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“जेल प्रशासन की जवाबदेहीः दिल्ली हाईकोर्ट ने तिहाड़ में कथित वसूली रैकेट पर सरकार को दो-सप्ताह में इनक्वायरी अधिकारी नियुक्त करने का निर्देश”

“जेल प्रशासन की जवाबदेहीः दिल्ली हाईकोर्ट ने तिहाड़ में कथित वसूली रैकेट पर सरकार को दो-सप्ताह में इनक्वायरी अधिकारी नियुक्त करने का निर्देश”

प्रस्तावना

जब किसी उच्च-सुरक्षा जेल के भीतर जेल अधिकारियों और बंदियों के बीच कथित मिल-कर अवैध वसूली या अन्य अपराधों की जाँच का मामला सामने आता है, तो यह सिर्फ एक अपराध मामला नहीं — बल्कि रिमांड कैडर, सार्वजनिक-विश्वास, मानवाधिकार व प्रणालीगत पारदर्शिता का प्रश्न बन जाता है। ऐसी स्थिति में न केवल आपराधिक जाँच होती है, बल्कि प्रशासनिक उत्तरदायित्व, अनुशासनात्मक कार्रवाई और नियामक नियंत्रण की भूमिका भी अहम हो जाती है। प्रदेश-राजधानी दिल्ली के प्रमुख जेल-संस्थान Tihar Jail के संदर्भ में यह मामला एक चेतावनी-मोड में है — जहाँ उच्च न्यायालय ने सरकार को निर्देश दिया कि वे दो सप्ताह में Vigilance विभाग के माध्यम से एक इनक्वायरी अधिकारी नियुक्त करें और अनुशासनात्मक तथा आपराधिक दोनों प्रकार की कार्रवाई तुरंत गति से आगे बढ़ाई जाए।


पृष्ठभूमि

मामला मूलतः एक याचिका से उत्पन्न हुआ — जिसमें एक पूर्व कैदी (नाम: Mohit Kumar Goyal) ने यह दावा किया कि तिहाड़ जेल के अंदर बंदियों और कुछ जेल अधिकारियों के मद्देनजर एक संगठित वसूली-नेटवर्क (extortion racket) चल रहा था। याचिकाकर्ता ने न्यायालय से यह कहा कि जेल की टेलीफोन लाइन, मोबाइल फोन तथा अन्य संचार-माध्यम जेल के अंदर बंदियों के हाथ में पहुँच गए थे, और इसके बदले में अधिकारी-बंदियों को लाभ प्राप्त हो रहा था।

इस शिकायत की पृष्ठभूमि में, दिल्ली हाईकोर्ट ने 2024-25 में पहले एक ज्यूडिशियल निरीक्षण (judicial inspection) का आदेश दिया, जिसके अंतर्गत जेल निरीक्षण अधिकारी द्वारा रिपोर्ट प्रस्तुत की गई जिसमें “बहुत ही चिंताजनक तथ्य” पाये गए थे — जैसे कि जेल के अंदर अधिकारी-बंदियों के कॉल डेटा रीकार्ड, आधिकारिक लैंडलाइन का दुरुपयोग, आदि।

उस रिपोर्ट के बाद, हाईकोर्ट ने आदेश दिया कि Central Bureau of Investigation (CBI) द्वारा प्रारंभिक जाँच की जाए और दिल्ली सरकार को यह सुनिश्चित करना है कि जिन अधिकारियों पर संदेह है, उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाए। इसके बाद दिल्ली सरकार ने नौ (9) जेल अधिकारियों को सस्पेंड किया।

हालाँकि, याचिका के अनुसार कार्रवाई की गति बहुत धीमी पाई गई — अनुशासनात्मक कार्रवाई लटक रही थी, इनक्वायरी अधिकारी नियुक्त नहीं हुआ था, और कार्रवाई का आकलन (status) अदालत के समक्ष नहीं आया। इसको देखते हुए हाईकोर्ट ने 30 अक्टूबर 2025 को आगे निर्देश दिए।


न्यायालय का आदेश एवं प्रमुख तर्क

उत्तर-कोर्ट (Delhi High Court) की एक पीठ जिसमें चीफ जस्टिस Devendra Kumar Upadhyaya एवं जस्टिस Tushar Rao Gedela शामिल थे, ने 30 अक्टूबर 2025 को निर्देश दिया कि Vigilance विभाग (Delhi) दो सप्ताह के भीतर (within two weeks) एक इनक्वायरी अधिकारी (Inquiry Officer) नामित करे।

