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“हम यह समझने में असमर्थ हैं कि गवाह को शत्रुतापूर्ण क्यों घोषित किया गया”: सुप्रीम कोर्ट ने गवाहों को यांत्रिक रूप से ‘Hostile’ घोषित करने की प्रथा पर की तीखी टिप्पणी

“हम यह समझने में असमर्थ हैं कि गवाह को शत्रुतापूर्ण क्यों घोषित किया गया”: सुप्रीम कोर्ट ने गवाहों को यांत्रिक रूप से ‘Hostile’ घोषित करने की प्रथा पर की तीखी टिप्पणी


परिचय

भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में “शत्रुतापूर्ण गवाह” (Hostile Witness) की अवधारणा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। गवाह किसी मुकदमे की रीढ़ होता है, क्योंकि उसकी गवाही ही सत्य और न्याय के बीच पुल का कार्य करती है। लेकिन अक्सर यह देखा गया है कि अभियोजन पक्ष (prosecution) या बचाव पक्ष (defence) बिना पर्याप्त कारण बताए गवाह को शत्रुतापूर्ण घोषित करवा देते हैं।
हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court of India) ने इस प्रवृत्ति की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि अदालतें और अभियोजन पक्ष “यांत्रिक रूप से” (mechanically) गवाहों को hostile घोषित करने की आदत डाल चुके हैं, जबकि ऐसा करना न केवल न्यायिक विवेक (judicial discretion) का दुरुपयोग है बल्कि यह अभियोजन प्रक्रिया की गंभीरता को भी कम करता है।


मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला एक आपराधिक अपील से संबंधित था, जिसमें निचली अदालतों ने एक प्रमुख गवाह को ‘hostile’ घोषित कर दिया था, जबकि उसकी गवाही में अभियोजन के पक्ष में महत्वपूर्ण तत्व मौजूद थे।
अभियोजन ने अदालत से अनुरोध किया कि इस गवाह को hostile घोषित किया जाए, और अदालत ने बिना विस्तृत कारण दर्ज किए उस अनुरोध को स्वीकार कर लिया।

सुप्रीम कोर्ट की पीठ — जिसमें न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति अर्जुन राम मेहता शामिल थे — ने इस प्रवृत्ति पर चिंता जताई और कहा कि “हम यह समझने में असमर्थ हैं कि इस गवाह को hostile घोषित करने की आवश्यकता क्यों पड़ी, जबकि उसकी गवाही अभियोजन के मामले को समर्थन दे रही थी।”


Hostile Witness की कानूनी अवधारणा

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (Indian Evidence Act, 1872) की धारा 154 के तहत अदालत को यह विवेकाधिकार (discretion) प्राप्त है कि वह अभियोजन पक्ष को अपने गवाह से प्रतिपरीक्षा (cross-examination) करने की अनुमति दे, यदि वह गवाह शत्रुतापूर्ण व्यवहार प्रदर्शित करता है या अपने पहले दिए गए बयान से मुकर जाता है।
हालांकि, अदालत यह अधिकार “विवेकपूर्ण और सावधानीपूर्वक” प्रयोग कर सकती है। यह कोई स्वचालित प्रक्रिया नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “धारा 154 का उद्देश्य अभियोजन को सहायता देना है, न कि उसे इस प्रकार का स्वतंत्र अधिकार देना कि वह अपनी सुविधा से किसी भी गवाह को hostile घोषित कर दे।”


सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी

न्यायालय ने कहा —

“We are at a loss to understand why the witness was treated as hostile when his deposition supported the prosecution’s case. Judicial discretion cannot be exercised in a mechanical manner.”

इस टिप्पणी का अर्थ यह है कि अदालतों को हर मामले में यह देखना चाहिए कि क्या वास्तव में गवाह hostile हुआ है या केवल आंशिक रूप से बयान में परिवर्तन आया है।
कोर्ट ने आगे कहा कि “Hostility” का अर्थ यह नहीं कि गवाह ने कुछ अंशों में अभियोजन से अलग कहा — बल्कि यह देखना आवश्यक है कि उसकी पूरी गवाही अभियोजन के लिए हानिकारक है या नहीं।


साक्ष्य का मूल्यांकन आवश्यक

सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि केवल “hostile” शब्द लग जाने से गवाह की पूरी गवाही बेकार नहीं हो जाती।
कोर्ट ने कहा —

“Even if a witness is declared hostile, his testimony does not become effaced from the record; it continues to exist and can be relied upon to the extent it supports the prosecution or defence.”

इस प्रकार, अदालत ने यह दोहराया कि न्यायाधीश का दायित्व है कि वह हर बयान का स्वतंत्र मूल्यांकन करे, न कि केवल लेबल देखकर उसे अस्वीकार कर दे।


न्यायालय की चिंता: न्यायिक विवेक ‘Autopilot’ पर क्यों?

कोर्ट ने गंभीर चिंता जताते हुए कहा कि कई निचली अदालतें अभियोजन के अनुरोध पर बिना पर्याप्त कारण बताए गवाहों को hostile घोषित कर देती हैं।

“Judicial discretion cannot operate on autopilot. The court must record reasons as to why such permission is being granted under Section 154.”

