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📝 “मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 को बनाने की आवश्यकता: भारतीय न्याय प्रणाली में वैकल्पिक विवाद समाधान की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम”

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📝 “मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 को बनाने की आवश्यकता: भारतीय न्याय प्रणाली में वैकल्पिक विवाद समाधान की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम”


🔹 प्रस्तावना

भारतीय न्याय प्रणाली में वर्षों से लंबित मुकदमों की बढ़ती संख्या, न्याय की धीमी प्रक्रिया और अदालती खर्चों की अधिकता ने एक ऐसे वैकल्पिक तंत्र की आवश्यकता को जन्म दिया, जो न केवल न्याय तक शीघ्र पहुंच सुनिश्चित करे, बल्कि विवादों को आपसी सहमति से सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझाए। इसी उद्देश्य से “मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996” (Arbitration and Conciliation Act, 1996) को अस्तित्व में लाया गया।

यह अधिनियम भारत में वैकल्पिक विवाद समाधान (Alternative Dispute Resolution – ADR) की दिशा में एक ऐतिहासिक पहल रहा है, जो न केवल घरेलू बल्कि अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक विवादों के समाधान को भी सरल, शीघ्र और प्रभावी बनाने के लिए बनाया गया।


🔸 भारत में इस अधिनियम को बनाने की आवश्यकता क्यों थी?

✅ 1. लंबित मुकदमों की भीड़ (Judicial Backlog)

  • भारत की अदालतें दशकों से मुकदमों के बोझ से जूझ रही हैं।
  • वर्षों तक न्याय न मिल पाना आम समस्या बन गई थी।
  • लाखों मामलों के लंबित रहने से आम नागरिकों और व्यवसायों का विश्वास न्याय प्रणाली से डगमगाने लगा था।

✅ 2. जटिल और महंगी अदालती प्रक्रिया

  • न्यायालयों में दीवानी मुकदमों की प्रक्रिया अत्यंत तकनीकी, पेचीदा और समय लेने वाली थी।
  • वादों की सुनवाई में वर्षों लग जाते थे और वकीलों की फीस व अदालती खर्च आम आदमी की पहुँच से बाहर हो जाता था।

✅ 3. विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए निवेश-हितैषी वातावरण

  • भारत को वैश्विक निवेश के लिए आकर्षक बनाना था।
  • विदेशी निवेशक एक त्वरित और निष्पक्ष विवाद समाधान प्रणाली चाहते थे।
  • अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप कानून की आवश्यकता थी।

✅ 4. पुराने मध्यस्थता कानूनों की अप्रचलनता

  • अधिनियम 1996 से पहले भारत में 1940 का पुराना Arbitration Act लागू था।
  • यह अधिनियम न तो आधुनिक आवश्यकताओं को पूरा करता था और न ही अंतरराष्ट्रीय वाणिज्य के अनुरूप था।
  • इससे न्याय में अनावश्यक विलंब और अपीलों की अधिकता होती थी।

✅ 5. UNCITRAL Model Law के अनुरूप व्यवस्था की आवश्यकता

  • संयुक्त राष्ट्र द्वारा 1985 में तैयार UNCITRAL Model Law on International Commercial Arbitration एक अंतरराष्ट्रीय मानक था।
  • भारत ने इसे अपनाते हुए 1996 का अधिनियम बनाया ताकि अंतरराष्ट्रीय विवादों का समाधान वैश्विक स्तर पर स्वीकृत ढंग से किया जा सके।

🔹 अधिनियम 1996 के प्रमुख उद्देश्य

  1. तेजी से और कम खर्च में विवादों का समाधान।
  2. न्यायालयों पर बोझ को कम करना।
  3. पारस्परिक सहमति पर आधारित समाधान को बढ़ावा देना।
  4. विदेशी मध्यस्थता निर्णयों को मान्यता और प्रवर्तन प्रदान करना।
  5. व्यवसायिक विवादों को अदालत के बाहर सौहार्दपूर्ण ढंग से हल करना।

🔸 अधिनियम के अंतर्गत प्रमुख प्रावधान

  • भाग I: घरेलू मध्यस्थता
  • भाग II: विदेशी मध्यस्थता निर्णयों का प्रवर्तन
  • भाग III: सुलह (Conciliation)
  • भाग IV: अन्य पूरक प्रावधान

🔹 मध्यस्थता और सुलह की प्रक्रिया के लाभ

लाभ विवरण
🔹 समयबद्ध वर्षों की अदालती प्रक्रिया के स्थान पर कुछ महीनों में निपटारा
🔹 कम खर्चीला वकीलों की भारी फीस और कोर्ट फीस की तुलना में कम
🔹 गोपनीयता प्रक्रिया निजी रहती है, जिससे व्यावसायिक प्रतिष्ठा बची रहती है
🔹 लचीलापन पक्षकार अपनी सहूलियत के अनुसार मध्यस्थ चुन सकते हैं
🔹 पारस्परिक संतोष समाधान आम सहमति से होता है, जिससे विवाद दोबारा नहीं उठता

🔸 व्यवसायिक और अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण से महत्व

  • अधिनियम ने भारत को व्यवसायिक रूप से अधिक अनुकूल और निवेश-हितैषी वातावरण प्रदान किया।
  • International Arbitration Centres की स्थापना को बढ़ावा मिला, जैसे कि मुंबई और दिल्ली में।
  • कई बड़े कॉर्पोरेट विवाद अब अदालत की बजाय मध्यस्थता के ज़रिए हल किए जा रहे हैं।

निष्कर्ष

“मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996” भारत में न्याय वितरण प्रणाली का एक सुधारात्मक और दूरदर्शी कदम था। यह न केवल एक कानूनी अधिनियम है, बल्कि एक ऐसा उपकरण भी है जो जनता को उनके विवादों का शीघ्र, किफायती और प्रभावी समाधान प्रदान करता है। न्याय को पहुँच योग्य बनाना और न्यायालयों को बोझमुक्त करना आज के भारत की प्राथमिक आवश्यकता है, और यह अधिनियम उसी दिशा में एक ठोस नींव है।