हत्या के मामले में अग्रिम जमानत याचिका (द्वितीय)-प्रस्ताव पर: शिकायतकर्ता के मुखरता बदलने तथा जाँचाधीन स्थिति को देखते हुए पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का विवेचन
प्रस्तावना
वर्तमान में क्रिमिनल प्रैक्टिस में अग्रिम जमानत-प्रश्न (anticipatory bail) का विशेष महत्व है। विशेषकर गंभीर अपराधों जैसे हत्या (अनुबन्धीय अपराध) के मामले में, न्यायालयों को संतुलन बनाने की चुनौती होती है — एक ओर आरोपी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता, दूसरी ओर समाज व न्याय-प्रक्रिया की सुरक्षा। इस संदर्भ में, जब कोई आरोपी दूसरी याचिका प्रस्तुत करता है (पहली अग्रिम जमानत याचिका खारिज हो चुकी हो) और कहता है कि “शिकायतकर्ता (informant) ने अब आरोप-सहायक गवाही नहीं दी, व मुखरता बदल दी है (turned hostile)” तथा “मामला अभी जाँचाधीन है”, तो न्यायालय की भूमिका, विवेचना-दृष्टिकोण, एवं निर्णय-प्रक्रिया पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है।
पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने हाल ही में इस प्रकार की स्थिति में स्पष्ट रुख अपनाया है। उदाहरणस्वरूप, इस प्रकार से :
- न्यायमूर्ति Sumeet Goel की एक पीठ ने कहा है कि शिकायतकर्ता का मुखरता बदल जाना स्वतः अग्रिम जमानत का आधार नहीं बन सकता।
- यह भी माना गया कि दूसरी याचिका तब ही विन्यस्त (maintainable) होगी जब पहला आवेदन खारिज होने के बाद “सामग्री में महत्वपूर्ण बदलाव (substantial change in circumstances)” हो।
इन प्रवृत्तियों को ध्यान में रखते हुए, नीचे इस विषय का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत है — तथ्य-परिचय, कानूनी सिद्धांत, न्यायालय की प्रवृत्ति, मुख्य बिंदु एवं निष्कर्ष।
तथ्यात्मक पृष्ठभूमि
मान लीजिए एक हत्या-मामला (उदाहरणार्थ, FIR अंतर्गत §§ 302/34 IPC) दर्ज हुआ। आरोपी ने पहले अग्रिम जमानत-याचिका दायर की थी, किन्तु खारिज हो गई। उसके बाद, आरोपी ने दूसरी अग्रिम जमानत-याचिका दाखिल की जिसमें मुख्य नया आधार यह था:
- शिकायतकर्ता/सूचनाकर्ता (informant) अब प्रकरण में समर्थन नहीं कर रहा है, अर्थात् उसने अपनी शुरुआती दावा-गवाही से पीछे हटकर “हस्ताक्षरित बयान बदल लिया / गवाही विफल हुई” अर्थात् उसने मुखरता बदल ली है (hostile witness हो गया है)।
- जाँच अभी पूरी नहीं हुई है, अर्थात् मामला अभी चल रहा है, छानबीन/अधिग्रहण एवं सबूत-संग्रह अभी पूरा नहीं हुआ है।
- अन्य विशेष नए तथ्य नहीं प्रस्तुत किए गए, या वे काफी मामूली-प्रभाव वाले हों।
इस तरह की परिस्थिति पर अदालत को यह विचार करना होता है कि क्या यह “सामग्री-स्थिति में पर्याप्त बदलाव” है कि दूसरी याचिका स्वीकार की जाए; और क्या शिकायतकर्ता के बदले व्यवहार को अग्रिम जमानत-आधार बनाया जा सकता है।
पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि शिकायतकर्ता की मुखरता बदलना (turned hostile) अकेले अग्रिम जमानत के लिए पर्याप्त आधार नहीं होगा।
कानूनी सिद्धांत एवं प्रवृत्ति
1. अग्रिम जमानत की अवधारणा
