लेख शीर्षक: ₹20,000 से अधिक की नकद लेनदेन और विधिसम्मत ऋण: केरल उच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय
परिचय
भारतीय विधिक व्यवस्था में धारा 138 और 139, परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881) और आयकर अधिनियम, 1961 (Income Tax Act, 1961) की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है, विशेषकर चेक अनादृत (cheque dishonour) से संबंधित मामलों में। केरल उच्च न्यायालय का ताजा निर्णय (LAWS(KER)-2025-7-34) एक अभूतपूर्व दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, जिसमें न्यायालय ने ₹20,000 से अधिक की नकद लेनदेन के संदर्भ में विधिसम्मत ऋण (legally enforceable debt) की वैधता को सीमित कर दिया है।
मुख्य निर्णय का सारांश
इस निर्णय में, केरल उच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि यदि कोई ऋण ₹20,000 से अधिक की नकद लेनदेन के माध्यम से बना है, और यह लेनदेन आयकर अधिनियम की धारा 269SS का उल्लंघन करता है, तो वह ऋण तब तक विधिसम्मत नहीं माना जाएगा, जब तक कि लेनदेनकर्ता उस नकद भुगतान के लिए उचित स्पष्टीकरण प्रस्तुत न करे।
धारा 138 एवं 139 का प्रासंगिक विश्लेषण
- धारा 138 के अंतर्गत चेक अनादृत होने पर दंडात्मक प्रावधान है, बशर्ते कि चेक विधिसम्मत ऋण या देनदारी के भुगतान के उद्देश्य से जारी किया गया हो।
- धारा 139 के अनुसार, यह अनुमान लगाया जाता है कि चेक किसी विधिसम्मत ऋण या देनदारी को चुकाने के लिए जारी किया गया है। लेकिन यह अनुमान अविनाशी नहीं है, और इसे प्रतिवादी द्वारा प्रमाणों की प्रबलता (preponderance of probabilities) के आधार पर खंडित किया जा सकता है।
नकद लेनदेन और आयकर अधिनियम का प्रभाव
- आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 269SS यह कहती है कि कोई व्यक्ति ₹20,000 से अधिक की राशि नकद में उधार नहीं दे सकता या ले नहीं सकता।
- उच्च न्यायालय ने इस निर्णय में माना कि इस विधि का उल्लंघन करने वाले लेनदेन स्वयं में “अवैध” माने जाएंगे, और इनसे उत्पन्न ऋण को ‘legally enforceable debt’ नहीं माना जा सकता।
- यदि इस प्रकार का लेनदेन चेक द्वारा चुकाया गया हो, और वह चेक अनादृत हो जाए, तो धारा 138 के अंतर्गत अभियोजन केवल तभी संभव होगा, जब नकद लेनदेन की वैधता स्पष्ट रूप से स्थापित की जाए।
प्रभाव और अनुप्रयोग की सीमाएं
- यह निर्णय भविष्य की कार्यवाहियों (prospectively) पर लागू होगा।
- जो मामले पहले ही निर्णीत हो चुके हैं, उनमें यह निर्णय प्रभावी नहीं होगा, जब तक कि विशेष रूप से यह मुद्दा न उठाया गया हो।
- यह दृष्टिकोण डिजिटल भुगतान को बढ़ावा देने और काले धन तथा अनधिकृत नकद लेनदेन को रोकने की दिशा में न्यायपालिका का एक ठोस कदम है।
विचार योग्य बिंदु
- उपभोक्ताओं और उधारदाताओं को अब अत्यधिक सतर्कता बरतनी होगी कि ऋण नकद में न दें, विशेषकर जब वह ₹20,000 से अधिक हो।
- यह निर्णय न्यायालयों को दिशानिर्देश प्रदान करता है कि कैसे ऐसे मामलों में “legally enforceable debt” की वैधता की जांच की जाए।
- अभियुक्त पक्ष (accused) को अब यह सुनहरा अवसर मिलेगा कि वे धारा 139 के तहत दी गई विधिसम्मत ऋण की धारणा को प्रबल साक्ष्यों के माध्यम से खंडित करें।
निष्कर्ष
केरल उच्च न्यायालय का यह निर्णय चेक अनादृत मामलों में विधि की व्याख्या में एक मील का पत्थर है। यह न केवल परक्राम्य लिखत अधिनियम की सीमाओं को स्पष्ट करता है, बल्कि आयकर अधिनियम की अनदेखी को भी दंडात्मक दायरे में लाता है। इस फैसले से यह संदेश स्पष्ट हो जाता है कि न्यायपालिका नकद आधारित अवैध लेनदेन को विधिसम्मत बनाने की किसी भी कोशिश को न्यायिक स्वीकृति नहीं देगी। साथ ही, यह निर्णय डिजिटल भारत की संकल्पना को भी मजबूती प्रदान करता है।