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हिन्दू विधि के अंतर्गत दत्तक ग्रहण की अवधारणा : एक विस्तृत अध्ययन

हिन्दू विधि के अंतर्गत दत्तक ग्रहण की अवधारणा : एक विस्तृत अध्ययन

प्रस्तावना

भारतीय समाज में परिवार और वंश परंपरा का विशेष महत्व रहा है। हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार पुत्र को वंश को आगे बढ़ाने और मृत पूर्वजों के श्राद्ध-कर्म आदि धार्मिक कर्तव्यों के निर्वहन के लिए आवश्यक माना गया। यदि किसी दंपति को संतान सुख प्राप्त न हो पाए, तो वे दत्तक ग्रहण (Adoption) के माध्यम से इस कमी को पूरा करते हैं। दत्तक ग्रहण केवल पारिवारिक या भावनात्मक कारणों से नहीं, बल्कि धार्मिक और सामाजिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण संस्था रही है।

आधुनिक समय में, जब समाज में अनेक बदलाव आए, तब दत्तक ग्रहण की परंपरागत अवधारणा को नया रूप दिया गया। इसी उद्देश्य से हिन्दू दत्तक एवं भरण-पोषण अधिनियम, 1956 (Hindu Adoptions and Maintenance Act, 1956) लागू किया गया। इसने प्राचीन दत्तक प्रणाली को संहिताबद्ध कर उसे न्यायसंगत, आधुनिक और समानता पर आधारित बनाया।

इस लेख में हम हिन्दू विधि में दत्तक ग्रहण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, कानूनी स्वरूप, आवश्यक शर्तें, अधिकार और कर्तव्य, न्यायालयीन व्याख्याएँ तथा वर्तमान समय में इसकी प्रासंगिकता का विस्तृत अध्ययन करेंगे।


दत्तक ग्रहण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

वेदों और धर्मशास्त्रों में दत्तक ग्रहण की परंपरा का उल्लेख मिलता है। मनुस्मृति, दत्तक मीमांसा और दत्तक चंद्रिका जैसे ग्रंथों में पुत्र को दत्तक लेने की आवश्यकताओं का विस्तार से वर्णन किया गया है।

  • प्राचीन काल में दत्तक का प्रमुख उद्देश्य धार्मिक था। यह माना जाता था कि पुत्र के बिना व्यक्ति की आत्मा को मुक्ति नहीं मिल सकती।
  • दत्तक पुत्र को वही स्थान प्राप्त होता था जो वास्तविक पुत्र को मिलता।
  • केवल पुत्र (लड़के) को ही दत्तक लेने की अनुमति थी।
  • दत्तक पुत्र का दायित्व मृतक पिता के श्राद्ध एवं धार्मिक कर्मकांड संपन्न करना होता था।

समय के साथ समाज में बदलाव आया और दत्तक ग्रहण केवल धार्मिक कारणों तक सीमित न रहकर सामाजिक, आर्थिक और भावनात्मक पहलू से भी जुड़ गया।


हिन्दू दत्तक एवं भरण-पोषण अधिनियम, 1956

सन् 1956 में लागू हुए इस अधिनियम ने हिन्दू दत्तक कानून को नई दिशा दी। इसके प्रमुख उद्देश्यों में शामिल थे:

  1. दत्तक ग्रहण की प्रक्रिया को विधिक रूप से स्पष्ट करना।
  2. महिलाओं को भी दत्तक ग्रहण करने का अधिकार देना।
  3. लड़की को भी दत्तक लेने की अनुमति प्रदान करना।
  4. दत्तक ग्रहण की प्रक्रिया में बच्चे के कल्याण को सर्वोच्च मानक बनाना।

यह अधिनियम हिन्दू, बौद्ध, जैन और सिख समुदायों पर लागू होता है।


दत्तक ग्रहण की परिभाषा

दत्तक ग्रहण वह विधिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई व्यक्ति किसी बच्चे को अपनी संतान के रूप में स्वीकार करता है, और इसके बाद वह बच्चा उसके प्राकृतिक संतान के समान अधिकार और कर्तव्य प्राप्त करता है।


दत्तक ग्रहण करने की पात्रता (Adoptive Parents की योग्यता)

अधिनियम की धारा 7 और 8 के अनुसार :

  1. पुरुष हिन्दू
    • कोई भी हिन्दू पुरुष जो संपूर्ण बुद्धि का धनी और अल्पवयस्क नहीं हो, दत्तक ग्रहण कर सकता है।
    • यदि वह विवाहित है, तो पत्नी की सहमति आवश्यक है (जब तक कि पत्नी मानसिक रूप से अस्वस्थ न हो, सन्यास न ले चुकी हो, या हिन्दू धर्म से बाहर न चली गई हो)।
    • विधुर, तलाकशुदा या अविवाहित पुरुष भी दत्तक ग्रहण कर सकते हैं।
  2. महिला हिन्दू
    • किसी भी हिन्दू महिला को दत्तक ग्रहण का अधिकार है, यदि वह अविवाहित, विधवा या तलाकशुदा है।
    • विवाहित महिला को स्वतंत्र रूप से दत्तक ग्रहण करने का अधिकार नहीं है, लेकिन वह अपने पति को दत्तक ग्रहण करने की सहमति दे सकती है।

