा न कहे।”
यह मामला भारतीय न्यायपालिका की संवेदनशीलता और व्यावहारिक दृष्टिकोण का उत्कृष्ट उदाहरण है, जो यह दिखाता है कि न्याय केवल कानून के अक्षरों में नहीं, बल्कि उसके उद्देश्य और भावना में निहित है।
🧾 अंतिम टिप्पणी:
यह निर्णय एक बार फिर यह प्रश्न उठाता है कि “वैवाहिक दुष्कर्म” की परिभाषा और उसकी संवैधानिकता पर भारत को कब तक मौन रहना चाहिए। परंतु जब तक संसद या सुप्रीम कोर्ट कोई सर्वमान्य दिशा नहीं देती, तब तक इस प्रकार के पुराने मामलों में अदालतें केवल उस समय लागू कानून के आधार पर ही न्याय कर सकती हैं।