“हाईकोर्ट जजों के कामकाज का ऑडिट अनिवार्य”: सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता से न्याय प्रणाली में जवाबदेही की पहल

शीर्षक: “हाईकोर्ट जजों के कामकाज का ऑडिट अनिवार्य”: सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता से न्याय प्रणाली में जवाबदेही की पहल

प्रस्तावना:
भारत में न्यायपालिका को लोकतंत्र का एक मज़बूत स्तंभ माना जाता है। परंतु जब इस स्तंभ में ही सुस्ती, गैर-जवाबदेही और अनियमितता के आरोप लगें, तो यह पूरे न्यायिक तंत्र की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर देता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाईकोर्ट के जजों के कामकाज का ऑडिट करने का आदेश इसी चिंता की उपज है। यह आदेश न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति एन. कोटिस्वर सिंह की पीठ ने सुनाया और स्पष्ट रूप से कहा कि कई जज अनावश्यक ब्रेक लेते हैं, जिससे न्यायिक कार्य प्रभावित हो रहा है।


प्रकरण की पृष्ठभूमि:
मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में एक महत्वपूर्ण सुनवाई के दौरान पीठ ने कहा कि उन्हें विभिन्न हाईकोर्टों के जजों के विरुद्ध लगातार शिकायतें प्राप्त हो रही हैं, जिसमें विशेष रूप से उनके काम के प्रति शिथिलता और बार-बार अवकाश लेने की प्रवृत्ति पर ध्यान दिलाया गया। न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा:

“कुछ जज तो बेहद मेहनती हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो कभी कॉफी ब्रेक, कभी चाय ब्रेक, कभी निजी ब्रेक के नाम पर नियमित काम में बाधा डालते हैं।”


सुप्रीम कोर्ट का निर्देश और उद्देश्य:
इस संदर्भ में पीठ ने निर्देशित किया कि:

  1. हाईकोर्ट जजों के कामकाज का ऑडिट किया जाए।
  2. यह देखा जाए कि उनके कार्य की गुणवत्ता और मात्रा के अनुपात में सरकारी संसाधनों का उपयोग कितना उचित है।
  3. यह समय है कि कार्य निष्पादन (Performance Evaluation) के आधार पर जवाबदेही तय की जाए।

इसका उद्देश्य न केवल काम में सुधार लाना है, बल्कि न्यायिक प्रणाली में पारदर्शिता और जवाबदेही को सुनिश्चित करना भी है।


महत्त्वपूर्ण प्रश्न:
यह निर्णय कई बड़े सवाल उठाता है:

  • क्या उच्च न्यायालयों में कार्य संस्कृति में गिरावट आई है?
  • क्या न्यायिक स्वायत्तता के नाम पर गैर-जवाबदेही को बढ़ावा दिया गया?
  • क्या कार्य निष्पादन का मूल्यांकन आवश्यक नहीं हो गया है, जैसे अन्य सेवाओं में होता है?

न्यायपालिका की गरिमा बनाम जवाबदेही:
हालाँकि, यह भी आवश्यक है कि ऑडिट और मूल्यांकन प्रक्रिया न्यायिक स्वतंत्रता को प्रभावित न करे। यह प्रक्रिया संवैधानिक मर्यादाओं और जजों के गरिमामय पद की रक्षा करते हुए की जानी चाहिए, ताकि न्यायिक प्रणाली में जनता का विश्वास बना रहे।


निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय न्यायपालिका के भीतर एक आवश्यक और बहुप्रतीक्षित सुधार का संकेत है। यह फैसला बताता है कि कोई भी संस्था, चाहे वह कितनी भी स्वायत्त क्यों न हो, जवाबदेही से परे नहीं है। यदि इस ऑडिट प्रक्रिया को पारदर्शी, निष्पक्ष और संवैधानिक दायरे में रहकर लागू किया जाए, तो यह भारतीय न्याय व्यवस्था में नवीन ऊर्जा और भरोसे का संचार कर सकती है।