अग्रिम जमानत, अर्थात् क्रिमिनल प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 438 के अंतर्गत, उस व्यक्ति को गिरफ्तारी-से पहले सुरक्षा प्रदान करना है जिसे गैर-जमानती अपराध के अंतर्गत नामजद किया गया हो।
इसकी स्वीकृति के लिए मानक मूलभूत हैं — जैसे कि आरोपी का सामाजिक परिचय, अपराध की गंभीरता, प्रजाति व प्रकृति, अभियोजन का सबूत-प्रारूप, गिरफ्तारी से पूर्व इन्क्वायरी-मामला, जाँचाधीन स्थिति इत्यादि।
2. दूसरी अग्रिम जमानत-याचिका (Repeat Petition)
जब पहली याचिका खारिज हो जाती है, तो दूसरी याचिका स्वयंत स्वतः स्वीकार्य नहीं होती। उच्च न्यायालयों ने यह माना है कि दूसरी याचिका तभी स्वीकार्य होगी जब पहली याचिका के बाद से “सामग्री-स्थितियों में महत्वपूर्ण बदलाव” (substantial change in circumstances) हुआ हो।
इसका अर्थ यह है कि सिर्फ समय-गत बदलाव या सामान्य तथ्यों में वृद्धि पर्याप्त नहीं होती, बल्कि ऐसा बदलाव होना चाहिए जिससे प्राथमिक अस्वीकृति के बाद न्याय-विचार के दृष्टिकोण से पुनः विचार करने का औचित्य बने।
3. शिकायतकर्ता/गवाह का मुखरता बदल जाना (Hostile Witness)
यह विवादित बिंदु है। कुछ अभियुक्त यह तर्क देते हैं कि यदि महत्वपूर्ण गवाह या शिकायतकर्ता मुखरता बदलकर पक्षविहीन हो गया है, तो अभियोजन की ताकत कमजोर हो गई है, अतः अग्रिम जमानत मिलनी चाहिए। किन्तु न्यायालयों ने यह स्पष्ट किया है कि इस अकेले तथ्य पर अग्रिम जमानत नहीं दी जा सकती। उदाहरणार्थ:
- पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने कहा: “The fact that the FIR-complainant has turned hostile may perhaps be a ground worth consideration for grant of regular bail but not for anticipatory bail.”
- ऐसा इसलिए क्योंकि अग्रीम जमानत के चरण पर, अभियोजन-प्रमाणीकरण (prima facie evidence) और जाँचाधीन स्थिति को पर्याप्त ध्यान देना होता है। गवाहों के बदलने का अर्थ यह नहीं कि अभियोजन का सम्पूर्ण मामला समाप्त हो गया हो; उनका पूर्व बयान अभी भी सबूत-सामग्री का हिस्सा है, और अन्य सबूत भी हो सकते हैं।
4. जाँचाधीन अवस्था का महत्व
यदि मामला अभी पूरी तरह जाँचाधीन है — साक्ष्य संग्रह, अभियोजन गवाहों का समायोजन, प्राथमिकी/पुलिस रिपोर्ट, मेडिकल/फोरेंसिक रिपोर्ट आदि अभी पूरे नहीं हुए — तो अग्रिम जमानत देना अतिरिक्त सावधानी-विषय बन जाता है। न्यायालयों ने इसे “बहुसंख्यक गवाह अभी शेष हैं”, “संभावना कि आरोपी जाँच में बाधा डालेगा” इत्यादि प्रकार से देखा है।
5. दंड-गंभीरता व सामाजिक हित
हत्या जैसे गंभीर अपराध में, न्यायालय ने यह माना है कि अग्रिम जमानत-प्रश्न में सामाजिक हित, न्याय-प्रक्रिया की निर्बाधता, आरोपी द्वारा गवाहों/प्रभावितों पर दबाव डालने की संभावना आदि का विशेष महत्व होता है।
पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट का रुख
उल्लेखनीय है कि पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने निम्नलिखित प्रमुख बिंदुओं पर अपना रुख स्पष्ट किया है:
- दूसरी अग्रिम जमानत-याचिका तभी स्वीकार्य होगी जब पहली याचिका खारिज हुए बाद से सामग्री-स्थितियों में पर्याप्त, महत्वपूर्ण बदलाव हुआ हो।
