“मुस्लिम लड़की को स्कूल में हिजाब पहनने की इजाजत न देना — उसकी निजता और गरिमा पर हमला”
प्रस्तावना
आज कल देश में शिक्षा-संस्था, धर्म, निजता तथा गरिमा जैसी संवेदनशील अवधारणाएँ एक साथ टकरा रही हैं। हाल ही में Kerala High Court और Government of Kerala के बीच एक विवाद ने यह दिखा दिया है कि एक मुस्लिम-लड़की को स्कूल परिसर में हिजाब या स्कार्फ धारण करने से रोकना न केवल उसके धार्मिक अधिकारों पर प्रश्न उठाता है, बल्कि उसकी निजता, सम्मान, आत्म-गरिमा और शिक्षा-अधिकार को भी प्रभावित कर सकता है। इस लेख में हम इस घटनाक्रम का विश्लेषण करेंगे — तथ्य, कानूनी दृष्टि, संवैधानिक चर्चा और सामाजिक परिणाम सहित।
घटना-परिस्थिति
केरल के कोच्चि-निकट पल्लुरुथी इलाके में स्थित St Rita’s Public School, Palluruthy नामक स्कूल में एक आठवीं कक्षा की मुस्लिम-लड़की ने विद्यालय में हिजाब पहनकर आने की अनुमति माँगी। स्कूल प्रबंधन ने उसे प्रवेश नहीं दिया या उसे कक्षा में होने से रोका क्योंकि उसने स्कूल यूनिफार्म के साथ हिजाब पहनकर आने की अनुमति नहीं ली थी।
विषय इतना बढ़ गया कि राज्य-शिक्षा विभाग ने जांच कर स्कूल को निर्देश दिया कि वह उस लड़की को हिजाब पहनने दें और यह कि वर्दी-नियम में हिजाब पर स्पष्ट निर्देश नहीं था। इसके बाद स्कूल मैनेजमेंट ने इस निर्देश को उच्च न्यायालय में चुनौती दी।
राज्य सरकार ने उच्च न्यायालय में एक हलफनामा दाखिल किया जिसमें कहा गया कि स्कूल-गेट पर जाकर उस छात्रा का हिजाब पहनने से रोका जाना उसकी निजता और गरिमा पर हमला, तथा उसके लिए धर्म-स्वतंत्रता एवं शिक्षा-स्वतंत्रता का हनन है।
इस प्रकार घटना का मूल प्रश्न यह है कि एक स्कूल में यूनिफार्म-नियम kapsamında हिजाब पहनने की अनुमति न देना क्या मानवाधिकार-विरोधी है और क्या यह संविधान-विरुद्ध है।
संवैधानिक एवं कानूनी दृष्टि
1. धर्म-स्वतंत्रता, निजता व गरिमा
भारतीय संविधान के अंतर्गत अनुच्छेद 25 से धर्म-स्वतंत्रता का अधिकार मिलता है — अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म के अनुसार आचरण करने का अधिकार है। इसी प्रकार, अनुच्छेद 21 के अंतर्गत “जीवन व व्यक्तिगत स्वतंत्रता” की रक्षा सुनिश्चित है, जिसमें निजता, गरिमा, आत्मसम्मान शामिल हैं।
जब एक मुस्लिम-लड़की को स्कूल में अपने धार्मिक आंचलिक वस्त्र (हिजाब) पहनने से रोका जाता है, तो यह उसके धर्म-चयन व आचरण के अधिकार को प्रतिबंधित कर सकता है। राज्य सरकार ने इसी तर्क को अपनाया है कि उसकी हिजाब पहनने की “घर और सार्वजनिक स्थानों में” अनुमति है, और यह “स्कूल द्वार पर अचानक समाप्त नहीं होती।”
इस प्रकार, इस मामले में पूछा जा सकता है — क्या स्कूल का यूनिफार्म-नियम तथा विद्यालय-प्रवेश की शर्तें इस धार्मिक आचरण को वैधानिक रूप से प्रतिबंधित कर सकती हैं? यदि हाँ, तो किन सीमाओं के भीतर?
