लेख शीर्षक:
“‘हिंदुओं में मोक्ष, इस्लाम में वक्फ’: सुप्रीम कोर्ट में आध्यात्मिक बनाम संवैधानिक तर्कों की टकराहट”
भूमिका:
सुप्रीम कोर्ट में चल रही वक्फ संपत्तियों से जुड़ी बहस अब केवल कानूनी और संपत्ति अधिकारों तक सीमित नहीं रही, बल्कि अब इसमें आध्यात्मिक, धार्मिक और दार्शनिक दृष्टिकोण भी सम्मिलित हो चुके हैं। इस बहस में केंद्र सरकार जहां वक्फ को ‘अल्लाह का’ बताते हुए उसकी विशेष धार्मिक स्थिति को रेखांकित कर रही है, वहीं वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. राजीव धवन ने इस पर एक गहरी और तात्त्विक चुनौती पेश की। उन्होंने यह तर्क दिया कि जैसे इस्लाम में वक्फ को अल्लाह से जोड़कर देखा जाता है, वैसे ही हिंदू धर्म में मोक्ष को अंतिम लक्ष्य माना गया है, न कि मंदिर की पूजा को।
मामले की पृष्ठभूमि:
विवादित वक्फ संपत्तियों पर अदालत में अंतरिम आदेशों के संदर्भ में बहस चल रही थी, जहां केंद्र सरकार ने तर्क दिया कि वक्फ ‘अल्लाह’ का होता है, और एक बार संपत्ति वक्फ हो जाए तो वह अब लौटा नहीं जा सकती। सरकार ने इसे धार्मिक मान्यता और स्थायी धार्मिक दान के रूप में प्रस्तुत किया।
वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन का प्रतिवाद:
राजीव धवन ने सरकार के इस दृष्टिकोण का गहराई से विरोध किया और एक संतुलित, संवैधानिक दृष्टिकोण रखने की आवश्यकता जताई।
उन्होंने कहा:
- “हिंदू धर्म में मोक्ष अंतिम लक्ष्य है, न कि मंदिर। वेदों में भी मंदिरों को हिंदू धर्म का अनिवार्य हिस्सा नहीं माना गया है।”
- “हिंदू धर्म व्यापक है – इसमें अग्नि, जल, वायु, वर्षा, सूर्य जैसी प्राकृतिक शक्तियों की पूजा को भी समान मान्यता दी गई है।”
- उनका तात्पर्य था कि यदि धर्मों के सिद्धांत इतने विविध और लचीले हैं, तो केवल किसी एक धर्म के विशेष धार्मिक प्रावधान को ‘अपरिवर्तनीय’ कह कर संपत्ति अधिकारों को स्थायी रूप से बांध देना न्यायिक दृष्टिकोण से खतरनाक हो सकता है।
धर्म बनाम संविधान का द्वंद्व:
यह बहस स्पष्ट रूप से एक बड़े सवाल की ओर इशारा करती है – क्या किसी धर्म के सिद्धांतों को संपत्ति कानूनों के ऊपर रखा जा सकता है?
- संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करते हैं, लेकिन साथ ही अनुच्छेद 300A के तहत संपत्ति का अधिकार एक संवैधानिक सुरक्षा भी है।
- क्या धार्मिक भावनाओं के आधार पर संपत्ति को हमेशा के लिए ‘निरस्त’ किया जा सकता है?
- क्या अदालत को धार्मिक भावनाओं को ‘न्यायिक रूप से स्थायी अधिकार’ की तरह मान्यता देनी चाहिए?
न्यायपालिका की भूमिका:
सुप्रीम कोर्ट ने अब तक इस बहस को गंभीरता से सुना है और यह संकेत दिए हैं कि वह किसी भी पक्ष के मूलभूत अधिकारों का हनन नहीं होने देगा।
न्यायालय के लिए यह निर्णय कानूनी, धार्मिक, और दार्शनिक तीनों धरातलों पर संतुलन बनाने की चुनौती है।
सारांश और निष्कर्ष:
इस केस ने एक गंभीर सवाल को जन्म दिया है: क्या धार्मिक दान को संवैधानिक अधिकारों से ऊपर रखा जा सकता है?
राजीव धवन का तर्क यह बताता है कि धर्मों में भी लचीलापन होता है, और उन्हें न्यायिक प्रक्रिया में ‘अपरिवर्तनीय’ मान लेना भविष्य में खतरे की घंटी हो सकता है।
वहीं सरकार का कहना है कि वक्फ कोई सामान्य दान नहीं, बल्कि ईश्वरीय समर्पण है।
यह मामला भारतीय न्याय व्यवस्था के इतिहास में एक अहम मोड़ साबित हो सकता है।