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“हक में फैसला होने के बावजूद न्याय के लिए तरस रहे लोग: सुप्रीम कोर्ट

“हक में फैसला होने के बावजूद न्याय के लिए तरस रहे लोग: सुप्रीम कोर्ट ने निष्पादन याचिकाओं की भयावह स्थिति पर जताई चिंता”


प्रस्तावना

भारत के न्यायिक तंत्र की सबसे बड़ी ताकत यह है कि कोई भी नागरिक अन्याय के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है। परंतु जब किसी व्यक्ति को वर्षों की कानूनी लड़ाई के बाद अदालत से न्याय मिल जाता है, और फिर भी उसे उसका वास्तविक लाभ (fruits of decree) नहीं मिलता — तो यह न्याय व्यवस्था के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगा देता है।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने देशभर की अदालतों में लंबित 8,82,578 निष्पादन याचिकाओं (Execution Petitions) को लेकर गहरी नाराजगी और चिंता व्यक्त की। न्यायालय ने कहा कि यदि एक बार फैसला हो जाने के बाद भी व्यक्ति को उसका अधिकार प्राप्त करने में वर्षों लगते हैं, तो यह न्याय का उपहास (mockery of justice) है।


निष्पादन याचिका क्या होती है?

दीवानी प्रक्रिया संहिता, 1908 (Civil Procedure Code – CPC) के अंतर्गत जब किसी पक्ष के पक्ष में डिक्री (Decree) या आदेश (Order) पारित हो जाता है, तब उस निर्णय को लागू कराने के लिए एक प्रक्रिया दी गई है — जिसे निष्पादन (Execution) कहा जाता है।
यदि हारने वाला पक्ष (Judgment Debtor) स्वेच्छा से आदेश का पालन नहीं करता, तो विजयी पक्ष (Decree Holder) अदालत से अनुरोध करता है कि आदेश को बलपूर्वक लागू कराया जाए — यही प्रक्रिया Execution Petition कहलाती है।

इस प्रक्रिया का उद्देश्य है कि न्यायालय द्वारा पारित निर्णय केवल कागज पर नहीं रहे, बल्कि उसका वास्तविक प्रभाव समाज और संबंधित पक्षों तक पहुँचे।


सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि –

“यदि किसी डिक्री को लागू कराने में वर्षों लग जाते हैं, तो यह न्याय की आत्मा का अपमान है। न्याय तभी सार्थक है जब उसका लाभ समय पर मिले।”

न्यायालय ने यह भी कहा कि इतने विशाल पैमाने पर लंबित निष्पादन याचिकाएँ दर्शाती हैं कि हमारी न्यायिक प्रणाली में post-decree justice को लेकर गंभीर संरचनात्मक खामियाँ हैं। कोर्ट ने सभी High Courts को निर्देश दिया है कि वे इस समस्या से निपटने के लिए एक व्यवस्थित प्रक्रिया (systemic mechanism) तैयार करें, ताकि निष्पादन याचिकाओं का शीघ्र निस्तारण हो सके।


लंबित निष्पादन याचिकाओं के आँकड़े

केंद्रीय विधि मंत्रालय और नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड (NJDG) के आँकड़ों के अनुसार, देशभर में 8,82,578 निष्पादन याचिकाएँ लंबित हैं। इनमें से अधिकांश याचिकाएँ वर्षों से विभिन्न दीवानी अदालतों (Civil Courts) में पड़ी हैं।
कई मामलों में तो डिक्रीधारक की मृत्यु भी हो चुकी होती है, और उसके उत्तराधिकारी वर्षों से अदालतों के चक्कर लगा रहे होते हैं।

यह स्थिति केवल मामलों के बोझ (pendency) का नहीं, बल्कि न्यायिक प्रणाली की कार्यकुशलता (efficiency) का भी गहरा संकट दिखाती है।


न्याय का सिद्धांत: “Justice delayed is justice denied”

सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी “Justice delayed is justice denied” की भावना को और भी प्रासंगिक बना देती है। यदि न्याय मिलने में वर्षों लग जाएँ, या निर्णय के बाद उसका क्रियान्वयन न हो, तो यह न्याय न होकर केवल कानूनी औपचारिकता बनकर रह जाता है।

इस सन्दर्भ में Order 21 of CPC अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यही आदेश निष्पादन से संबंधित सम्पूर्ण प्रक्रिया को नियंत्रित करता है — चाहे वह चल संपत्ति की जब्ती (attachment) हो, अचल संपत्ति की नीलामी (auction) हो, या किरायेदार की बेदखली (eviction)


वास्तविकता: न्याय मिलने के बाद भी संघर्ष जारी

कई बार देखा गया है कि वर्षों की लड़ाई के बाद जब किसी व्यक्ति को डिक्री मिलती है, तब भी उसका क्रियान्वयन अत्यंत कठिन होता है।
उदाहरण के लिए –

  • मकान खाली कराने की डिक्री मिलने के बाद भी किरायेदार वर्षों तक आदेश को टालते रहते हैं।
  • बैंक या वित्तीय संस्थाएँ संपत्ति की जब्ती या नीलामी कराने में तकनीकी अड़चनों से जूझती हैं।
  • सरकारी विभागों के खिलाफ पारित आदेशों के क्रियान्वयन में प्रशासनिक देरी और उदासीनता बड़ी समस्या बन जाती है।