कौन दत्तक लिया जा सकता है? (Child Eligibility)

धारा 10 के अनुसार, दत्तक लिए जाने वाले बच्चे की योग्यता इस प्रकार है:

  1. वह हिन्दू होना चाहिए।
  2. वह पहले से दत्तक न लिया गया हो।
  3. बच्चा अविवाहित होना चाहिए (जब तक कि वह प्रथा से विवाहित न हो)।
  4. उसकी आयु 15 वर्ष से कम होनी चाहिए (जब तक कि कोई विशेष प्रथा अन्यथा न कहे)।

दत्तक ग्रहण की आवश्यक शर्तें

अधिनियम में कुछ आवश्यक शर्तें निर्धारित की गई हैं :

  1. दत्तक देने वाला और लेने वाला दोनों सक्षम होने चाहिए।
  2. एक ही संतान को दो बार दत्तक नहीं लिया जा सकता।
  3. दत्तक लेने वाला पुरुष और महिला अपनी संतान की संख्या से अधिक दत्तक नहीं ले सकते (जैसे, यदि उनके पास पुत्र है तो दूसरा पुत्र दत्तक नहीं ले सकते)।
  4. बच्चे के कल्याण को सर्वोपरि माना जाएगा।

दत्तक के विधिक प्रभाव

दत्तक ग्रहण के बाद बच्चा :

  • दत्तक माता-पिता की संतान बन जाता है।
  • प्राकृतिक माता-पिता से उसका संबंध समाप्त हो जाता है (कुछ अपवादों को छोड़कर)।
  • दत्तक संतान को संपत्ति में वही अधिकार प्राप्त होते हैं जो जैविक संतान को मिलते हैं।
  • दत्तक संतान को भी माता-पिता का भरण-पोषण करना होता है।

न्यायालयीन दृष्टिकोण

भारतीय न्यायालयों ने समय-समय पर दत्तक ग्रहण की अवधारणा को स्पष्ट किया है।

  • लक्ष्मी कांत पांडे बनाम भारत संघ (1984) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दत्तक ग्रहण में बच्चे का कल्याण सर्वोपरि है।
  • अन्य मामलों में अदालतों ने यह भी स्पष्ट किया कि दत्तक ग्रहण एक सामाजिक कल्याणकारी संस्था है, न कि केवल धार्मिक प्रथा।

आधुनिक समय में दत्तक ग्रहण का महत्व

आज के समय में दत्तक ग्रहण केवल संतानहीन दंपतियों तक सीमित नहीं है।

  • यह अनाथ बच्चों को नया परिवार देता है।
  • यह लड़की और लड़के दोनों के लिए समान अवसर उपलब्ध कराता है।
  • यह बाल संरक्षण और सामाजिक न्याय की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है।

आलोचनात्मक दृष्टिकोण

हालाँकि अधिनियम ने कई सुधार किए हैं, फिर भी कुछ चुनौतियाँ बनी हुई हैं:

  • विवाहित महिला की स्वतंत्र रूप से दत्तक ग्रहण करने की असमर्थता।
  • समाज में दत्तक ग्रहण के प्रति झिझक।
  • बाल संरक्षण संस्थानों की जटिल प्रक्रियाएँ।

निष्कर्ष

हिन्दू विधि में दत्तक ग्रहण की अवधारणा समय के साथ धार्मिक अनिवार्यता से सामाजिक और कानूनी संस्था में परिवर्तित हो गई है। प्राचीन काल में यह केवल पुत्र की प्राप्ति और धार्मिक कर्तव्यों तक सीमित था, लेकिन आज यह बाल कल्याण, सामाजिक न्याय और समानता का साधन बन चुका है।

हिन्दू दत्तक एवं भरण-पोषण अधिनियम, 1956 ने इस संस्था को नया जीवन दिया है। यह अधिनियम दत्तक ग्रहण की प्रक्रिया को स्पष्ट, न्यायोचित और आधुनिक समाज के अनुरूप बनाता है।

अंततः, दत्तक ग्रहण न केवल परिवार की परंपरा को जीवित रखता है, बल्कि अनाथ और परित्यक्त बच्चों के जीवन में आशा और नए अवसर भी प्रदान करता है। यह संस्था भारतीय समाज की उस मानवीय संवेदना का प्रतीक है, जो कहती है – संतान केवल जन्म से नहीं, बल्कि प्रेम और संस्कार से भी होती है।