🌎 पर्यावरण संरक्षण : भारतीय परिप्रेक्ष्य और वैश्विक प्रयास
प्रस्तावना
मानव सभ्यता का अस्तित्व और उसकी निरंतरता पर्यावरण पर आधारित है। पर्यावरण में वायु, जल, भूमि, वन, पशु-पक्षी, खनिज और अन्य प्राकृतिक संसाधन शामिल हैं। ये सभी तत्व न केवल मानव जीवन को संभव बनाते हैं, बल्कि जीवन की गुणवत्ता भी निर्धारित करते हैं। किंतु औद्योगिकीकरण, नगरीकरण, तकनीकी विकास और अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि ने पर्यावरण पर गंभीर दबाव डाला है। जलवायु परिवर्तन, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण तथा वनों की कटाई जैसी समस्याएँ मानव अस्तित्व के लिए चुनौती बन चुकी हैं। ऐसे परिप्रेक्ष्य में पर्यावरण संरक्षण (Environmental Protection) का महत्व अत्यधिक बढ़ गया है।
पर्यावरण संरक्षण की परिभाषा और महत्व
पर्यावरण संरक्षण का अर्थ है – प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण और संतुलित उपयोग करते हुए प्रदूषण, अपशिष्ट और क्षरण को रोकना तथा भावी पीढ़ियों के लिए एक सुरक्षित एवं स्वस्थ पर्यावरण उपलब्ध कराना।
इसका महत्व कई स्तरों पर समझा जा सकता है –
- जीवन की सुरक्षा – शुद्ध वायु और जल के बिना जीवन असंभव है।
- आर्थिक दृष्टि – कृषि, उद्योग, मत्स्य पालन, पर्यटन आदि सभी क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित हैं।
- स्वास्थ्य संरक्षण – प्रदूषित वातावरण अनेक बीमारियों का कारण बनता है।
- जलवायु संतुलन – पारिस्थितिकी संतुलन बिगड़ने से सूखा, बाढ़, तूफान जैसी आपदाएँ बढ़ती हैं।
- सतत विकास – वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए भविष्य की पीढ़ी के हित सुरक्षित करना।
भारतीय संविधान में पर्यावरण संरक्षण
भारत का संविधान पर्यावरण संरक्षण को अत्यंत महत्व देता है।
- अनुच्छेद 48A – राज्य का कर्तव्य है कि वह पर्यावरण, वन एवं वन्य जीवों की रक्षा और सुधार करे।
- अनुच्छेद 51A(g) – प्रत्येक नागरिक का मौलिक कर्तव्य है कि वह प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा करे और करुणा के साथ जीवित प्राणियों के साथ व्यवहार करे।
- अनुच्छेद 21 – जीवन के अधिकार में अब “स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण” को भी शामिल माना गया है। सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में इसे मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी है।
भारत के प्रमुख पर्यावरणीय कानून
- पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 – स्टॉकहोम सम्मेलन (1972) के बाद बना। यह पर्यावरण संरक्षण के लिए व्यापक अधिनियम है।
- जल अधिनियम, 1974 – जल प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण के लिए।
- वायु अधिनियम, 1981 – वायु प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण।
- वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 – जैव विविधता और वन्य प्राणियों की रक्षा हेतु।
- वन संरक्षण अधिनियम, 1980 – वनों की अंधाधुंध कटाई पर रोक।
- राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम, 2010 – पर्यावरणीय विवादों के त्वरित निपटारे के लिए NGT की स्थापना।
न्यायपालिका की भूमिका
भारतीय न्यायपालिका ने पर्यावरण संरक्षण में सक्रिय और रचनात्मक भूमिका निभाई है। सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों ने कई महत्वपूर्ण निर्णय दिए –