मुख्य तर्क इस प्रकार थे:

  • न्यायालय ने यह पाया कि पिछली सुनवाई में अगस्त 2025 को आदेश दिए जाने के बाद पर्याप्त प्रगति नहीं हुई थी। “What is this status quo? … How much time does it take for a govt to appoint an inquiry officer?” जैसे तीखे प्रश्न अदालत ने उठाए।
  • सरकार द्वारा यह आश्वासन दिया गया कि अतिरिक्त मुख्य सचिव गृह विभाग (Additional Chief Secretary (Home)) स्वयं इस मामले की निगरानी करेंगे और Vigilance विभाग को निर्देश देंगे। इस आधार पर न्यायालय ने स्पष्ट समय-सीमा निर्धारित की।
  • न्यायालय ने कहा कि “once the official is appointed, the requisite formality such as constitution of charge-sheet, its approval and conclusion shall also be undertaken within this short span of time.”
  • साथ ही, न्यायालय ने यह सुनिश्चित किया कि अनुशासनात्मक प्रक्रिया और आपराधिक जांच दोनों एक साथ चलें — अर्थात केवल सस्पेंशन पर्याप्त नहीं, बल्कि पूरी कार्रवाई होनी चाहिए।
  • अगली सुनवाई के लिए 7 जनवरी 2026 की तिथि दी गई है, और सरकार एवं CBI को अपना प्रगति-रिपोर्ट न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करनी होगी।

प्रशासनिक और कानूनी विश्लेषण

अनुशासनात्मक कार्रवाई vs आपराधिक कार्रवाई

यह मामला दो-स्तरीय कार्रवाई का है — पहला, अनुशासनात्मक कार्रवाई (disciplinary proceedings) सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ; दूसरा, आपराधिक कार्रवाई (criminal investigation) जेल के अंदर चल रहे कथित अपराध-रैकेट के संबंध में। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि दोनों को एक साथ चलाया जाना चाहिए — केवल सस्पेंशन देना काफी नहीं है।

इनक्वायरी अधिकारी नियुक्ति का महत्व

जब किसी संवेदनशील संस्थान-प्रशासन (जैसे कि जेल) में कथित भ्रष्टाचार या अपराध होता है, तो एक स्वतंत्र और सक्षम इनक्वायरी अधिकारी का नामित होना बहुत महत्वपूर्ण है। इसमें मामला तय-आधार पर आ जाता है, समय सीमाएं लगती हैं, और प्रक्रिया पारदर्शी होती है। न्यायालय ने यहाँ दो-सप्ताह की समय-सीमा निर्धारित कर यह संकेत दिया कि अब देरी बर्दाश्त नहीं होगी।

न्याय-निगरानी और जवाबदेही

यह निर्णय यह दर्शाता है कि न्यायालय सार्वजनिक संस्थाओं में जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए सक्रिय भूमिका निभा सकती है। जहाँ सरकार या प्रशासन धीमा होता है, वहाँ न्यायालय समय-सीमा और निगरानी के माध्यम से सक्रिय हस्तक्षेप कर सकता है।

जेल-प्रशासन में जोखिम-प्रबंधन

जेलें उच्च-सुरक्षा और संवेदनशील संस्थान हैं जहाँ बंदियों, अधिकारियों, प्रवर्तन एजेंसियों के बीच शक्ति-सापेक्षता (power-asymmetry) होती है। जब जेल की संचार-व्यवस्था (जैसे लैंडलाइन, मोबाइल) यदि नियंत्रण से बाहर होती है या उसमें मिसयूज होने के संकेत मिलते हैं, तो यह व्यापक सार्वजनिक-निरुद्ध गतिविधियों का स्रोत बन सकती है। वर्तमान मामले में ऐसा संकेत मिला था कि तिहाड़ की आधिकारिक लैंडलाइन का इस्तेमाल बंदियों द्वारा किया जा रहा था।