2. शिक्षा का अधिकार और धर्मनिरपेक्षता
अनुच्छेद 21-ए व अनुच्छेद 30 आदि एवं Right of Children to Free and Compulsory Education Act, 2009 के अंतर्गत प्रत्येक बच्चा निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकारी है। यदि उसे स्कूल में प्रवेश, या कक्षा में उपस्थित रहने से कपड़ा-ड्रेस को लेकर रोका जाए, तो यह शिक्षा के अधिकार का हनन हो सकता है। राज्य सरकार ने कहा कि “हिजाब न पहनने देने का मतलब है उसे धर्मनिरपेक्ष शिक्षा देने से इनकार करना।”
इसके अतिरिक्त, विद्यालयों में नियम बनाते समय यह ध्यान देना आवश्यक है कि नियमों का उद्देश्य क्या है — क्या वह सिर्फ यूनिफार्म एकरूपता बनाए रखना है या किसी विशेष धर्म-वस्त्र को निषिद्ध करना है? यदि नियम धर्म-विशिष्ट आचरण को बिना ठीक-ठीक कारण रोके रोकते हैं, तो वह भेद-भाव का रूप ले सकते हैं।
3. स्कूल-प्रबंधन की स्वायत्तता व राज्य-नियंत्रण
विद्यालय-प्रबंधन और राज्य-शिक्षा विभाग के बीच शक्तियों का विभाजन महत्वपूर्ण है। इस मामले में स्कूल ने यह दावा किया कि वह एक सीबीएसई-संलग्न (Central Board of Secondary Education) अल्पसंख्यक-संस्था है, जिसे बिना सरकारी सहायता मिलती है और उसे राज्य-शिक्षा विभाग के निर्देशों के अधीन नहीं माना जाना चाहिए।
इस पर सरकार ने कहा कि CBSE संलग्न स्कूलों के लिए भी अफिलिएशन बाय-लॉज और NOC गाइडलाइन्स के अंतर्गत शिक्षा विभाग को निरीक्षण व निर्देशन की शक्ति दी गयी है।
इस प्रकार, स्कूल-प्रबंधन को अपनी वर्दी-नियम निर्धारित करने का अधिकार है, पर यह अधिकार अंतहीन नहीं है — यदि वह नियम संवैधानिक मूल्यों (धर्म-स्वतंत्रता, समानता, गरिमा) के विरुद्ध हो, तो राज्य की हस्तक्षेप-शक्ति बनती है।
4. विवेचना और मामला-स्थिति
उपरोक्त विवाद में, स्कूल-प्रबंधन द्वारा छात्रा को हिजाब पहनकर कक्षा में प्रवेश करने से रोके जाने, उसके बाद शिक्षा विभाग द्वारा जांच और निर्देश जारी किए जाने, और स्कूल द्वारा उच्च न्यायालय में चुनौती पेश की जाने जैसी प्रक्रिया देखने को मिली।
फिर, छात्रा-के माता-पिता ने स्कूल छोड़ने और दूसरे स्कूल में तबादले का निर्णय लिया, और उच्च न्यायालय ने अंतिम रूप से याचिका बंद कर दी।
इसका अर्थ यह नहीं कि प्रश्न खत्म हो गया है, बल्कि यह मामला प्रमुख रूप से इस दिशा में संकेत देता है कि स्कूलों में धार्मिक वस्त्र-सम्बंधित नियमों की संवेदनशीलता बढ़ रही है और न्यायालय-सरकार की दृष्टि बदल रही है।
इस विवाद का सामाजिक-मानविक विश्लेषण
1. लड़की की निजता एवं गरिमा
हिजाब पहनने या न पहनने का निर्णय व्यक्तिगत विश्वास, सामाजिक पहचान, आत्म-सम्मान और धार्मिक आचरण से जुड़ा होता है। एक लड़की को यह कह देना कि “आप हिजाब नहीं पहन सकती” — विशेष रूप से यदि यह निर्देश उसके श्रेणी-भेद (धर्म-आधारित) पर आधारित हो — उसकी गरिमा और निजी-स्वायत्तता का उल्लंघन हो सकता है।
राज्य का बयान स्पष्ट है कि “उसका हिजाब पहनने का अधिकार घर-बाहर है, पर स्कूल-द्वार पर समाप्त नहीं होता।”
यदि स्कूल ने यूनिफार्म-नियम के नाम पर इस अधिकार को बाधित किया, तो यह लड़की का आत्म-विश्वास, सामाजिक समावेश (inclusion) और आगे की शिक्षा-यात्रा पर असर डाल सकता है।
2. शिक्षा-संधि एवं समावेशिता
शिक्षा केवल किताबी ज्ञान नहीं है — वह सामाजिक सहभागिता, आत्मविश्लेषण, अवसर-समानता, व्यक्तित्व-विकास का माध्यम है। यदि किसी छात्रा को धार्मिक कारण से स्कूल-प्रवेश या कक्षा-उपस्थिति में बाधित किया जाए, तो न केवल उसे शिक्षा-मौका छिनता है बल्कि समाज-से उसकी भागीदारी सीमित होती है।
इस प्रकार, विद्यालयों में नियम-निर्माण में यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अल्पसंख्यक-धर्म के छात्र-छात्राओं को सहज वातावरण मिले, जहाँ वे अपनी पहचान के साथ सुरक्षित व समाहित महसूस करें।
