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‘हर स्तर पर बेईमानी’: आखिर क्यों इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यूपी के जन्म प्रमाणपत्र सिस्टम को ‘A Mess’ कहा?

‘हर स्तर पर बेईमानी’: आखिर क्यों इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यूपी के जन्म प्रमाणपत्र सिस्टम को ‘A Mess’ कहा?

एक गहन विश्लेषण

       भारत में जन्म और मृत्यु का पंजीकरण मात्र प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह नागरिक के अस्तित्व, अधिकार, पहचान और कानूनी सुरक्षा की नींव है। चाहे आधार कार्ड बनवाना हो, स्कूल में प्रवेश लेना हो, पासपोर्ट के लिए आवेदन करना हो, सरकारी योजनाओं का लाभ लेना हो या अदालतों में अपने अधिकारों की रक्षा करनी हो—जन्म प्रमाणपत्र (Birth Certificate) वह मूल दस्तावेज है जिससे सरकारी और कानूनी पहचान की शुरुआत होती है।

         ऐसे में यदि जन्म और मृत्यु रजिस्ट्रेशन सिस्टम में खामियां हों, भ्रष्टाचार हो, देरी हो या रिकॉर्ड असंगत हों, तो नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन होने में देर नहीं लगती। हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट की एक टिप्पणी ने पूरे उत्तर प्रदेश की जन्म रजिस्ट्रेशन प्रणाली की पोल खोल दी। कोर्ट ने इसे “हर स्तर पर बेईमानी” और “पूरी तरह अव्यवस्थित सिस्टम” (A Mess) कहा। यह टिप्पणी केवल किसी एक केस के संदर्भ में नहीं थी, बल्कि व्यापक रूप से उस स्थिति का संकेत थी जिसमें लाखों नागरिक रोजाना फंस जाते हैं।

         इस विस्तृत लेख में हम समझेंगे—आखिर हाईकोर्ट ने ऐसा क्यों कहा? उत्तर प्रदेश में जन्म प्रमाणपत्र व्यवस्था की क्या वास्तविक स्थिति है? कानून क्या कहता है? समस्याएँ क्या हैं? और आगे क्या समाधान हो सकते हैं?


1. मामला क्या था? संदर्भ की पृष्ठभूमि

       इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक याचिका आई जिसमें याची ने शिकायत की कि उसका वास्तविक जन्मदिन गलत तरीके से दर्ज हो गया है और संबंधित प्राधिकारी उसे सुधारने में बहानेबाज़ी कर रहे हैं। दस्तावेज़ों का मिलान, रिकॉर्ड की उपलब्धता, नगर निकाय अधिकारियों की लापरवाही—सब कुछ मिलाकर पूरा सिस्टम दुखद और अराजक प्रतीत हुआ।

        जब मामला न्यायालय के सामने आया तो रिकॉर्ड देखकर जजों ने गहरा असंतोष जताया। अधिकारियों की ओर से बार-बार दिए गए उल्टे-सीधे जवाबों, दस्तावेजों की अनुपलब्धता और रिकॉर्ड में भारी विसंगतियों ने साबित कर दिया कि सिस्टम केवल त्रुटिपूर्ण ही नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार और लापरवाही से भरा हुआ है।

        इसी संदर्भ में हाईकोर्ट ने काटेदार शब्दों में कहा कि:
“जन्म प्रमाणपत्र प्रणाली हर स्तर पर बेईमानी और कुप्रबंधन से भरी है। ऐसा लगता है कि पूरा सिस्टम एक गहरे गड्ढे में गिर चुका है।”


2. जन्म प्रमाणपत्र क्यों है इतना महत्वपूर्ण?

जन्म प्रमाणपत्र केवल कागज़ का टुकड़ा नहीं है; यह व्यक्ति के जीवन का पहला कानूनी सबूत है। इसका सीधा असर पड़ता है:

पहचान

आधार कार्ड, राशन कार्ड, पैन कार्ड आदि बनाने में सबसे पहला दस्तावेज़ जन्म तिथि प्रमाण होता है।

शिक्षा

स्कूल एडमिशन में बच्चे की जन्म तिथि का प्रमाण अनिवार्य है। गलत जन्म तिथि भविष्य में कई कानूनी समस्याएं पैदा कर सकती है।

सरकारी योजनाएँ

बाल संरक्षण, मातृत्व योजनाएँ, छात्रवृत्तियाँ, पासपोर्ट, ड्राइविंग लाइसेंस—हर जगह जन्म प्रमाणपत्र की जरूरत पड़ती है।

कानूनी कार्यवाही

उम्र के विवादों में, बाल मजदूरी मामलों में, नाबालिगता से जुड़े मामलों में, कोर्ट जन्म प्रमाणपत्र को प्राथमिक आधार मानता है।

