हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत स्थायी भरण-पोषण : ‘राखी साधुखान बनाम राजा साधुखान’ (29 मई 2025) का सुप्रीम कोर्ट निर्णय
भूमिका
भारत में विवाह संस्था को एक पवित्र संस्कार माना जाता है। लेकिन जब विवाह टूटने की कगार पर पहुँच जाता है, तो उससे जुड़े अनेक सामाजिक और आर्थिक प्रश्न उत्पन्न होते हैं। खासकर वह जीवनसाथी, जो आर्थिक रूप से निर्भर है, उसके भविष्य की सुरक्षा न्यायालयों के समक्ष एक गंभीर चिंता का विषय बनती है। यही कारण है कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 में स्थायी भरण-पोषण (Permanent Alimony) का प्रावधान किया गया है।
हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने राखी साधुखान बनाम राजा साधुखान (29 मई 2025) मामले में एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया। इस फैसले में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि स्थायी भरण-पोषण तय करते समय यह सुनिश्चित करना होगा कि आश्रित जीवनसाथी की आर्थिक गरिमा बनी रहे और विवाह के दौरान का जीवनस्तर यथासंभव सुरक्षित रहे।
मामले की पृष्ठभूमि
इस मामले में पत्नी राखी साधुखान ने पति राजा साधुखान से तलाक के बाद स्थायी भरण-पोषण की मांग की। ट्रायल कोर्ट ने भरण-पोषण की एक निश्चित राशि तय की थी, जिसे पत्नी ने अपर्याप्त बताते हुए चुनौती दी। मामला अंततः सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा।
पत्नी का तर्क था कि –
- विवाह के दौरान उसका जीवनस्तर पति की आय और संसाधनों के कारण ऊँचा था।
- तलाक के बाद उसे न्यूनतम भरण-पोषण मिलने से वह उसी स्तर पर जीवनयापन नहीं कर सकती।
- भरण-पोषण का उद्देश्य केवल जीवित रहने भर का खर्च नहीं बल्कि सम्मानजनक जीवन प्रदान करना है।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यह स्पष्ट किया कि :
- भरण-पोषण का आधार केवल जीविका नहीं है, बल्कि गरिमापूर्ण जीवन है।
- स्थायी भरण-पोषण का निर्धारण करते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि तलाकशुदा जीवनसाथी को उस जीवन स्तर से नीचे न गिरना पड़े, जिसका वह विवाह के दौरान अभ्यस्त था।
- पति-पत्नी दोनों की आय और संपत्ति का आकलन आवश्यक है।
- न्यायालय ने कहा कि पति की आय, संपत्ति, जीवन स्तर और आर्थिक स्थिति का मूल्यांकन किए बिना उचित भरण-पोषण तय नहीं किया जा सकता।
- साथ ही, पत्नी की स्वयं की आय, शिक्षा, योग्यता और रोजगार की संभावना को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
- सिर्फ गुज़ारा नहीं, बल्कि आर्थिक सम्मान।
- भरण-पोषण का उद्देश्य आश्रित जीवनसाथी को “वित्तीय गरिमा” (Financial Dignity) प्रदान करना है।
- यह मानवीय संवेदनाओं और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए।
- बच्चों की शिक्षा और देखभाल का खर्च भी शामिल।
- यदि दंपत्ति के बच्चे हैं तो उनके पालन-पोषण, शिक्षा और विवाह का खर्च भी भरण-पोषण के निर्धारण में सम्मिलित किया जाएगा।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- अदालत ने अफसोस जताया कि भारत में अब भी कई तलाकशुदा महिलाएँ न्यूनतम आर्थिक सहायता न मिलने के कारण असमानता और अपमानजनक परिस्थितियों में जीवन जीने को मजबूर होती हैं।
- अदालत ने कहा कि “भरण-पोषण का अधिकार पत्नी की दया पर नहीं, बल्कि कानून और न्याय की देन है।”
- स्थायी भरण-पोषण तय करते समय अदालतों को संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता) और अनुच्छेद 21 (गरिमामय जीवन का अधिकार) को ध्यान में रखना चाहिए।
कानूनी प्रावधान : हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 25
- धारा 25 (स्थायी भरण-पोषण और निर्वाह भत्ता) : विवाह विच्छेद, न्यायिक पृथक्करण या शून्यता की डिक्री जारी होने पर, न्यायालय यह आदेश पारित कर सकता है कि पति या पत्नी में से कोई भी दूसरे जीवनसाथी को उसकी आवश्यकताओं, आय और जीवन स्तर के अनुरूप स्थायी भरण-पोषण देगा।
- न्यायालय समय-समय पर परिस्थितियों के अनुसार इसमें संशोधन कर सकता है।
स्थायी भरण-पोषण तय करने के मानदंड
सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस निर्णय में कुछ प्रमुख मानदंड स्पष्ट किए :
- पति-पत्नी की आय और संपत्ति।
- दोनों के बीच जीवन स्तर और सामाजिक स्थिति।
- पति-पत्नी की जिम्मेदारियाँ (बच्चे, आश्रित माता-पिता आदि)।