3. स्कूल-नियम तथा सामाजिक-एकरूपता
अक्सर विद्यालय-प्रबंधन यूनिफार्म नियमों का समर्थन करते हैं ताकि अनावश्यक भिन्नता न हो, शालीनता बनी रहे और विद्यार्थी समूह में एकरूपता रहे। यह तर्क निश्चित रूप से सामाजिक-संगठन के दृष्टिकोण से समझा जा सकता है।
परंतु जब “एकरूपता” का मतलब “धार्मिक वस्त्र-निषेध” बन जाए, तो नियम का उद्देश्य बदल जाता है — वह सामाजिक समावेशिता (inclusion) को कमजोर कर सकता है। इस विवाद में फ़िलहाल स्पष्ट नहीं है कि स्कूल ने यूनिफार्म नियम को पहले कब, कैसे व किस रूप में तय किया था, और हिजाब-विषय पहले से विद्यालय-हस्तक्षेप में था या नहीं।
इसलिए, विद्यालय-नियमों में स्पष्टता, पूर्व सूचना व वैकल्पिक मार्ग (जैसे हिजाब रंग-निर्धारण) जैसे उपाय होने चाहिए, ताकि पहचान व समावेश का बुनियादी अधिकार सुरक्षित रह सके।
4. सार्वजनिक-वित्तीय संस्था और निजी-प्रबंधन स्कूल
यह विवाद हमें यह भी याद दिलाता है कि भारत में स्कूल-प्रबंधन का ढांचा विविध है — सरकारी, सहायता प्राप्त, निजी, धर्म-आधारित आदि। जब निजी या अल्पसंख्यक-संस्था-प्रबंधन वाला स्कूल होता है, तो उसकी स्वायत्तता व राज्य-नियंत्रण का संतुलन चर्चा-विषय बन जाता है। इस मामले में स्कूल ने दावा किया कि वह सीबीएसई-सहायता-रहित अल्पसंख्यक-संस्था है, इस कारण राज्य की निरीक्षण-शक्ति पर प्रश्न उठाया।
राज्य ने कहा कि सीबीएसई-अफिलिएशन बाय-लॉज व NOC गाइडलाइन्स के अंतर्गत विभाग को निरीक्षण-शक्ति प्राप्त है।
यह संतुलन सामाजिक न्याय के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है — अर्थात् अल्पसंख्यक-समुदाय को उचित अवसर मिले और स्कूल-प्रबंधन को नियम-निर्धारण की स्वायत्तता भी हो।
निष्कर्ष एवं सुझाव
इस प्रकार, मुस्लिम-लड़की को स्कूल में हिजाब पहनने से रोकना केवल “ड्रेस-कोड” का मामला नहीं है — यह शिक्षा-अधिकार, धर्म-स्वतंत्रता, निजता-गरिमा तथा समावेशिता का मामला है। इस विवाद से निम्नलिखित निष्कर्ष एवं सुझाव सामने आते हैं:
- साफ-साफ नियम-प्रक्रिया: विद्यालयों को वर्दी-नियम बनाते समय स्पष्ट करना चाहिए कि धार्मिक आचरण-वस्त्र (जैसे हिजाब) किस रूप से स्वीकार्य होंगे, कब नहीं। यदि कोई प्रतिबंध है, तो उसे पूर्व में छात्रों/अभिभावकों को सूचित किया जाना चाहिए।
- वैकल्पिक समावेश-उपाय: स्कूल-प्रबंधन को विचार करना चाहिए कि एकरूपता बनाए रखते हुए धार्मिक पहचान-वस्त्र को कैसे सहज बनाया जा सकता है — जैसे हिजाब का रंग यूनिफार्म-रंग से मिलाना, स्कूल-ब्रांडेड स्कार्फ विकल्प उपलब्ध कराना इत्यादि।
- संवेदनशील संवाद व मध्यस्थता: विवाद उत्पन्न होने पर जल्दी सहमति-परिषद, अभिभावक-प्रबंधन-स्कूली प्रतिनिधि-मंच के माध्यम से समाधान खोजा जाना चाहिए। इससे सामाजिक तनाव कम होगा और बच्चों का मनोबल सुरक्षित रहेगा।
- शिक्षा-संस्था में समावेश-संस्कृति: स्कूल-प्रबंधन को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सभी धर्म-समुदायों के छात्र-छात्राएँ समान रूप से स्वागत-योग्य महसूस करें। किसी भी पहचान-आधारित भेद-भाव से शैक्षणिक माहौल प्रभावित होता है।
- राज्य-नियंत्रण व स्वायत्तता के बीच संतुलन: राज्य और स्कूल-प्रबंधन दोनों को अपनी भूमिका समझनी चाहिए — राज्य को शिक्षा-नियमन, मानवाधिकार-रक्षा का दायित्व है, स्कूल-प्रबंधन को स्वायत्तता के साथ समावेश-विचार रखना है।
अन्ततः, यदि हम यह मानें कि हर विद्यार्थी को “निष्पक्ष, सम्मानीय एवं स्वाभिमानी” शिक्षा का अधिकार है, तो ऐसी घटनाएँ हमारे संवैधानिक आदर्शों — समानता, धर्म-स्वतंत्रता, गरिमा और शिक्षा-समानता — के अनुरूप नहीं लगतीं। इसलिए इस तरह के विवादों में त्वरित संवेदनशीलता, संवाद तथा न्याय-आधारित निर्णय आवश्यक है।