इस प्रकार, “post-decree justice” भारत की न्यायिक प्रक्रिया की सबसे कमजोर कड़ी बन चुकी है।


सुप्रीम कोर्ट के निर्देश

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि हर High Court को अपने अधीन आने वाली दीवानी अदालतों के लिए एक समान और प्रभावी तंत्र (uniform mechanism) बनाना चाहिए।
कोर्ट ने सुझाव दिया कि:

  1. निष्पादन मामलों के लिए टाइम-बाउंड फ्रेमवर्क तय किया जाए।
  2. आदेशों के पालन में जानबूझकर देरी करने वाले पक्षों पर दंडात्मक कार्रवाई (penal consequences) की व्यवस्था हो।
  3. तकनीकी माध्यमों जैसे e-Execution System को बढ़ावा दिया जाए ताकि आदेशों की स्थिति वास्तविक समय में ट्रैक की जा सके।
  4. Judicial Officers को निष्पादन संबंधी प्रशिक्षण (training) दिया जाए।

निष्पादन प्रक्रिया में प्रमुख कानूनी प्रावधान

Order XXI of the Civil Procedure Code में निष्पादन से संबंधित विस्तृत प्रावधान दिए गए हैं, जिनमें शामिल हैं —

  • Rule 11: निष्पादन की अर्जी का प्रारूप।
  • Rule 30-36: डिक्री की प्रकृति के अनुसार क्रियान्वयन की विधि।
  • Rule 41: Judgment Debtor की संपत्ति के विवरण के लिए अदालत का अधिकार।
  • Rule 54-64: संपत्ति की जब्ती एवं नीलामी की प्रक्रिया।
  • Rule 97-106: संपत्ति के कब्जे में आने वाली बाधाओं से निपटने की प्रक्रिया।

इन नियमों के बावजूद, व्यवहारिक अड़चनें और प्रशासनिक निष्क्रियता निष्पादन को वर्षों तक लंबित रखती हैं।


समस्या की जड़ें: सिस्टम की संरचनात्मक कमजोरियाँ

  1. अपर्याप्त स्टाफ और न्यायाधीशों की कमी: दीवानी अदालतों में कार्यबल की कमी के कारण निष्पादन याचिकाएँ प्राथमिकता सूची में सबसे नीचे चली जाती हैं।
  2. प्रशासनिक असहयोग: जब आदेश किसी सरकारी एजेंसी या नगरपालिका के खिलाफ होता है, तो उसका पालन कराने में प्रशासनिक टालमटोल होती है।
  3. तकनीकी जटिलताएँ: संपत्ति की पहचान, नीलामी प्रक्रिया और तीसरे पक्ष के दावों के कारण निष्पादन में देरी होती है।
  4. विधिक रणनीतियाँ (Legal Tactics): हारने वाला पक्ष जानबूझकर अपील, पुनरीक्षण या स्थगन आदेश के माध्यम से समय खींचता है।

सुधार की दिशा में आवश्यक कदम

सुप्रीम कोर्ट की यह चेतावनी केवल एक टिप्पणी नहीं है, बल्कि एक न्यायिक सुधार का आह्वान है। इस दिशा में निम्न कदम उठाए जा सकते हैं —

  • Execution Monitoring Cell की स्थापना, जो सभी निष्पादन याचिकाओं की प्रगति पर निगरानी रखे।
  • E-Courts System के माध्यम से प्रत्येक डिक्री की स्थिति ऑनलाइन उपलब्ध कराना।
  • न्यायिक अधिकारियों के लिए “Post-Decree Management Training” अनिवार्य करना।
  • निष्पादन के मामलों को प्राथमिकता सूची में शामिल करना।

न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर प्रभाव

यदि किसी व्यक्ति को न्याय मिलने के बावजूद उसे लागू कराने में वर्षों लग जाते हैं, तो लोगों का न्यायपालिका पर विश्वास (faith in justice system) कमजोर होता है।
सुप्रीम कोर्ट ने बिल्कुल सही कहा कि –

“A decree which cannot be executed in time is as good as no decree at all.”

न्यायिक निर्णय केवल तभी प्रभावी होते हैं जब उन्हें शीघ्रता से लागू कराया जाए। यही कानून के शासन (Rule of Law) की बुनियाद है।


निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी न्याय व्यवस्था के सबसे उपेक्षित हिस्से — निष्पादन प्रक्रिया — पर एक आवश्यक प्रकाश डालती है।
भारत में लाखों नागरिकों ने वर्षों की मेहनत से अपने हक में निर्णय प्राप्त किए हैं, परंतु वे अभी भी न्याय की वास्तविक अनुभूति से वंचित हैं।

न्यायपालिका का यह आत्मनिरीक्षण इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है कि न्याय केवल “कागज पर” नहीं, बल्कि “व्यवहार में” भी मिले।
जब तक डिक्री का प्रभाव जमीन पर नहीं उतरता, तब तक वह निर्णय न्याय नहीं बल्कि एक अधूरा वादा रह जाता है।


लेखक टिप्पणी:
यह निर्णय केवल न्यायालयों के लिए नहीं, बल्कि समाज के हर नागरिक के लिए एक चेतावनी है —
कि न्याय तभी जीवित रहेगा जब उसके आदेशों का सम्मान और पालन दोनों सुनिश्चित हों।