शीर्षक: हिजाब और पहचान की स्वतंत्रता पर सुप्रीम कोर्ट का सशक्त फैसला: “छात्राओं को तय करने का अधिकार है कि वे क्या पहनें”
प्रस्तावना:
भारत जैसे लोकतांत्रिक और विविधतापूर्ण देश में धार्मिक और व्यक्तिगत स्वतंत्रता संवैधानिक अधिकारों का मूलभूत आधार है। सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर इस सिद्धांत को सुदृढ़ किया है। हाल ही में मुंबई के एक कॉलेज द्वारा जारी उस परिपत्र पर आंशिक रोक लगाते हुए, जिसमें छात्राओं के लिए हिजाब, बुर्का, टोपी और नकाब पहनने पर प्रतिबंध लगाया गया था, देश की सर्वोच्च अदालत ने साफ कहा — “छात्राओं को यह स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वे क्या पहनें। शिक्षण संस्थानों को यह निर्णय उन पर नहीं थोपना चाहिए।”
यह फैसला सिर्फ एक कॉलेज के सर्कुलर को रोकने का नहीं, बल्कि शिक्षा के लोकतांत्रिक मूल्यों और व्यक्तिगत गरिमा की रक्षा करने वाला ऐतिहासिक निर्णय है।
मामले का पृष्ठभूमि:
मामला मुंबई स्थित एन. जी. आचार्य और डी. के. मराठे कॉलेज से संबंधित है, जिसे बरहांबे एजुकेशन सोसायटी संचालित करती है। इस कॉलेज ने एक सर्कुलर जारी कर कक्षा और परिसर में हिजाब, बुर्का, टोपी, नकाब समेत कुछ अन्य धार्मिक प्रतीकों को प्रतिबंधित कर दिया था। इस सर्कुलर को छात्राओं ने चुनौती दी, जिसमें कहा गया कि यह उनके धार्मिक और संवैधानिक अधिकारों का हनन है।
सुप्रीम कोर्ट की कड़ी टिप्पणी:
सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की पीठ ने सुनवाई के दौरान कॉलेज प्रशासन को फटकार लगाते हुए कहा:
“क्या आप बिंदी और तिलक पर भी प्रतिबंध लगाएंगे? छात्राओं को तय करने की आज़ादी होनी चाहिए कि वे क्या पहनें। यह अधिकार उनके सम्मान और पहचान से जुड़ा है।”
जस्टिस संजय कुमार ने तीखे सवाल करते हुए कहा कि कॉलेज इस सर्कुलर के ज़रिए महिलाओं को कैसे सशक्त बना रहा है, यदि वह उन्हें यह बताने की कोशिश कर रहा है कि उन्हें क्या पहनना चाहिए और क्या नहीं।
कॉलेज की दलीलें और उनका विरोधाभास:
कॉलेज की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता माधवी दीवान ने दलील दी कि यह एक सह-शिक्षा संस्थान है और सर्कुलर का उद्देश्य धार्मिक पहचान को उजागर होने से रोकना है। उन्होंने कहा कि प्रतिबंध केवल हिजाब या नकाब तक सीमित नहीं है, बल्कि फटी हुई जींस जैसे आधुनिक परिधानों पर भी लागू है।
लेकिन इस तर्क पर कोर्ट ने सवाल उठाया कि यदि धार्मिक पहचान को छुपाना उद्देश्य है, तो क्या नामों से धार्मिक पहचान उजागर नहीं होती? क्या कॉलेज नाम बदलने का आदेश देगा?
जस्टिस खन्ना ने पूछा – “क्या छात्रों के नाम उनकी धार्मिक पहचान नहीं उजागर करते?”
संविधान और मौलिक अधिकार:
भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25) और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19) प्रदान करता है। यह फैसला इन्हीं मूल अधिकारों की पुनर्पुष्टि है। शिक्षण संस्थान अगर धर्मनिरपेक्षता के नाम पर छात्रों से उनकी धार्मिक पहचान छीनने लगें, तो यह लोकतंत्र के लिए खतरा बन जाएगा।
पीठ की ओर से आंशिक रोक का आदेश:
कोर्ट ने कॉलेज के सर्कुलर के उस हिस्से पर आंशिक रोक लगाई, जिसमें छात्राओं द्वारा हिजाब, टोपी, नकाब या बैज पहनने पर प्रतिबंध था। कोर्ट ने कॉलेज प्रशासन से पूछा कि क्या ऐसी रोक-टोक समान रूप से भगवा शॉल या अन्य धार्मिक प्रतीकों पर भी लागू की जाएगी?
सुप्रीम कोर्ट ने 18 नवंबर तक कॉलेज प्रशासन से जवाब मांगा है और स्पष्ट किया कि इस अंतरिम आदेश का किसी के द्वारा दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए।
हिजाब का मामला अब बड़ी पीठ के पास:
सुनवाई के दौरान जस्टिस खन्ना ने यह भी कहा कि शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब की अनुमति देने का बड़ा मुद्दा पहले से ही सुप्रीम कोर्ट की बड़ी पीठ के समक्ष विचाराधीन है। यह स्पष्ट करता है कि न्यायपालिका इस संवेदनशील और बहु-आयामी विषय को गंभीरता से ले रही है।
नीट-पीजी परीक्षा स्थगन याचिका पर भी बड़ा बयान:
इसी दिन सुप्रीम कोर्ट ने नीट पीजी 2025 को स्थगित करने से साफ इन्कार करते हुए कहा:
“पांच याचिकाकर्ताओं के लिए दो लाख छात्रों का भविष्य खतरे में नहीं डाल सकते।”
मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि न्यायाधीश अकादमिक विशेषज्ञ नहीं हैं और परीक्षा की तिथि को बार-बार बदलने की प्रवृत्ति से शिक्षा प्रणाली को क्षति होती है।
निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल हिजाब पहनने की स्वतंत्रता की रक्षा करता है, बल्कि यह शिक्षा के क्षेत्र में समानता, गरिमा और पहचान के मूल्यों को भी मजबूती देता है। यह निर्णय इस बात का प्रमाण है कि भारत की न्यायपालिका संविधान की आत्मा को जीवित रखे हुए है — जहां हर नागरिक को अपनी धार्मिक पहचान, अभिव्यक्ति और जीवनशैली चुनने की स्वतंत्रता है।