- महिला की शिक्षा, रोजगार क्षमता और आय की संभावना।
- तलाक का कारण और पति द्वारा किया गया आचरण।
निर्णय का महत्व
- महिलाओं की आर्थिक सुरक्षा
- यह निर्णय तलाकशुदा महिलाओं के आर्थिक भविष्य को सुरक्षित करता है।
- इससे यह सुनिश्चित होता है कि महिलाएँ तलाक के बाद गरीबी और उपेक्षा की शिकार न हों।
- न्यायालयों के लिए मार्गदर्शन
- यह फैसला अन्य न्यायालयों को भी स्थायी भरण-पोषण तय करते समय ठोस मानदंड अपनाने का मार्गदर्शन देता है।
- समानता और गरिमा का संरक्षण
- यह निर्णय महिला अधिकारों और संविधान में निहित समानता एवं गरिमामय जीवन के अधिकार की पुष्टि करता है।
आलोचना और सुझाव
- कई बार देखा गया है कि भरण-पोषण की राशि वास्तविक महँगाई और जीवन स्तर से कम होती है।
- अदालती कार्यवाही लंबी खिंचने से आश्रित जीवनसाथी को मानसिक और आर्थिक संकट झेलना पड़ता है।
- सुझाव :
- अदालतें फास्ट-ट्रैक प्रक्रिया के माध्यम से भरण-पोषण के मामलों का शीघ्र निपटारा करें।
- भरण-पोषण की राशि समय-समय पर महँगाई सूचकांक (Inflation Index) से जुड़ी हो।
- एनएचआरसी या महिला आयोग जैसी संस्थाओं को निगरानी का अधिकार दिया जाए ताकि आदेशों का पालन हो सके।
निष्कर्ष
राखी साधुखान बनाम राजा साधुखान (29/05/2025) का यह निर्णय भारतीय न्याय व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। यह स्पष्ट करता है कि स्थायी भरण-पोषण केवल “गुज़ारे के पैसे” नहीं बल्कि “सम्मानजनक जीवन” का साधन होना चाहिए।
इस फैसले से यह संदेश गया है कि विवाह टूटने के बाद भी न्यायालय यह सुनिश्चित करेगा कि कोई भी जीवनसाथी आर्थिक रूप से उपेक्षित न हो और उसकी गरिमा एवं जीवन स्तर सुरक्षित बना रहे।
Case Title:
Rakhi Sadhukhan v. Raja Sadhukhan
(Supreme Court of India, 29 May 2025)
Facts (तथ्य):
- पति-पत्नी के बीच वैवाहिक विवाद के कारण विवाह विच्छेद (Divorce) का मामला अदालत में पहुँचा।
- पत्नी राखी साधुखान ने तलाक के बाद स्थायी भरण-पोषण (Permanent Alimony) की मांग की।
- ट्रायल कोर्ट ने भरण-पोषण की एक निश्चित राशि तय की, लेकिन पत्नी ने इसे अपर्याप्त बताते हुए उच्च न्यायालय में चुनौती दी।
- अंततः मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा।
Issues (विवाद के प्रश्न):
- क्या स्थायी भरण-पोषण केवल न्यूनतम जीविका सुनिश्चित करने के लिए है या विवाह के दौरान के जीवनस्तर को भी ध्यान में रखना आवश्यक है?
- क्या न्यायालय को भरण-पोषण तय करते समय पति-पत्नी दोनों की आय, संपत्ति और सामाजिक स्थिति का मूल्यांकन करना चाहिए?
- क्या वित्तीय गरिमा (Financial Dignity) भी भरण-पोषण का अभिन्न हिस्सा है?
Arguments (पक्षकारों के तर्क):
पत्नी (राखी साधुखान) का पक्ष:
- विवाह के दौरान उसका जीवनस्तर पति की आय और संसाधनों के कारण ऊँचा था।
- निर्धारित राशि इतनी कम है कि वह सम्मानजनक जीवन नहीं जी सकती।
- भरण-पोषण केवल जीवित रहने का साधन नहीं बल्कि गरिमामय जीवन का अधिकार है।
पति (राजा साधुखान) का पक्ष:
- पत्नी को पहले से कुछ आय है, इसलिए अधिक राशि देना आवश्यक नहीं।
- उसकी जिम्मेदारियों में अन्य आश्रित भी शामिल हैं।
- भरण-पोषण यथासंभव न्यूनतम रखा जाना चाहिए।
Judgment (निर्णय):
- सुप्रीम कोर्ट (CJI बी.आर. गवई और जस्टिस के. विनोद चंद्रन की पीठ) ने कहा कि:
- स्थायी भरण-पोषण तय करते समय पति-पत्नी दोनों की आय, संपत्ति, जिम्मेदारियों और सामाजिक स्थिति का ध्यान रखा जाना चाहिए।
- भरण-पोषण का उद्देश्य केवल “गुज़ारा” नहीं बल्कि “आर्थिक गरिमा और विवाह के दौरान का जीवनस्तर” बनाए रखना है।
- आश्रित जीवनसाथी को विवाह टूटने के बाद गरीबी और अपमानजनक जीवन जीने को मजबूर नहीं किया जा सकता।
- सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट द्वारा निर्धारित राशि को बढ़ाते हुए पत्नी के लिए उचित स्थायी भरण-पोषण तय किया।
Significance (महत्त्व):
- यह निर्णय स्पष्ट करता है कि स्थायी भरण-पोषण वित्तीय गरिमा और सम्मानजनक जीवन सुनिश्चित करने का साधन है।
- यह अदालतों को भरण-पोषण तय करने के लिए स्पष्ट मानदंड (Income, Property, Status, Responsibility, Conduct) प्रदान करता है।
- यह महिलाओं की आर्थिक सुरक्षा और संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता) और अनुच्छेद 21 (गरिमापूर्ण जीवन) को सुदृढ़ करता है।
- भविष्य में तलाक के मामलों में यह एक नजीर (Precedent) बनेगा।