शीर्षक: “हर दिन सैकड़ों कुत्तों के काटने की घटनाएं: सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में आवारा कुत्तों के हमलों पर स्वयं संज्ञान लिया”
प्रस्तावना
देश की राजधानी दिल्ली में आवारा कुत्तों द्वारा बच्चों और आम नागरिकों पर लगातार हो रहे हमलों ने एक गंभीर समस्या का रूप ले लिया है। हाल ही में एक मीडिया रिपोर्ट में यह चौंकाने वाला खुलासा हुआ कि दिल्ली में हर दिन सैकड़ों लोग, विशेष रूप से बच्चे, आवारा कुत्तों का शिकार बन रहे हैं। इस रिपोर्ट के आधार पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने स्वतः संज्ञान (Suo Motu Cognizance) लेते हुए केंद्र और दिल्ली सरकार से जवाब तलब किया है। यह कदम न केवल बच्चों की सुरक्षा के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि इससे देशभर में आवारा पशुओं की समस्या पर गहन विमर्श की शुरुआत भी मानी जा रही है।
समस्या का गंभीर रूप
दिल्ली जैसे अत्याधुनिक और सुसज्जित महानगर में अगर नागरिक सड़क पर सुरक्षित न हों, तो यह एक चिंताजनक स्थिति को दर्शाता है। आवारा कुत्तों द्वारा काटे जाने की घटनाएं अब असामान्य नहीं रहीं। अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों में हर दिन सैकड़ों लोग रेबीज के डर से टीकाकरण के लिए पहुंचते हैं। रिपोर्ट के अनुसार, अकेले दिल्ली में प्रतिदिन औसतन 200 से अधिक डॉग बाइट (Dog Bite) के मामले दर्ज किए जाते हैं। खासकर झुग्गी-झोपड़ी क्षेत्रों और स्कूल जाने वाले बच्चों के लिए यह एक भयानक अनुभव बन चुका है।
सुप्रीम कोर्ट की चिंता और कदम
सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया रिपोर्ट पर स्वतः संज्ञान लेते हुए कहा कि यह केवल पालतू पशुओं या जानवरों के अधिकारों का मामला नहीं है, बल्कि नागरिकों के जीवन और व्यक्तिगत सुरक्षा का भी विषय है। न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह कहा कि “अगर बच्चे स्कूल जाते हुए या पार्क में खेलते हुए घायल हो रहे हैं, तो यह स्थिति मौन बैठकर देखने की नहीं है।”
सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में केंद्र सरकार, दिल्ली नगर निगम (MCD), दिल्ली सरकार और पशुपालन विभाग को नोटिस जारी कर स्थिति स्पष्ट करने को कहा है। साथ ही कोर्ट ने इस विषय को एक मानवाधिकार और सार्वजनिक सुरक्षा का मुद्दा मानते हुए समयबद्ध समाधान की अपेक्षा की है।
कानूनी और संवैधानिक दृष्टिकोण
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 – जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार – प्रत्येक नागरिक को सुरक्षित और गरिमामय जीवन जीने की गारंटी देता है। जब कोई व्यक्ति सिर्फ इसलिए असुरक्षित महसूस करे क्योंकि सार्वजनिक स्थानों पर उसकी जानवरों से सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की गई है, तो यह राज्य की विफलता मानी जाती है।
इसके अलावा, भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 289 के तहत यदि कोई व्यक्ति ऐसे खतरनाक जानवर को खुला छोड़ता है, जिससे किसी की जान को खतरा हो, तो वह अपराध की श्रेणी में आता है। हालांकि यह पालतू जानवरों पर अधिक लागू होता है, लेकिन आवारा जानवरों के संदर्भ में भी प्रशासनिक जिम्मेदारी बनती है।
स्थानीय निकायों की लापरवाही
दिल्ली नगर निगम (MCD) और अन्य स्थानीय निकायों को पशु नियंत्रण कार्यक्रम, नसबंदी अभियान (Animal Birth Control – ABC Programme), और टीकाकरण कार्यों के लिए बजट तो आवंटित होता है, परंतु अक्सर ये योजनाएं कागजों तक ही सीमित रह जाती हैं। कुत्तों की संख्या कम करने के लिए आवश्यक नसबंदी या टीकाकरण कार्य समय पर नहीं होते, जिससे इनकी आबादी अनियंत्रित हो रही है।
MCD के आंकड़ों के अनुसार, दिल्ली में लगभग 3 लाख से अधिक आवारा कुत्ते हैं। परंतु वास्तव में इनकी संख्या इससे कहीं अधिक मानी जाती है। नसबंदी की दर बहुत धीमी है और निगरानी प्रणाली लगभग निष्क्रिय पड़ी है।
बच्चों और माता-पिता का भय
शहरी झुग्गियों, सरकारी स्कूलों और सार्वजनिक पार्कों में रहने वाले बच्चे सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं। छोटे बच्चों के साथ आवारा कुत्तों का हमला न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक आघात का कारण बनता है। रेबीज जैसी जानलेवा बीमारियों का डर माता-पिता को बच्चों को बाहर भेजने से रोक रहा है।
एक घटना में, दिल्ली के मंगोलपुरी इलाके में एक 5 वर्षीय बच्चा स्कूल जाते समय कुत्तों के झुंड का शिकार बन गया, जिसे कई टांके और टीकाकरण की आवश्यकता पड़ी। ऐसी घटनाएं आम होती जा रही हैं और प्रशासनिक निष्क्रियता ने इसे और गंभीर बना दिया है।
संभावित समाधान
सुप्रीम कोर्ट की पहल अब इस समस्या के समाधान की दिशा में आशा की किरण मानी जा रही है। लेकिन इसके लिए कुछ ठोस कदम उठाने होंगे, जैसे:
- सघन नसबंदी अभियान – आवारा कुत्तों की अनियंत्रित आबादी को नियंत्रित करने के लिए नगर निकायों को बड़े स्तर पर नसबंदी कार्यक्रम चलाना होगा।
- टीकाकरण और निगरानी – रेबीज जैसे रोगों से सुरक्षा के लिए सभी कुत्तों का नियमित टीकाकरण आवश्यक है।
- शरणस्थलों का निर्माण – आवारा कुत्तों के लिए सरकारी और NGO स्तर पर शेल्टर होम बनाए जाएं, जहां उन्हें भोजन, चिकित्सा और संरक्षण मिल सके।
- सामुदायिक सहभागिता – स्थानीय नागरिकों को शिक्षित करना और उन्हें इसमें भागीदार बनाना ताकि वे खुद भी इन कार्यक्रमों में योगदान दे सकें।
- कानूनी दायित्व और जवाबदेही – नगर निगमों को जवाबदेह बनाना होगा और सुप्रीम कोर्ट को समय-समय पर रिपोर्टिंग के निर्देश देने होंगे।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट द्वारा लिया गया यह स्वतः संज्ञान केवल दिल्ली ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए एक चेतावनी है कि यदि सार्वजनिक स्वास्थ्य और सुरक्षा को नजरअंदाज किया गया, तो इसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं। आवारा कुत्तों की समस्या से निपटना सिर्फ पशुप्रेम या अधिकारों का मुद्दा नहीं है, यह मानवाधिकार और सार्वजनिक उत्तरदायित्व का प्रश्न है। अब समय आ गया है कि केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर इस दिशा में समन्वित और संवेदनशील कदम उठाएं, ताकि हर बच्चा और नागरिक सड़कों पर निडर होकर चल सके।