- M.C. Mehta v. Union of India (गंगा प्रदूषण मामला, 1986) – गंगा नदी प्रदूषण कम करने के लिए उद्योगों को दिशा-निर्देश।
- Subhash Kumar v. State of Bihar (1991) – स्वच्छ जल पीने का अधिकार अनुच्छेद 21 के अंतर्गत मौलिक अधिकार है।
- Vellore Citizens’ Welfare Forum v. Union of India (1996) – Precautionary Principle और Polluter Pays Principle को कानून का हिस्सा माना।
- Indian Council for Enviro-Legal Action v. Union of India (1996) – प्रदूषण करने वाले उद्योगों को क्षतिपूर्ति देने का आदेश।
- T.N. Godavarman v. Union of India (1997) – वनों की सुरक्षा को लेकर ऐतिहासिक निर्णय।
पर्यावरणीय सिद्धांत
भारतीय पर्यावरण न्यायशास्त्र ने कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांत विकसित किए –
- सतत विकास का सिद्धांत – विकास और पर्यावरण संरक्षण में संतुलन।
- प्रदूषक भुगतान सिद्धांत (Polluter Pays Principle) – प्रदूषण करने वाला व्यक्ति/कंपनी नुकसान की भरपाई करेगा।
- एहतियाती सिद्धांत (Precautionary Principle) – जहाँ पर्यावरणीय हानि की संभावना हो, वहाँ पहले से रोकथाम की जाए।
- सार्वजनिक न्यास सिद्धांत (Public Trust Doctrine) – प्राकृतिक संसाधन राज्य की निजी संपत्ति नहीं, बल्कि जनता की धरोहर हैं।
अंतरराष्ट्रीय प्रयास और भारत की भूमिका
पर्यावरण संरक्षण केवल राष्ट्रीय ही नहीं, बल्कि वैश्विक चुनौती है। प्रमुख अंतरराष्ट्रीय समझौते –
- स्टॉकहोम सम्मेलन (1972) – पर्यावरण को अंतरराष्ट्रीय एजेंडे पर लाया गया।
- रियो सम्मेलन (1992) – सतत विकास पर बल दिया गया।
- क्योटो प्रोटोकॉल (1997) – ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी।
- पेरिस समझौता (2015) – जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध सामूहिक वैश्विक प्रयास।
भारत इन सम्मेलनों में सक्रिय भागीदारी करता रहा है और नवीकरणीय ऊर्जा (सौर एवं पवन ऊर्जा), वनरोपण अभियान और अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन जैसी पहलों में अग्रणी भूमिका निभा रहा है।
वर्तमान चुनौतियाँ
- जनसंख्या वृद्धि – संसाधनों पर अत्यधिक दबाव।
- औद्योगिक और प्लास्टिक प्रदूषण – भूमि, जल और वायु को दूषित कर रहे हैं।
- कानूनों का कमजोर क्रियान्वयन – सख्ती की कमी।
- जलवायु परिवर्तन – वैश्विक ऊष्मीकरण और असामान्य मौसम।
- नवीन ऊर्जा की कमी – जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता।
समाधान और आगे की दिशा
- कड़े कानूनों का प्रभावी क्रियान्वयन।
- सार्वजनिक सहभागिता – नागरिकों को भी पर्यावरण संरक्षण में सक्रिय बनाना।
- सतत विकास मॉडल – उद्योग और कृषि में पर्यावरण-अनुकूल तकनीक।
- नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग – सौर, पवन और जल ऊर्जा को बढ़ावा।
- जनजागरूकता अभियान – शिक्षा और मीडिया के माध्यम से।
निष्कर्ष
पर्यावरण संरक्षण केवल कानूनी या सरकारी प्रयासों तक सीमित नहीं रह सकता। यह प्रत्येक नागरिक की जिम्मेदारी है। संविधान ने इसे मौलिक कर्तव्य घोषित कर दिया है। यदि हम पर्यावरणीय सिद्धांतों का पालन करें और प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग करें, तो ही हम आने वाली पीढ़ियों को स्वस्थ, सुरक्षित और समृद्ध वातावरण दे पाएँगे।
इसलिए आज की आवश्यकता है कि “विकास और पर्यावरण” के बीच संतुलन बनाया जाए। यही सतत विकास और मानवीय अस्तित्व की गारंटी है।
1. पर्यावरण संरक्षण का अर्थ क्या है?