यह टिप्पणी भारतीय न्याय प्रणाली में चल रही एक पुरानी समस्या को उजागर करती है — जहां अदालतें अक्सर अभियोजन की मांगों को बिना गहराई से जांचे स्वीकार कर लेती हैं। इससे न केवल मुकदमे की निष्पक्षता प्रभावित होती है, बल्कि अभियोजन के पेशेवर मानकों पर भी प्रश्न उठता है।


Hostile गवाह और न्याय प्रक्रिया पर प्रभाव

गवाह का hostile होना न्याय प्रक्रिया में कई कठिनाइयाँ पैदा करता है। जब कोई गवाह अपने बयान से पलटता है या अभियोजन के विरुद्ध जाता है, तो पूरे मामले की विश्वसनीयता प्रभावित होती है।
हालांकि, जब अदालतें बिना ठोस कारणों के गवाहों को hostile घोषित करती हैं, तो यह न्याय की विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि Hostility को केवल अभियोजन की सुविधा के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। यह एक गंभीर कानूनी कदम है जो केवल तब उठाया जाना चाहिए जब यह न्याय के हित में आवश्यक हो।


महत्वपूर्ण पूर्व निर्णयों का हवाला

इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई पुराने फैसलों का उल्लेख किया, जिनमें Sat Paul v. Delhi Administration (AIR 1976 SC 294) और State of U.P. v. Ramesh Prasad Misra (1996) शामिल हैं।
इन मामलों में अदालत ने यह सिद्धांत स्थापित किया था कि —

“Declaration of a witness as hostile does not render his entire evidence useless. Courts must segregate truthful portions from falsehood.”

सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि गवाह की गवाही को “पूरी तरह खारिज” करने का रवैया न्यायिक दृष्टि से अस्वीकार्य है।


अभियोजन की जिम्मेदारी

न्यायालय ने अभियोजन अधिकारियों (public prosecutors) को भी कड़ी चेतावनी दी। अदालत ने कहा कि अभियोजन को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि गवाह को hostile घोषित करने का अनुरोध केवल तब किया जाए जब वह गवाह वास्तव में अभियोजन के मामले को कमजोर कर रहा हो, न कि केवल बयान में कुछ असंगति आने पर।

कोर्ट ने कहा —

“The prosecutor is an officer of the court and not a party to the litigation. He must exercise utmost care and fairness before seeking to declare a witness hostile.”


न्यायपालिका की भूमिका

अदालत ने यह स्पष्ट किया कि न्यायाधीश को निष्क्रिय भूमिका नहीं निभानी चाहिए
जब अभियोजन धारा 154 के तहत अनुमति मांगता है, तो न्यायालय को यह जांचना चाहिए कि —

  1. क्या गवाह की गवाही वास्तव में अभियोजन के प्रतिकूल है?
  2. क्या उसे hostile घोषित करने के वैध कारण हैं?
  3. क्या इस कदम से मुकदमे की निष्पक्षता प्रभावित होगी?

यदि इन सवालों का उत्तर “हाँ” में नहीं है, तो अदालत को ऐसी अनुमति नहीं देनी चाहिए।


“Hostile without hostility?” — अदालत का व्यंग्यात्मक प्रश्न

सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में एक तीखा प्रश्न उठाया —

“Hostile without hostility? If a witness continues to support the prosecution in material particulars, what purpose does it serve to label him hostile?”

इस टिप्पणी के माध्यम से न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि “hostility” का लेबल लगाने से पहले अदालतों को तथ्यात्मक और कानूनी दोनों आधारों पर विचार करना चाहिए।


निर्णय का प्रभाव और भविष्य की दिशा

यह निर्णय न केवल अभियोजन और न्यायालयों के लिए एक चेतावनी है, बल्कि यह आपराधिक न्याय प्रणाली में पारदर्शिता और विवेक की आवश्यकता को भी रेखांकित करता है।
अब अदालतों से अपेक्षा की जाएगी कि वे hostile घोषणाओं को केवल औपचारिकता के रूप में न लें, बल्कि हर बार लिखित रूप में कारण दर्ज करें।

इससे गवाहों की सुरक्षा और साख भी बढ़ेगी, क्योंकि कई बार गवाह को “hostile” घोषित करना केवल उसे दबाव में लाने का तरीका बन जाता है।


कानूनी विशेषज्ञों की राय

कई कानूनी विद्वानों ने इस निर्णय का स्वागत किया है। उनका कहना है कि यह फैसला अभियोजन की जवाबदेही (accountability) और न्यायिक विवेक (judicial discipline) को मजबूत करेगा।
सीनियर एडवोकेट्स का मानना है कि अब lower courts को यह समझना होगा कि “hostility” कोई रूटीन प्रक्रिया नहीं बल्कि एक असाधारण कदम है।


निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय न्यायपालिका के लिए एक स्पष्ट मार्गदर्शक सिद्धांत प्रस्तुत करता है।
अदालतों और अभियोजन दोनों को यह समझना होगा कि “Hostile witness” का टैग केवल एक औपचारिकता नहीं है — यह एक गंभीर न्यायिक कदम है जिसे सोच-समझकर उठाया जाना चाहिए।

“Judicial discretion is not a ritual; it is a responsibility,” — यह कथन इस निर्णय की आत्मा को दर्शाता है।

अब यह अपेक्षा की जाती है कि निचली अदालतें गवाहों को “hostile” घोषित करने से पहले तथ्यों, परिस्थितियों और न्याय के व्यापक सिद्धांतों का गहराई से मूल्यांकन करें।
यह निर्णय न केवल अभियोजन की जिम्मेदारी को पुनः परिभाषित करता है, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया की गरिमा को भी सुदृढ़ करता है।


लेखक का निष्कर्ष:
यह फैसला न्यायिक विवेक के प्रयोग पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी है। अदालतों का उद्देश्य केवल प्रक्रियाओं का पालन करना नहीं, बल्कि न्याय का सजीव कार्यान्वयन करना है। गवाहों को “hostile” घोषित करने की यह “mechanical” प्रवृत्ति अगर समाप्त होती है, तो यह न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता और निष्पक्षता को नई ऊंचाई पर ले जाएगी।