सामाजिक-न्याय और दंडात्मक प्रभाव

सार्वजनिक भरोसा और राज्य-प्रशासन

जब जेल संस्था के भीतर ही कथित वसूली या अन्य अनियमितताओं का खुलासा होता है, तो यह सिर्फ एक प्रशासन-विषय का नहीं रह जाता — यह नागरिकों के न्याय-परिकल्पना (sense of justice) और शासन-प्रक्रिया (governance) पर प्रश्न खड़ा करता है। इस निर्णय से सरकार को यह संदेश गया कि सार्वजनिक-संस्थान की जवाबदेही अनिवार्य है।

बंदियों के अधिकार और सुरक्षा

जेलों में बंदियों को सिर्फ सजा भुगतने का ही नहीं बल्कि मानवीय-स्थिति (humane conditions) में रहने का भी अधिकार है। जब जेल में अधिकारियों द्वारा कथित मिलावट या वसूली होती है, तो बंदियों के अधिकार (उदाहरण के लिए सुरक्षा, संपर्क-प्रबंधन, निगरानी-मापदंड) प्रभावित होते हैं। इसलिए इस तरह की जाँच बंदियों-हित में भी आवश्यक है।

पुँजीगत-निगरानी और सुधार-प्रेरणा

अगर इनक्वायरी तथा क्राइम-इंवेस्टिगेशन त्वरित और निष्पक्ष होगी, तो यह अन्य जेलों एवं राज्य-प्रशासनिक संस्थाओं में सुधार-प्रेरणा उत्पन्न कर सकती है — अर्थात् बेहतर संचार-निगरानी, अधिक पारदर्शिता, अधिकारियों-विभागों में जवाबदेही बढ़ सकती है।


चुनौतियाँ एवं आगे-बिंदु

  • इनक्वायरी अधिकारी की नियुक्ति सिर्फ पहला कदम है — उसके बाद चार्जशीट निर्माण, अनुशासनात्मक निर्णय, दण्डात्मक कार्रवाई आदि को समय-सीमा के भीतर पूरा करना प्रशासन के लिए चुनौती होगी।
  • जेल प्रशासन में सख्त नियंत्रण और निगरानी व्यवस्था बनाना आसान नहीं — यहाँ बंदियों, अधिकारियों, एनजीओ, मानवाधिकार संस्थाओं और न्यायालयों की जटिल भूमिका होती है।
  • आपराधिक जाँच (CBI या अन्य एजेंसी द्वारा) और प्रशासनिक इनक्वायरी के बीच समन्वय सुनिश्चित करना आवश्यक है ताकि एक कार्यवाही दूसरी को बाधित न करे।
  • बड़े स्तर पर सुधार-प्रक्रिया तभी सफल होगी जब जेल-प्रशासन-संविधानों (प्रणाली), तकनीकी-निगरानी (जैसे सीसीटीवी, कॉल लॉग), और मानव-संसाधन (training, oversight) को बेहतर बनाया जाए।
  • समय-सीमा निर्धारित करना साकार है, लेकिन उसके बाद निष्पादन-प्रोजेक्ट को टिकाऊ बनाना एक महत्वपूर्ण चुनौती है — सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि आदेश सिर्फ कागज पर न रह जाए।

निष्कर्ष

इस प्रकार, दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा तिहाड़ जेल के भीतर कथित वसूली-रैकेट के संदर्भ में दिए गए दो-सप्ताह में इनक्वायरी अधिकारी नियुक्त करने के निर्देश एक महत्वपूर्ण न्याय-संकेत हैं। उन्होंने स्पष्ट किया है कि संवेदनशील प्रशासनिक-संस्थान में देरी, लापरवाही या सतही कार्रवाई स्वीकार्य नहीं है। जेल-प्रशासन में जवाबदेही, पारदर्शिता और तेजी से कार्रवाई का तंत्र बनना अनिवार्य है — न कि सिर्फ लिपिकीय शोषण या प्रतीक्षा-मोड में रहना।

यदि सरकार, विलेंजेंस विभाग, सीबीआई तथा जेल प्रशासन समय-बद्ध एवं निष्पक्ष कार्रवाई करें, तो यह सिर्फ इस मामले का समाधान नहीं होगा बल्कि भारतीय जेल-प्रशासन में सुधार-दृष्टि से एक मॉडल-निर्मित उदाहरण बन सकता है। वहीं, अगर आदेश की निवृत्ति या समय-सीमा का उल्लंघन हुआ — तो यह न्याय-विलक्षण यानी justice-denial के प्रतीक बन सकता है।