“हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956: उत्तराधिकार में समानता की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम”

🔖 लेख शीर्षक: “हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956: उत्तराधिकार में समानता की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम”
(The Hindu Succession Act, 1956: A Revolutionary Step Towards Equality in Inheritance)


परिचय

भारतीय समाज की पारंपरिक संरचना में संपत्ति का उत्तराधिकार एक जटिल और विवादास्पद विषय रहा है। विशेषकर, महिलाओं के लिए उत्तराधिकार अधिकारों की स्थिति सदियों तक उपेक्षित रही। इस सामाजिक असमानता और भेदभाव को दूर करने हेतु भारत सरकार ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (The Hindu Succession Act, 1956) लागू किया। यह अधिनियम स्वतंत्र भारत में बनाए गए चार हिंदू कोड विधानों में से एक है, जिसका उद्देश्य हिंदू पुरुषों और महिलाओं के लिए संपत्ति पर समान उत्तराधिकार अधिकार सुनिश्चित करना था।


अधिनियम की पृष्ठभूमि

भारत में स्वतंत्रता से पूर्व, विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग धार्मिक और क्षेत्रीय परंपराओं पर आधारित उत्तराधिकार कानून लागू थे। इन प्रथाओं में महिलाओं को संपत्ति का अधिकार बहुत सीमित या न के बराबर था। डॉ. बी. आर. अंबेडकर के नेतृत्व में गठित हिंदू कोड बिल समिति ने एक समान और आधुनिक उत्तराधिकार प्रणाली तैयार करने की पहल की। उसी के परिणामस्वरूप, वर्ष 1956 में यह अधिनियम अस्तित्व में आया।


उद्देश्य और प्रयोजन

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 का मुख्य उद्देश्य था:

  1. हिंदू पुरुषों और महिलाओं के लिए समान उत्तराधिकार अधिकार सुनिश्चित करना
  2. पारंपरिक संयुक्त परिवार प्रणाली में सुधार लाना।
  3. संपत्ति के उत्तराधिकार के नियमों को स्पष्ट और कोडबद्ध करना
  4. महिलाओं को कोपार्सनरी अधिकार प्रदान करना (संशोधन द्वारा)।

अधिनियम का विस्तार क्षेत्र

यह अधिनियम निम्नलिखित व्यक्तियों पर लागू होता है:

  • हिंदू
  • बौद्ध
  • जैन
  • सिख
  • कोई भी व्यक्ति जो मुसलमान, ईसाई, पारसी या यहूदी नहीं है और जिसे हिंदू के रूप में माना गया है।

मुख्य प्रावधान

1. अवसीयत उत्तराधिकार (Intestate Succession) – अध्याय II

जब कोई हिंदू अपनी संपत्ति के लिए वसीयत नहीं करता, तो उसकी संपत्ति का उत्तराधिकार इस अधिनियम के अनुसार होता है।

  • धारा 8: हिंदू पुरुष की संपत्ति का उत्तराधिकार क्रमशः कक्षा I के उत्तराधिकारियों, फिर कक्षा II, फिर अग्नति और सपिंदी को जाता है।
  • धारा 15 और 16: हिंदू महिला की संपत्ति का उत्तराधिकार क्रमशः उसके पति, पुत्र-पुत्री, माता-पिता, पति के उत्तराधिकारी आदि को होता है।

2. कक्षा I और कक्षा II के उत्तराधिकारी

  • कक्षा I में पुत्र, पुत्री, विधवा, माता, पुत्र के पुत्र/पुत्री, पुत्री के पुत्र/पुत्री आदि शामिल होते हैं।
  • कक्षा II में भाई, बहन, पिता के भाई, पिता की बहन आदि आते हैं।

3. संशोधन अधिनियम, 2005

हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 एक ऐतिहासिक परिवर्तन लेकर आया:

  • पुत्री को भी जन्म से ही कोपार्सनर (coparcener) घोषित किया गया।
  • अब पुत्री को भी पैतृक संपत्ति में उसी प्रकार का अधिकार प्राप्त है जैसा कि पुत्र को होता है।
  • विवाह के उपरांत भी पुत्री का यह अधिकार बना रहता है।
  • यह संशोधन लैंगिक समानता की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम माना गया।

संयुक्त हिंदू परिवार और कोपार्सनरी संपत्ति

मिताक्षरा कानून के अंतर्गत संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति को कोपार्सनरी संपत्ति कहा जाता है, जिसमें पूर्व में केवल पुरुष सदस्य ही सह-अधिकार रखते थे।
संशोधन के बाद, पुत्रियों को भी कोपार्सनरी सदस्य माना गया, जिससे वे न केवल उत्तराधिकार में भागीदारी, बल्कि परिवार की संपत्ति के नियंत्रण में भी हिस्सेदार बन गईं।


महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय

1. Vineeta Sharma v. Rakesh Sharma (2020)

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पुत्री को जन्म से ही कोपार्सनरी अधिकार प्राप्त होता है, चाहे उसके पिता की मृत्यु संशोधन से पहले हुई हो या बाद में।

2. Prakash v. Phulavati (2016)

इस निर्णय में कहा गया था कि संशोधन अधिनियम केवल उन्हीं मामलों में लागू होगा, जहां पिता और पुत्री दोनों 2005 में जीवित हों
बाद में, विनिता शर्मा केस में इस पर पुनर्विचार कर दिया गया।


समाज पर प्रभाव

  1. महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता को बल मिला।
  2. संयुक्त परिवारों की संपत्ति पर महिलाओं की स्थिति सशक्त हुई।
  3. कानूनी रूप से पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता स्थापित हुई।
  4. कई रूढ़िगत मान्यताओं और भेदभाव का अंत हुआ।

कुछ चुनौतियाँ और आलोचनाएँ

  • ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी पुत्रियों को संपत्ति से वंचित किया जाता है, सामाजिक दबाव के कारण।
  • कानूनी जागरूकता की कमी के चलते महिलाएं अपने अधिकारों का उपयोग नहीं कर पातीं।
  • व्यवहार में समानता आज भी एक चुनौती है, जबकि कानून में उसे मान्यता मिल चुकी है।
  • उत्तराधिकार विवादों की संख्या में वृद्धि, जिससे न्यायालयों पर अतिरिक्त बोझ पड़ा।

अन्य विशेषताएँ

  • विधवा पुनर्विवाह के बाद संपत्ति पर उसका अधिकार बना रहता है।
  • दत्तक संतान को भी उत्तराधिकार का वही अधिकार प्राप्त है, जो जैविक संतान को है।
  • यदि कोई उत्तराधिकारी हत्यारा है, तो उसे संपत्ति प्राप्त करने का अधिकार नहीं है।
  • विकासशील अवधारणाएं, जैसे समान-लैंगिक उत्तराधिकार या लिव-इन रिलेशनशिप में जन्मे बच्चों का अधिकार – इन पर भविष्य में कानूनी विकास अपेक्षित है।

निष्कर्ष

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 न केवल एक कानूनी प्रावधान है, बल्कि यह भारत के सामाजिक ढांचे में एक सुधारात्मक आंदोलन का प्रतीक है। यह अधिनियम सामाजिक न्याय, लैंगिक समानता और संवैधानिक मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है। विशेष रूप से 2005 के संशोधन ने इसे एक आधुनिक, समतामूलक और न्यायोचित विधि बना दिया है।

हालांकि, कानून बनाने से अधिक महत्वपूर्ण उसका प्रभावी क्रियान्वयन और सामाजिक स्वीकृति है। जब तक महिलाओं को जागरूकता, समर्थन और संरक्षण नहीं मिलेगा, तब तक यह कानून केवल कागज़ों तक सीमित रहेगा। इसलिए, न्यायिक व्याख्या, सामाजिक अभियान और कानूनी सहायता के माध्यम से ही इस अधिनियम के उद्देश्यों को पूरी तरह से साकार किया जा सकता है।