हिंदू विवाह ‘धार्मिक उद्देश्य’ नहीं: मंदिर धन के दुरुपयोग पर मद्रास उच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला
भारत में धार्मिक संस्थाओं और उनके वित्तीय संसाधनों के उपयोग को लेकर समय-समय पर न्यायालयों ने स्पष्ट दिशा-निर्देश दिए हैं। हाल ही में मद्रास उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए कहा कि हिंदू विवाह को धार्मिक उद्देश्य नहीं माना जा सकता है और मंदिर के धन का उपयोग विवाह हॉल (Kalyana Mandapam) जैसे निर्माण के लिए नहीं किया जा सकता। यह आदेश न केवल मंदिर संपत्ति और धार्मिक निधियों की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह धर्म और धर्मार्थ उद्देश्यों के बीच की सीमा को भी स्पष्ट करता है।
इस फैसले ने तमिलनाडु सरकार के उस सरकारी आदेश (Government Order) को निरस्त कर दिया, जिसमें मंदिरों के धन को विवाह मंडप और अन्य गैर-धार्मिक उपयोगों में लगाने की अनुमति दी गई थी।
1. मामले की पृष्ठभूमि
तमिलनाडु सरकार ने एक आदेश पारित किया था जिसके तहत मंदिरों की आय और निधियों का उपयोग विवाह हॉल और अन्य भवन निर्माण में किया जा सकता था। सरकार का तर्क था कि विवाह हॉलों का निर्माण मंदिर प्रशासन द्वारा किया जाएगा और उससे आय अर्जित कर पुनः मंदिरों के रख-रखाव और धार्मिक गतिविधियों में लगाया जाएगा।
लेकिन कुछ याचिकाकर्ताओं ने इस आदेश को अदालत में चुनौती दी। उनका कहना था कि मंदिर का धन केवल धार्मिक और धर्मार्थ गतिविधियों के लिए है। विवाह, हालांकि सामाजिक और व्यक्तिगत महत्व रखता है, लेकिन हिंदू शास्त्रों और कानून के अनुसार यह धार्मिक क्रिया नहीं है।
2. अदालत में उठे मुख्य प्रश्न
मद्रास उच्च न्यायालय के समक्ष निम्नलिखित प्रमुख प्रश्न आए—
- क्या हिंदू विवाह को “धार्मिक उद्देश्य” के अंतर्गत रखा जा सकता है?
- क्या मंदिर की निधियों का उपयोग ऐसे गैर-धार्मिक निर्माण कार्यों के लिए किया जा सकता है?
- क्या सरकार को मंदिर निधियों के उपयोग की दिशा निर्धारित करने का अधिकार है?
3. हिंदू विवाह का स्वरूप: धार्मिक या सामाजिक?
अदालत ने अपने निर्णय में हिंदू विवाह की प्रकृति पर विस्तार से चर्चा की।
- हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (Hindu Marriage Act, 1955) के अनुसार विवाह एक संस्कार (Sacrament) माना जाता है, लेकिन यह धार्मिक उद्देश्य की श्रेणी में नहीं आता।
- विवाह का उद्देश्य मुख्यतः सामाजिक व्यवस्था और पारिवारिक संस्था की स्थापना है।
- विवाह का संबंध धर्म या पूजा-पाठ से नहीं, बल्कि संपत्ति, उत्तराधिकार और सामाजिक दायित्वों से है।
न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि यदि विवाह को धार्मिक उद्देश्य मान लिया जाए, तो मंदिर निधि का अंधाधुंध उपयोग विवाह जैसे निजी आयोजनों में होने लगेगा, जिससे मंदिर के वास्तविक धार्मिक उद्देश्यों पर आंच आएगी।
4. मंदिर निधियों का कानूनी संरक्षण
भारत में हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्त अधिनियम (Hindu Religious and Charitable Endowments Act) और विभिन्न राज्यों के कानून मंदिर निधियों की सुरक्षा और उपयोग को नियंत्रित करते हैं।
इन कानूनों के अनुसार—
- मंदिर की आय केवल धार्मिक पूजा, अनुष्ठान, उत्सव, और मंदिर से संबंधित धर्मार्थ कार्यों में ही लगाई जा सकती है।
- निधियों का उपयोग ऐसे उद्देश्यों में नहीं होना चाहिए जो धार्मिक परंपरा और दानदाताओं की भावना के विपरीत हों।
न्यायालय ने कहा कि विवाह हॉल का निर्माण मंदिर निधि के उपयोग की वैध श्रेणी में नहीं आता।
5. सरकार के आदेश का खारिज होना
मद्रास उच्च न्यायालय ने सरकार के आदेश को रद्द करते हुए कहा—