यही कारण है कि इस दस्तावेज़ की सत्यता और पारदर्शिता अत्यंत आवश्यक है।


3. यूपी में जन्म-मृत्यु रजिस्ट्रेशन का कानूनी ढांचा

भारत में जन्म और मृत्यु का पंजीकरण जन्म और मृत्यु पंजीकरण अधिनियम, 1969 (Registration of Births and Deaths Act, 1969) के तहत किया जाता है।

मुख्य प्रावधान:

  • जन्म 21 दिनों के भीतर दर्ज किया जाना चाहिए।
  • देरी होने पर शपथपत्र और अतिरिक्त दस्तावेजों की आवश्यकता होती है।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में ग्राम पंचायत, शहरी क्षेत्रों में नगर निगम/नगरपालिका यह कार्य करते हैं।
  • अधिकारी के लिए रिकॉर्ड को सुरक्षित रखना कानूनी दायित्व है।

लेकिन सबसे बड़ी समस्या यही है—यूपी के अधिकांश क्षेत्रों में रिकॉर्ड ही सुरक्षित नहीं रखे जाते!


4. हाईकोर्ट को ‘A Mess’ क्यों लगा? प्रमुख समस्याएँ

यहाँ हम उन प्रमुख मुद्दों पर विस्तार से चर्चा करेंगे जिनके कारण हाईकोर्ट को इतनी कठोर टिप्पणी करनी पड़ी।


(1) रिकॉर्ड की भारी-भरकम विसंगतियाँ

हाईकोर्ट के सामने आए कई मामलों में पाया गया कि:

  • प्रविष्टियाँ बिना सत्यापन के कर दी जाती हैं
  • पुराने रिकॉर्ड मिलते ही नहीं
  • डिजिटल पोर्टल और मैनुअल रजिस्टर में तिथि अलग-अलग
  • एक ही व्यक्ति के नाम के दो-दो रिकॉर्ड

यह स्पष्ट रूप से भ्रष्टाचार और डेटा-मैनेजमेंट की विफलता का परिणाम है।


(2) जन्मतिथि बदलवाने की प्रक्रिया में भ्रष्टाचार

यूपी में जन्मतिथि बदलवाने के मामले सबसे ज्यादा आते हैं।
अक्सर दो स्थितियां पाई गईं—

  • गलती अधिकारियों द्वारा की जाती है
  • सुधार करवाने के लिए नागरिक से ‘सुविधा शुल्क’ (Bribe) मांगा जाता है

कोर्ट ने रिकॉर्ड पर पाया कि कई मामलों में बिना अधिकारी की मिलीभगत के गलत प्रविष्टियाँ संभव ही नहीं थीं।


(3) ऑनलाइन प्रणाली सही, लेकिन अधिकारी उदासीन

Government ने UP Civil Registration System (UPCRS) नामक ऑनलाइन पोर्टल बनाया है।
लेकिन हाईकोर्ट के अनुसार—

  • अधिकारी डेटा अपडेट नहीं करते
  • नागरिकों को गलत सलाह दी जाती है
  • वेबसाइट पर दर्ज डेटा और कार्यालयों के रिकॉर्ड मेल नहीं खाते

यानी तकनीक है लेकिन मानसिकता पुरानी।


(4) ग्रामीण क्षेत्रों में सबसे खराब स्थिति

हाईकोर्ट ने देखा कि ग्रामीण यूपी में:

  • रजिस्टर कच्चे कमरों में रखे जाते हैं
  • कई जगह रजिस्टर गुम हो जाते हैं
  • पुराने रिकॉर्ड को डिजिटलाइज करने में भारी लापरवाही
  • पंचायत सचिवों के पास प्रशिक्षण की कमी

नतीजा— गरीब, अशिक्षित और ग्रामीण नागरिक सबसे ज्यादा परेशान होते हैं।


5. कोर्ट की तीखी टिप्पणियाँ – ‘हर स्तर पर बेईमानी’ क्यों बोला गया?

हाईकोर्ट ने कहा कि सिस्टम में:

  • लापरवाही
  • भ्रष्टाचार
  • रिकॉर्ड का अव्यवस्थित प्रबंधन
  • नागरिकों को गुमराह करना
  • जिम्मेदारी से बचना

जैसी समस्याएँ गहराई तक मौजूद हैं।

जज ने यहां तक कहा कि—
“Record keeping is a joke. Officials don’t even know what the law mandates.”

यह टिप्पणी दिखाती है कि कोर्ट कितनी गंभीरता से इस मामले को देख रहा है।


6. नागरिकों के लिए इन समस्याओं का क्या असर?