- शिकायतकर्ता का मुखरता बदल जाना एकमात्र नया आधार नहीं हो सकता; उससे यह तर्क नहीं बन जाता कि अभियोजन मामला पूरी तरह कमजोर हो गया है।
- केवल “शिकायतकर्ता ने समर्थन नहीं किया” साबित करना पर्याप्त नहीं कि अभियोजन पक्ष को सबूत-संकलन में कोई कमी हुई है या आरोपी को अग्रिम जमानत मिलनी चाहिए।
- जाँचाधीन अवस्था, गवाहों की संख्या व उनका बचे-हुए होना, गवाहों पर प्रभाव डालने की संभावना, आरोपी का गुप्त हो जाना या कानून-प्रक्रिया से भागना आदि स्थितियों को संज्ञान में लिया जाएगा।
- अग्रिम जमानत का उद्देश्य न्याय-प्रक्रिया को बाधित करना नहीं होना चाहिए; यदि आरोपी ने थाना गिरफ्त में भाग लिया हो, या जाँचाधीन अवस्था में गवाहों पर दबाव डालने का इतिहास हो, तो अग्रिम जमानत मना की जा सकती है।
विश्लेषण
उपर्युक्त सिद्धांतों व प्रवृत्तियों के आधार पर, हमारी स्थिति जिसे हम देख रहे हैं (हत्या का मामला, दूसरी अग्रिम जमानत याचिका, शिकायतकर्ता मुखरता बदल चुका है, जाँचाधीन) पर निम्नलिखित विश्लेषण प्रस्तुत है:
(i) क्या शिकायतकर्ता के मुखरता बदलने को “सामग्री-स्थिति में महत्वपूर्ण बदलाव” माना जा सकता है?
यह परिवर्तन निश्चित रूप से नया आधार हो सकता है, लेकिन न्यायालय का दृष्टिकोण यह रहा है कि यह अकेले “महत्वपूर्ण बदलाव” नहीं है। मुखरता बदलने का अर्थ है कि शिकायतकर्ता या गवाह अब पुराने बयान को समर्थन नहीं दे रहा। परंतु यह निम्न कारणों से पर्याप्त नहीं माना गया है:
- पुराने बयान अभी भी अभियोजन-संकलन का हिस्सा हैं; उनका अभिलेख मौजूद है; इसलिए यह नहीं समझा जा सकता कि ‘सबूत समाप्त हो गया’ हो।
- जब जाँचाधीन है, तो यह संभावना बनी रहती है कि अभियोजन अन्य गवाह-वस्तुएँ पेश करे, प्रभावितों पर दबाव कायम हो गया हो, आदि। इसलिए सिर्फ गवाह के बदलने से तत्काल अग्रिम जमानत देना खतरनाक हो सकता है।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि ‘मुखरता बदलना’ नियमतः नियमित जमानत (regular bail) के लिए विचार-योग्य हो सकता है, लेकिन अग्रिम जमानत (pre-arrest) के लिए नहीं अन्वेष्य।
(ii) जाँचाधीन अवस्था का प्रभाव
- मामला अभी जाँचाधीन है — यह गतिशीलता (dynamic investigation) का सूचक है। यदि अभियोजन को गवाहों के बयान अभी लेने हैं, सबूत जुटाने हैं, आरोपी से पूछताछ करनी है, नामजद करना है आदि, तो अग्रिम जमानत देना प्रक्रिया को प्रभावित कर सकता है। उच्च न्यायालय ने इसे विशेष रूप से दृष्टिगत रखा है।
- इसके अतिरिक्त, यदि प्रथम अग्रिम याचिका खारिज हो चुकी है, तब दूसरी याचिका के समय जाँच-प्रक्रिया में कितनी प्रगति हुई है, कितने गवाह अभी शेष हैं, क्या आरोपी ने जाँच में सहयोग किया या छिप गया — यह सभी कल-बिंदु बन जाते हैं।
(iii) गंभीरता व सामाजिक दृष्टि
- हत्या जैसे अपराध में आरोपी पर प्रत्यक्ष रूप से मृतक का जीवन समाप्त करने का आरोप है — अर्थात् अपराध की गंभीरता बेहद अधिक है। इस प्रकार की परिस्थितियों में न्यायालय स्वतंत्रता-विरोधी कदमों को अधिक सतर्कता से देखता है।
