स्वीकृति (Admission) और स्वीकारोक्ति (Confession) में अंतर : न्यायिक दृष्टिकोण से विश्लेषण
भूमिका
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (Indian Evidence Act, 1872) न्यायिक कार्यवाही में तथ्य निर्धारण की प्रक्रिया को नियंत्रित करने वाला प्रमुख कानून है। न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत साक्ष्य की विश्वसनीयता और प्रासंगिकता को परखने के लिए विभिन्न प्रावधान बनाए गए हैं। इनमें से स्वीकृति (Admission) और स्वीकारोक्ति (Confession) दो अत्यंत महत्वपूर्ण अवधारणाएँ हैं। दोनों ही किसी पक्ष द्वारा दिए गए ऐसे वक्तव्य हैं, जो उसके विरुद्ध प्रयुक्त हो सकते हैं। यद्यपि देखने में ये दोनों समान प्रतीत होते हैं, किन्तु विधिक दृष्टि से इनका स्वरूप, प्रयोजन और प्रभाव भिन्न है। इसीलिए भारतीय न्यायालयों ने समय-समय पर दोनों के बीच स्पष्ट अंतर करने का प्रयास किया है।
1. स्वीकृति (Admission) की परिभाषा
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 17 से 23 तक स्वीकृति के प्रावधान निहित हैं।
धारा 17 के अनुसार–
“जब कोई वक्तव्य ऐसे किसी तथ्य को या किसी प्रासंगिक तथ्य को यह प्रदर्शित करने की दृष्टि से किया जाता है कि वह वक्तव्य करने वाले व्यक्ति के हित के प्रतिकूल है, तो उसे स्वीकृति कहा जाता है।”
सरल शब्दों में, स्वीकृति वह कथन है जो किसी तथ्य को स्वीकार करता है और जो कथन करने वाले के हित के प्रतिकूल जाता है।
उदाहरण
- यदि कोई वादी यह कहता है कि “मैंने प्रतिवादी से ₹50,000 उधार लिया था” तो यह वादी की स्वीकृति है।
- सिविल वादों में जब कोई पक्ष अपने प्रतिद्वंदी के दावे के कुछ हिस्से को स्वीकार करता है, तो वह भी स्वीकृति कहलाता है।
2. स्वीकारोक्ति (Confession) की परिभाषा
भारतीय साक्ष्य अधिनियम में “Confession” की कोई परिभाषा नहीं दी गई है। परन्तु न्यायालयों ने समय-समय पर इसके अर्थ को स्पष्ट किया है।
Privy Council ने Pakala Narayan Swami v. Emperor (1939) मामले में कहा–
“स्वीकारोक्ति का अर्थ है – अभियुक्त द्वारा ऐसा कथन जिसमें वह स्पष्ट या परोक्ष रूप से उस अपराध को स्वीकार करता है, जिसके लिए उस पर अभियोग लगाया गया है।”
इस प्रकार, स्वीकारोक्ति केवल आपराधिक मामलों में प्रयोज्य होती है और इसका आशय है – अभियुक्त द्वारा अपराध को स्वीकार करना।
उदाहरण
- यदि कोई अभियुक्त कहे – “मैंने ही पीड़ित की हत्या की है” तो यह स्वीकारोक्ति है।
- यदि वह कहे – “मैं पीड़ित को चाकू मारते समय वहाँ मौजूद था” और इससे उसका अपराध स्वीकार होता है, तो भी यह स्वीकारोक्ति है।
3. स्वरूप और प्रयोजन
- स्वीकृति (Admission) का प्रयोग सिविल और आपराधिक दोनों प्रकार के मामलों में किया जा सकता है।
- स्वीकारोक्ति (Confession) केवल आपराधिक मामलों तक सीमित है।
स्वीकृति में सामान्य तथ्यों को स्वीकार किया जाता है, जबकि स्वीकारोक्ति अपराध और अपराध से जुड़े तत्वों (actus reus और mens rea) को स्वीकार करती है।
4. न्यायिक दृष्टिकोण से अंतर
(i) Pakala Narayan Swami v. Emperor (1939)
इस मामले में प्रिवी काउंसिल ने स्पष्ट किया कि–
“स्वीकारोक्ति वही है जिसमें अपराध का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार किया गया हो।”
यदि वक्तव्य केवल किसी परिस्थिति को दर्शाता है, अपराध नहीं, तो वह स्वीकृति है, न कि स्वीकारोक्ति।
(ii) Palvinder Kaur v. State of Punjab (1952)
सुप्रीम कोर्ट ने कहा–
“स्वीकारोक्ति को आंशिक रूप से नहीं माना जा सकता। यदि अभियुक्त का कथन मिलाजुला है, तो उसे संपूर्ण रूप में देखा जाएगा।”
(iii) State of UP v. Deoman Upadhyaya (1960)