पर्यावरण संरक्षण का अर्थ है प्राकृतिक संसाधनों जैसे वायु, जल, भूमि, वन एवं जैव विविधता की रक्षा करना और प्रदूषण, क्षरण एवं असंतुलन को रोकना। यह केवल प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा ही नहीं, बल्कि भावी पीढ़ियों के लिए जीवनोपयोगी वातावरण उपलब्ध कराना भी है। आज औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और जनसंख्या वृद्धि के कारण पर्यावरण पर भारी दबाव है। वायु और जल प्रदूषण, प्लास्टिक कचरा, वनों की कटाई और ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याएँ मानव जीवन को प्रभावित कर रही हैं। इसीलिए पर्यावरण संरक्षण केवल एक नीतिगत प्रश्न नहीं, बल्कि मानव अस्तित्व का प्रश्न बन चुका है।
2. भारतीय संविधान में पर्यावरण संरक्षण के प्रावधान बताइए।
भारतीय संविधान ने पर्यावरण संरक्षण को महत्व देते हुए कई प्रावधान किए हैं। अनुच्छेद 48A राज्य पर यह कर्तव्य डालता है कि वह पर्यावरण, वन और वन्यजीवों की रक्षा और सुधार करे। अनुच्छेद 51A(g) प्रत्येक नागरिक का मौलिक कर्तव्य बनाता है कि वह प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षण करे और जीवित प्राणियों के प्रति करुणा रखे। अनुच्छेद 21, जो जीवन के अधिकार की गारंटी देता है, को सुप्रीम कोर्ट ने व्यापक व्याख्या देते हुए “स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण का अधिकार” भी इसमें शामिल माना है। इस प्रकार संविधान ने पर्यावरण संरक्षण को राज्य और नागरिक दोनों की संयुक्त जिम्मेदारी बनाया है।
3. पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 का महत्व क्या है?
पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 भारत का एक व्यापक कानून है, जिसे 1972 के स्टॉकहोम सम्मेलन के बाद पारित किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य पर्यावरण की गुणवत्ता बनाए रखना और प्रदूषण को रोकना है। यह अधिनियम केंद्र सरकार को व्यापक शक्तियाँ देता है, जैसे पर्यावरण मानक तय करना, उद्योगों पर नियंत्रण रखना, खतरनाक अपशिष्ट पदार्थों के निस्तारण के नियम बनाना तथा आपात स्थिति में सीधे कदम उठाना। इस कानून के अंतर्गत पर्यावरणीय अपराध करने वालों पर दंडात्मक कार्रवाई की जा सकती है। यह अधिनियम “अम्ब्रेला लॉ” कहलाता है क्योंकि इसके अंतर्गत विभिन्न पर्यावरणीय मुद्दों को कवर किया गया है।
4. जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1974 के प्रमुख प्रावधान बताइए।
जल अधिनियम, 1974 भारत में जल प्रदूषण रोकने के उद्देश्य से बनाया गया। इसके तहत केंद्रीय और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की स्थापना की गई, जिन्हें जल प्रदूषण को नियंत्रित करने और जल गुणवत्ता की निगरानी का कार्य सौंपा गया। अधिनियम उद्योगों और कारखानों को यह निर्देश देता है कि वे बिना अनुमति किसी भी जल स्रोत में अपशिष्ट पदार्थ न डालें। यह अधिनियम जल प्रदूषण करने वाले व्यक्तियों या संस्थाओं पर जुर्माना और कारावास दोनों का प्रावधान करता है। इस कानून ने भारत में जल स्रोतों की सुरक्षा और औद्योगिक अपशिष्टों के प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
5. वायु (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 की विशेषताएँ बताइए।
वायु अधिनियम, 1981 का मुख्य उद्देश्य वायु प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण है। इसके तहत वायु गुणवत्ता मानकों को निर्धारित करने और प्रदूषणकारी गतिविधियों पर रोक लगाने का प्रावधान किया गया है। अधिनियम के अंतर्गत केंद्रीय और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को अधिकार प्राप्त हैं कि वे प्रदूषणकारी उद्योगों पर निगरानी रखें और उन्हें दिशा-निर्देश जारी करें। यह अधिनियम विशेष रूप से उन उद्योगों पर सख्ती करता है जो हानिकारक गैसें उत्सर्जित करते हैं। इसमें प्रदूषण फैलाने वाले पर दंड और आर्थिक दायित्व का प्रावधान भी किया गया है। यह कानून स्वच्छ वायु को मानव अधिकार मानते हुए लागू किया गया था।
6. वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 का उद्देश्य समझाइए।
वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 का उद्देश्य भारत में जैव विविधता और वन्य प्राणियों की रक्षा करना है। यह अधिनियम विभिन्न श्रेणियों में वन्यजीवों को सूचीबद्ध करता है और उनके शिकार, व्यापार और अवैध शोषण पर रोक लगाता है। इसके अंतर्गत राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य और संरक्षित क्षेत्र घोषित किए जाते हैं। यह कानून न केवल वन्यजीवों बल्कि उनके प्राकृतिक आवास को भी संरक्षित करता है। 2002 और 2006 में संशोधन करके इसमें और अधिक कड़े प्रावधान जोड़े गए। इस कानून ने बाघ, हाथी और गेंडे जैसे दुर्लभ प्रजातियों को संरक्षण देने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
7. सतत विकास (Sustainable Development) क्या है?