- यदि अग्रिम जमानत दे दी जाए और जाँच व अभियोजन बाधित हो जाए, तो यह न्याय-प्रक्रिया तथा समाज-विश्वास के दृष्टिकोण से प्रतिकूल हो सकता है।
(iv) दूसरी याचिका का दुरुपयोग-खतरा
- उच्च न्यायालय ने यह चिंता व्यक्त की है कि यदि दूसरी याचिका को किसी भी मामूली बदलाव पर स्वीकार कर लिया जाए, तो यह एक “नियंत्रण-रहित प्रक्रिया” बन सकती है जिसमें आरोपी बार-बार याचिकाएँ दायर कर प्रक्रिया खींच सकता है।
- इसलिए, “सामग्री में महत्वपूर्ण बदलाव” का मानदंड आवश्यक है।
निष्कर्ष एवं सुझाव
इस प्रकार, उक्त मामले-परिस्थिति के आधार पर निम्न निष्कर्ष निकलते हैं:
- शिकायतकर्ता का मुखरता बदल जाना अभी स्वयं में अग्रिम जमानत का अधिकार नहीं उत्पन्न करता।
- यदि दूसरी याचिका में सिर्फ यही नया-तथ्य प्रस्तुत किया गया है — “शिकायतकर्ता अब सहयोग नहीं कर रहा” — और अन्य कोई नया/विभिन्न तथ्य नहीं है, तो न्यायालय द्वारा उसे स्वीकृति देना कठिन होगा।
- मामला अभी जाँचाधीन है — इस स्थिति में अग्रिम जमानत को देने में अधिक सतर्कता आवश्यक है।
- दूसरी याचिका स्वीकार्यता हेतु यह देखना होगा कि पहली याचिका खारिज होने के बाद क्या नवीन व पर्याप्त तथ्य सामने आए हैं — जैसे: अभियोजन-सबूत कमजोर हुए हों, अभियोजन शक्ति बाहर हो गई हो, आरोपी द्वारा जमानत-अवधि में प्रभावशाली व्यवहार हुआ हो, गवाहों को भय-प्रेरणा मिली हो, आदि।
- यदि अभियुक्त की जाँचाधीन भूमिका, गवाहों पर दबाव-प्रवृत्ति, भागने-प्रवृत्ति आदि सामने हों, तो अग्रिम जमानत देने से बचना ही बेहतर है।
- अंततः, अग्रिम जमानत-निर्णय में न्याय-प्रक्रिया व सामाजिक हित के बीच संतुलन बनाना न्यायालय का दायित्व है — न कि सिर्फ आरोपी-स्वतंत्रता का पक्ष।
व्यवहारिक अनुशंसाएँ (एडवोकेट प्रेम कुमार निगम जी के लिए)
आपके मामले-संदर्भ में निम्न सुझाव उपयोगी होंगे:
- याचिका तैयार करते समय पहली याचिका-खारिज होने के बाद का कालखंड, उसमें जाँच-प्रगति, गवाहों की स्थिति को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करें।
- शिकायतकर्ता के मुखरता बदलने के पीछे के कारण, उस गवाही-परिवर्तन की प्रकृति (क्या तहत दबाव था, क्या परिवर्ती बयान किया गया, क्या प्रारंभिक बयान पुराना-प्रमाणित है) को विस्तार से बताएँ।
- जाँचाधीन स्थिति का विवरण दें — कितने गवाह शेष हैं, क्या आरोपी जांच-प्रक्रिया में भाग ले रहा है/लगा हुआ है, क्या किसी तरह की भागने-प्रवृत्ति पाई गई है, आदि।
- यदि संभव हो, तो नए अन्य तथ्यों को प्रस्तुत करें जो पहली याचिका के समय उपस्थित नहीं थे — जैसे अतिरिक्त मेडिकल/फोरेंसिक रिपोर्ट, अभियोजन-दस्तावेजों की प्रगति, गवाहों पर दबाव या प्रभाव की संभावना, आदि।
- ध्यान दें कि मुखरता बदलने को स्वतः मृत्युदर्शक (death knell) नहीं माना जा सकता; इसलिए अलग-अलग प्रमाणों (corroborative evidence) की स्थिति प्रस्तुत करना सहायक होगा।
- अग्रिम जमानत के आरंभिक याचिकाकाल में ‘भागने-प्रवृत्ति’, ‘गवाहों को प्रभावित करने की आशंका’, ‘साक्ष्य नष्ट होने का खतरा’ आदि बिंदुओं पर स्पष्ट विचार प्रस्तुत करना महत्त्वपूर्ण है।