न्यायालय ने कहा कि पुलिस के समक्ष की गई स्वीकारोक्ति धारा 25 के अंतर्गत अमान्य है।
(iv) Narayanaswami v. Emperor (1939)
न्यायालय ने कहा कि केवल किसी तथ्य की स्वीकृति (जैसे किसी स्थान पर मौजूद होना) स्वीकृति (Admission) है, जब तक कि वह अपराध को सिद्ध न करे।
5. भारतीय साक्ष्य अधिनियम में प्रावधान
(A) स्वीकृति (Admission)
- धारा 17 : परिभाषा
- धारा 18-23 : किसके वक्तव्य स्वीकृति होंगे
- धारा 21 : स्वीकृति सामान्यत: उसी व्यक्ति के विरुद्ध प्रयोज्य है जिसने इसे किया है।
(B) स्वीकारोक्ति (Confession)
- धारा 24 : यदि स्वीकारोक्ति किसी प्रलोभन, धमकी या वादे के कारण प्राप्त की गई है तो वह अमान्य होगी।
- धारा 25 : पुलिस अधिकारी के समक्ष दी गई स्वीकारोक्ति मान्य नहीं।
- धारा 26 : यदि अभियुक्त पुलिस हिरासत में है और मजिस्ट्रेट के अतिरिक्त किसी और के समक्ष स्वीकारोक्ति करता है, तो वह मान्य नहीं।
- धारा 27 : पुलिस हिरासत में दी गई आंशिक सूचना (discovery statement) मान्य होगी।
- धारा 28-29 : स्वेच्छा से और वैधानिक रूप से दी गई स्वीकारोक्ति वैध है।
- धारा 30 : सह-अभियुक्त के विरुद्ध स्वीकारोक्ति का प्रयोग।
6. स्वीकृति और स्वीकारोक्ति में मुख्य अंतर
| क्रम | आधार | स्वीकृति (Admission) | स्वीकारोक्ति (Confession) |
|---|---|---|---|
| 1 | परिभाषा | ऐसा वक्तव्य जो किसी तथ्य को स्वीकार करता है और वक्ता के विरुद्ध जाता है। | अभियुक्त द्वारा अपराध स्वीकार करना। |
| 2 | प्रयोजन | सिविल और आपराधिक दोनों मामलों में प्रयोज्य। | केवल आपराधिक मामलों में प्रयोज्य। |
| 3 | क्षेत्र | किसी भी प्रासंगिक तथ्य की स्वीकृति। | अपराध और अपराध के तत्व की स्वीकृति। |
| 4 | अधिनियम में प्रावधान | धारा 17 से 23 | धारा 24 से 30 |
| 5 | वक्ता | कोई भी पक्षकार, एजेंट, प्रतिनियुक्ति आदि। | केवल अभियुक्त। |
| 6 | प्रभाव | आंशिक स्वीकृति भी मान्य। | पूर्ण अपराध स्वीकार होना चाहिए। |
| 7 | पुलिस के समक्ष वक्तव्य | स्वीकारोक्ति अमान्य (धारा 25)। | स्वीकृति पर यह प्रतिबंध लागू नहीं। |
7. न्यायालयों का दृष्टिकोण
भारतीय न्यायालयों ने यह स्पष्ट किया है कि—
- स्वीकृति सामान्य तथ्य को स्वीकार करने का साधन है, जिससे किसी मामले में पक्षकार के कथन की सत्यता परखा जा सकता है।
- स्वीकारोक्ति अभियुक्त की स्वेच्छा और स्वतंत्र इच्छा से होनी चाहिए। यदि उसमें भय, दबाव, प्रलोभन या वादा शामिल हो, तो वह अमान्य है।
- न्यायालय यह भी मानते हैं कि स्वीकृति और स्वीकारोक्ति दोनों को स्वतंत्र साक्ष्य न मानकर अन्य साक्ष्यों के साथ परखा जाना चाहिए।
8. महत्व और व्यावहारिक उपयोग
- स्वीकृति मुकदमों में समय की बचत करती है, क्योंकि कुछ तथ्यों पर विवाद समाप्त हो जाता है।
- स्वीकारोक्ति आपराधिक मामलों में अभियोजन पक्ष के लिए सबसे सशक्त साक्ष्य मानी जाती है, बशर्ते वह स्वेच्छा से और विधिसम्मत हो।
निष्कर्ष
भारतीय साक्ष्य अधिनियम में स्वीकृति (Admission) और स्वीकारोक्ति (Confession) दोनों की महत्ता है, किन्तु दोनों का स्वरूप और प्रभाव अलग-अलग है।
- स्वीकृति व्यापक है और सामान्य तथ्य स्वीकार करती है।
- स्वीकारोक्ति संकीर्ण है और अपराध स्वीकार करती है।
न्यायालयों ने समय-समय पर इनके बीच स्पष्ट रेखा खींचकर यह सुनिश्चित किया है कि अभियुक्त के अधिकारों का संरक्षण हो और न्यायिक प्रक्रिया निष्पक्ष बनी रहे।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि—
“Admission is a statement of fact, while Confession is a statement of guilt.”
और यही अंतर न्यायिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण है।