सतत विकास का अर्थ है—ऐसा विकास जिसमें वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति इस प्रकार की जाए कि भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताएँ प्रभावित न हों। यह अवधारणा 1987 की ब्रंटलैंड रिपोर्ट से लोकप्रिय हुई। सतत विकास के तीन मुख्य स्तंभ हैं—आर्थिक विकास, सामाजिक न्याय और पर्यावरण संरक्षण। इसका उद्देश्य विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन स्थापित करना है। भारत में न्यायपालिका ने सतत विकास को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का हिस्सा माना है। वेल्लोर सिटिज़न्स केस (1996) में सुप्रीम कोर्ट ने सतत विकास को भारत के पर्यावरण कानून का मूलभूत सिद्धांत घोषित किया।
8. प्रदूषक भुगतान सिद्धांत (Polluter Pays Principle) समझाइए।
प्रदूषक भुगतान सिद्धांत का अर्थ है कि जो व्यक्ति या उद्योग प्रदूषण करता है, उसे उसके कारण हुई क्षति की भरपाई करनी होगी। यह सिद्धांत “प्रदूषण करने वाला खर्च उठाएगा” के सिद्धांत पर आधारित है। भारत में इस सिद्धांत को वेल्लोर सिटिज़न्स वेलफेयर फोरम केस (1996) और इंडियन काउंसिल फॉर एनवायरो-लीगल एक्शन केस (1996) में मान्यता मिली। इस सिद्धांत का उद्देश्य यह है कि प्रदूषण का बोझ समाज पर न पड़े, बल्कि प्रदूषण करने वाले पर डाला जाए। इससे उद्योगों को प्रदूषण रोकने के लिए प्रेरणा मिलती है और पर्यावरण संरक्षण में मदद मिलती है।
9. एहतियाती सिद्धांत (Precautionary Principle) क्या है?
एहतियाती सिद्धांत का अर्थ है—यदि किसी क्रिया या परियोजना से पर्यावरण को गंभीर हानि होने की संभावना हो, तो वैज्ञानिक प्रमाणों के पूर्ण अभाव में भी रोकथाम के कदम उठाने चाहिए। यह सिद्धांत पर्यावरण संरक्षण के लिए “पहले से सावधानी बरतने” पर बल देता है। भारत में सुप्रीम कोर्ट ने वेल्लोर सिटिज़न्स केस (1996) में इस सिद्धांत को स्वीकार किया। यह सिद्धांत नीति निर्माताओं और न्यायपालिका को यह संदेश देता है कि पर्यावरणीय जोखिमों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसका लक्ष्य है—निवारण बेहतर है उपचार से।
10. सार्वजनिक न्यास सिद्धांत (Public Trust Doctrine) पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
सार्वजनिक न्यास सिद्धांत के अनुसार प्राकृतिक संसाधन जैसे वायु, जल, वन, समुद्र आदि जनता की धरोहर हैं और राज्य इनका केवल संरक्षक है, मालिक नहीं। इस सिद्धांत के तहत राज्य का कर्तव्य है कि वह इन संसाधनों का दुरुपयोग या निजीकरण न होने दे। भारत में यह सिद्धांत M.C. Mehta v. Kamal Nath (1997) केस में सुप्रीम कोर्ट ने लागू किया। इसमें कहा गया कि सरकार नदियों और पर्यावरणीय संसाधनों को किसी निजी उद्देश्य के लिए नहीं बेच सकती। यह सिद्धांत पर्यावरण न्यायशास्त्र की रीढ़ है और प्राकृतिक संसाधनों को जनता के अधिकार में बनाए रखने का आधार है।