(1) सरकारी लाभों से वंचित होना

गलत तिथि या गलत नाम के कारण लोगों को—

  • सरकारी नौकरी
  • छात्रवृत्ति
  • योजना का लाभ
  • पासपोर्ट
  • आधार कार्ड
  • पेंशन

तक से वंचित होना पड़ सकता है।

(2) न्यायिक मामलों में परेशानी

जन्म तिथि विवाद का कोर्ट में सबसे विश्वसनीय प्रमाण जन्म प्रमाणपत्र ही है।
गलत रिकॉर्ड व्यक्ति के पूरे जीवन को प्रभावित कर सकता है।

(3) बच्चों के स्कूल प्रवेश में समस्या

स्कूल उम्र तय करने में इसी दस्तावेज़ पर भरोसा करते हैं।
गलत माहिती से बच्चे के भविष्य पर असर पड़ता है।

(4) सुधार में महीनों की देरी

नागरिक महीनों ऑफिसों के चक्कर काटते हैं।
कई जगह रिश्वत दिए बिना सुधार नहीं होते।


7. क्या कहते हैं विशेषज्ञ?

कई विधि विशेषज्ञों के अनुसार—

  • जन्म व मृत्यु रजिस्ट्रेशन भारत में सबसे अधिक उपेक्षित क्षेत्र है
  • कर्मचारियों का प्रशिक्षण कम है
  • जवाबदेही का अभाव है
  • पुराना डेटा डिजिटलाइज करने में सरकारी उदासीनता है

एक विशेषज्ञ ने कहा—
“जब तक अधिकारियों की जिम्मेदारी तय नहीं होगी, सिस्टम सुधरना मुश्किल है।”


8. सरकार ने क्या दलीलें दीं?

सरकारी वकील ने कोर्ट में कहा कि:

  • ऑनलाइन सिस्टम बेहतर काम कर रहा है
  • ज्यादातर रिकॉर्ड अब डिजिटल हैं
  • अधिकारियों को निरंतर निर्देश दिए जा रहे हैं

लेकिन कोर्ट ने इसे कागज़ी दलील माना और कहा कि जमीनी स्थिति देखें तो प्रशासन का दावा खोखला है।


9. हाईकोर्ट ने सुधार के लिए क्या निर्देश दिए?

कोर्ट ने माना कि यह केवल एक व्यक्ति की समस्या नहीं, बल्कि राज्यव्यापी संकट है।
इसलिए कोर्ट ने निर्देश दिए:

  • राज्य सरकार पूरे सिस्टम का ऑडिट करवाए

पुराने रिकॉर्ड की समीक्षा और डिजिटलाइजेशन अनिवार्य किया जाए।

  • जिम्मेदारी तय की जाए

गलत प्रविष्टियों, भ्रष्टाचार या लापरवाही के लिए जिम्मेदार अधिकारी पर कार्रवाई हो।

  • सुधार के लिए SOP (Standard Procedure) जारी हो

सभी जिलों में एकसमान प्रक्रिया हो।

  • शिकायत निवारण तंत्र मजबूत किया जाए

नागरिकों को सरल और समयबद्ध समाधान मिले।


10. आगे का रास्ता – क्या सुधर सकता है सिस्टम?

भारत की डिजिटल सरकार बनने की दिशा में जन्म-मृत्यु रजिस्ट्रेशन का सुधार एक महत्वपूर्ण कदम है। उत्तर प्रदेश में सुधार संभव है यदि:

(1) पूर्ण डिजिटलाइजेशन

सभी पुराने रिकॉर्ड स्कैन और ऑनलाइन उपलब्ध हों।

(2) अधिकारियों का प्रशिक्षण

कानून और डिजिटल प्रक्रिया दोनों पर।

(3) सख्त निगरानी

जवाबदेही तय हो।

(4) कोई भी सुधार समयबद्ध हो

30 दिनों के भीतर समाधान हो।

(5) भ्रष्टाचार-रोधी तंत्र

रिश्वत लेने वालों पर सख्त कार्रवाई।

(6) ग्राम स्तर पर डेटा एंट्री ऑपरेटर नियुक्त किए जाएँ

पंचायत स्तर पर सबसे ज्यादा दिक्कतें हैं।


11. निष्कर्ष

      इलाहाबाद हाईकोर्ट की टिप्पणी महज एक आलोचना नहीं, बल्कि चेतावनी है कि यदि जन्म-मृत्यु रजिस्ट्रेशन प्रणाली में सुधार नहीं किया गया तो नागरिकों के मूलभूत अधिकार प्रभावित होंगे। यह मामला प्रशासन की विफलता का गंभीर उदाहरण है और यह सिद्ध करता है कि टेक्नोलॉजी तभी कारगर है जब जिम्मेदार लोग ईमानदारी से काम करें।

      जन्म प्रमाणपत्र किसी व्यक्ति की जिंदगी का पहला कानूनी दस्तावेज़ है—इसकी सत्यता, पारदर्शिता और विश्वसनीयता सुनिश्चित करना राज्य का संवैधानिक दायित्व है।
अब उम्मीद है कि अदालत द्वारा उठाए गए सवाल और निर्देश प्रणालीगत सुधार का मार्ग प्रशस्त करेंगे।