⚖ “नामांकन के समय बार काउंसिल ‘वैकल्पिक शुल्क’ नहीं वसूल सकती” – सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय
भारत के कानूनी पेशे में प्रवेश करने के लिए अधिवक्ताओं का नामांकन (Enrolment) राज्य बार काउंसिल के माध्यम से किया जाता है। लेकिन लंबे समय से यह विवाद था कि नामांकन शुल्क के अलावा राज्य बार काउंसिल और बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) द्वारा विभिन्न नामों से अतिरिक्त शुल्क — जिसे कई बार “वैकल्पिक शुल्क” (Optional Fee) या “अनुदान शुल्क” कहा जाता है — लिया जाता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर सख्त रुख अपनाते हुए स्पष्ट किया है कि नामांकन प्रक्रिया के दौरान किसी भी प्रकार का “वैकल्पिक शुल्क” कानूनन वसूल नहीं किया जा सकता।
1. पृष्ठभूमि
- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 (Advocates Act, 1961) के तहत अधिवक्ताओं का पंजीकरण और नामांकन की प्रक्रिया तय है।
- अधिवक्ता बनने के लिए आवेदक को आवश्यक नामांकन शुल्क (Enrolment Fee) देना होता है, जो कि अधिनियम और संबंधित नियमों के अनुसार निश्चित है।
- कई राज्य बार काउंसिल, नामांकन के समय “वैकल्पिक शुल्क” या “स्वेच्छा से दिए जाने वाले योगदान” के नाम पर अतिरिक्त राशि लेते थे।
- इसे कई आवेदकों ने न्यायालय में चुनौती दी, यह कहते हुए कि यह कानून के विपरीत और दबाव में वसूली है।
2. याचिका का मुख्य आधार
याचिकाकर्ताओं का तर्क था:
- अधिवक्ता अधिनियम में केवल निर्धारित नामांकन शुल्क का प्रावधान है, जो राज्य बार काउंसिल और बार काउंसिल ऑफ इंडिया को मिलता है।
- कोई भी अतिरिक्त शुल्क — चाहे उसे “वैकल्पिक” या “स्वेच्छा” कहा जाए — वास्तव में अनिवार्य माहौल में लिया जाता है, और यह कानून का उल्लंघन है।
- आवेदकों के पास इस “वैकल्पिक शुल्क” को अस्वीकार करने का वास्तविक अवसर नहीं होता, क्योंकि बिना भुगतान किए नामांकन प्रक्रिया में बाधा डाली जाती है।
3. सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा:
- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 24(1)(f) के तहत केवल वही शुल्क लिया जा सकता है जो अधिनियम और नियमों में स्पष्ट रूप से निर्धारित है।
- “वैकल्पिक शुल्क” वसूलना अवैध है, भले ही उसे स्वेच्छा से भुगतान कहा जाए, क्योंकि नामांकन प्रक्रिया के समय आवेदक पर दबाव होता है।
- नामांकन की शर्तें केवल अधिनियम और नियमों द्वारा तय की जा सकती हैं; कोई अतिरिक्त आर्थिक भार नहीं डाला जा सकता।
- अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि बार काउंसिल किसी कल्याण निधि या अनुदान योजना के लिए राशि तभी ले सकती है जब वह कानून में स्पष्ट रूप से अनुमत हो और आवेदक की स्वतंत्र सहमति से हो — नामांकन की शर्त के रूप में नहीं।
4. महत्वपूर्ण कानूनी आधार
- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 – धारा 24: नामांकन की योग्यता और शुल्क का प्रावधान।
- धारा 49: बार काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा बनाए गए नियमों की सीमा — इनसे परे कोई शुल्क वसूलना कानून के खिलाफ है।
- सुप्रीम कोर्ट का सिद्धांत: “जो कार्य कानून में निर्धारित नहीं है, उसे करने का अधिकार किसी संस्था को नहीं है”।
5. प्रभाव और परिणाम
- अब कोई भी राज्य बार काउंसिल या BCI नामांकन के समय “वैकल्पिक शुल्क” के नाम पर कोई राशि नहीं ले सकती।
- आवेदक केवल वही शुल्क देंगे जो अधिनियम और नियमों में तय है।
- यदि कोई बार काउंसिल यह अतिरिक्त शुल्क वसूलने का प्रयास करती है, तो यह अवैध वसूली मानी जाएगी और आवेदक न्यायालय में चुनौती दे सकते हैं।
- यह निर्णय नए अधिवक्ताओं पर आर्थिक बोझ कम करेगा और नामांकन प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी और न्यायसंगत बनाएगा।
6. सुप्रीम कोर्ट के कुछ प्रमुख अवलोकन
- “स्वेच्छा से” शब्द का उपयोग करके किसी अनिवार्य भुगतान को वैध नहीं ठहराया जा सकता।
- नामांकन प्रक्रिया में किसी भी प्रकार की आर्थिक बाधा डालना अधिवक्ता अधिनियम और संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ है।
- राज्य बार काउंसिल और BCI को अपने कार्यों के लिए निधि जुटाने के अन्य कानूनी और स्वैच्छिक साधन अपनाने चाहिए।
7. निष्कर्ष
यह फैसला अधिवक्ता पेशे में प्रवेश करने वाले नए वकीलों के लिए एक बड़ी राहत है। सुप्रीम कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया कि पेशे में प्रवेश सिर्फ योग्यता और कानूनी प्रक्रिया पर आधारित होगा, न कि किसी अतिरिक्त वित्तीय बोझ पर। यह निर्णय न केवल अधिवक्ता अधिनियम की भावना को मजबूत करता है, बल्कि न्यायपालिका की पारदर्शिता और निष्पक्षता के सिद्धांत को भी सुदृढ़ करता है।