- सरकार मंदिर की निधि का मनमाना उपयोग नहीं कर सकती।
- मंदिर संपत्ति और धन, श्रद्धालुओं की आस्था से जुड़ा होता है, इसलिए इसका उपयोग केवल उन्हीं उद्देश्यों में होना चाहिए जिनसे धार्मिक भावनाओं का सम्मान हो।
- विवाह जैसे सामाजिक कार्यक्रमों के लिए निधि का उपयोग धार्मिक गतिविधियों की परिभाषा का अतिक्रमण है।
इस प्रकार अदालत ने स्पष्ट कर दिया कि मंदिर निधि का उपयोग विवाह हॉल निर्माण के लिए अवैध और असंवैधानिक है।
6. निर्णय के व्यापक निहितार्थ
यह फैसला केवल तमिलनाडु ही नहीं, बल्कि पूरे भारत के लिए महत्वपूर्ण है। इसके कुछ प्रमुख निहितार्थ निम्नलिखित हैं—
- मंदिर निधियों की सुरक्षा: मंदिर प्रशासन और सरकार को अब निधियों के उपयोग में अधिक पारदर्शिता और जवाबदेही रखनी होगी।
- धर्म और समाज की सीमाएँ स्पष्ट: विवाह जैसे सामाजिक आयोजनों को धार्मिक उद्देश्य मानकर धार्मिक निधि का उपयोग नहीं किया जा सकेगा।
- श्रद्धालुओं का विश्वास: श्रद्धालु जो दान मंदिर में करते हैं, वे अब आश्वस्त रहेंगे कि उनका दान केवल धार्मिक और धर्मार्थ कार्यों में ही लगेगा।
- नीति निर्माण पर असर: अन्य राज्यों की सरकारें भी अब ऐसी नीतियों से बचेंगी जिनसे मंदिर निधियों का गैर-धार्मिक उपयोग हो।
7. आलोचना और समर्थन
आलोचना:
कुछ लोगों का मानना है कि विवाह हॉल मंदिर की आय का वैकल्पिक स्रोत हो सकता है और इससे मिलने वाला धन पुनः धार्मिक गतिविधियों में ही खर्च किया जा सकता है। ऐसे में अदालत का निर्णय मंदिरों के वित्तीय स्वावलंबन को सीमित कर सकता है।
समर्थन:
दूसरी ओर, अधिकतर धार्मिक विद्वान और सामाजिक कार्यकर्ता इस निर्णय का समर्थन करते हैं। उनका कहना है कि यह फैसला मंदिर निधियों के पवित्र उपयोग की गारंटी देता है और श्रद्धालुओं की आस्था के साथ न्याय करता है।
8. ऐतिहासिक दृष्टिकोण
भारत के धार्मिक और धर्मार्थ संस्थानों के इतिहास में यह कोई पहला मौका नहीं है जब अदालत ने हस्तक्षेप किया हो। इससे पहले भी कई बार उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय ने मंदिर संपत्तियों के संरक्षण के लिए सरकार के आदेशों को निरस्त किया है।
- श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर मामला (केरल): इसमें सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर निधि और संपत्ति के उपयोग में सरकार के अत्यधिक हस्तक्षेप को गलत ठहराया था।
- चिदंबरम नटराज मंदिर मामला (तमिलनाडु): यहाँ भी अदालत ने मंदिर प्रशासन और धार्मिक परंपराओं की स्वतंत्रता की रक्षा की थी।
मद्रास उच्च न्यायालय का हालिया फैसला भी इसी न्यायिक परंपरा की कड़ी है।
9. धर्म और राज्य के बीच संतुलन
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देते हैं। मंदिर जैसी संस्थाओं को अपने धर्म और परंपरा के अनुसार धन और संपत्ति का प्रबंधन करने का अधिकार है।
लेकिन साथ ही राज्य का कर्तव्य है कि इन निधियों का दुरुपयोग न हो। न्यायालय का यह फैसला इस संतुलन को बनाए रखने का उदाहरण है।
10. निष्कर्ष
मद्रास उच्च न्यायालय का निर्णय “हिंदू विवाह धार्मिक उद्देश्य नहीं है” केवल एक कानूनी व्याख्या भर नहीं है, बल्कि यह धार्मिक निधियों के पवित्र और पारदर्शी उपयोग की दिशा में एक मजबूत कदम है।
यह फैसला याद दिलाता है कि मंदिर निधि केवल धार्मिक और धर्मार्थ कार्यों के लिए है, न कि सामाजिक आयोजनों के लिए। इसने सरकार के आदेश को रद्द कर श्रद्धालुओं की आस्था की रक्षा की है और यह सुनिश्चित किया है कि धार्मिक निधि का उपयोग केवल धार्मिक उद्देश्यों तक सीमित रहे।
यह निर्णय आने वाले वर्षों में मंदिर प्रशासन, सरकारों और समाज सभी के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत बनेगा।