“स्वीकारोक्ति आधारित एफआईआर विधि में अस्वीकार्य: आरोपी द्वारा दर्ज कराई गई प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) का साक्ष्य के रूप में मूल्य”
प्रस्तावना
भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में एफआईआर (First Information Report) का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह किसी भी अपराध की जाँच की शुरुआत का पहला दस्तावेज होता है। परंतु जब एफआईआर स्वयं आरोपी द्वारा दर्ज कराई जाती है और उसमें वह अपराध स्वीकार करता है, तब यह प्रश्न उठता है कि क्या ऐसी “स्वीकारोक्तिपूर्ण एफआईआर (Confessional FIR)” को साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है?
सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने स्पष्ट किया है कि आरोपी द्वारा दिया गया स्वीकारोक्ति बयान पुलिस के समक्ष मान्य नहीं होता, और यदि वही एफआईआर के रूप में दर्ज किया गया हो तो वह भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 के तहत अस्वीकार्य (inadmissible) है।
एफआईआर का कानूनी स्वरूप
भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 154 के अंतर्गत एफआईआर वह सूचना है जो किसी संज्ञेय अपराध (Cognizable Offence) के घटित होने की जानकारी पुलिस को दी जाती है, ताकि पुलिस जांच प्रारंभ कर सके।
एफआईआर का उद्देश्य अपराध की सूचना देना है, न कि अपराध स्वीकार करना। अतः एफआईआर में यदि अपराध स्वीकारोक्ति का रूप ले लेती है और वह सूचना स्वयं आरोपी द्वारा दी गई है, तो वह कानूनी दृष्टि से मान्य सूचना नहीं रहती।
स्वीकारोक्ति (Confession) की वैधता पर कानूनी प्रावधान
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 24 से 30 तक स्वीकारोक्ति (Confession) से संबंधित प्रावधान दिए गए हैं।
धारा 25 स्पष्ट रूप से कहती है—
“No confession made to a police officer shall be proved as against a person accused of any offence.”
अर्थात् पुलिस अधिकारी को दिया गया कोई भी स्वीकारोक्ति बयान आरोपी के विरुद्ध प्रमाण के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।
यदि आरोपी स्वयं पुलिस थाने जाकर अपराध स्वीकार करता है और वही बयान एफआईआर के रूप में दर्ज किया जाता है, तो वह स्वीकारोक्तिपूर्ण एफआईआर (Confessional FIR) बन जाती है, जो धारा 25 के तहत निषिद्ध (barred) है।
न्यायिक दृष्टिकोण: सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय
(1) Aghnoo Nagesia v. State of Bihar (AIR 1966 SC 119)
यह इस विषय पर सबसे प्रमुख निर्णय है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि—
“यदि आरोपी स्वयं पुलिस को अपराध की सूचना देता है और अपने अपराध को स्वीकार करता है, तो ऐसी एफआईआर का कोई भी हिस्सा जो स्वीकारोक्ति का रूप रखता है, साक्ष्य में स्वीकार्य नहीं होगा।”
हालाँकि कोर्ट ने यह भी माना कि यदि एफआईआर में कोई ऐसा भाग हो जो मात्र तथ्यात्मक सूचना देता हो (जैसे कि शव का स्थान, घटना का विवरण आदि) तो वह भाग साक्ष्य के रूप में प्रयोज्य हो सकता है। परंतु वह हिस्सा जहाँ अपराध की जिम्मेदारी स्वीकार की गई है, अस्वीकार्य रहेगा।
(2) Faddi v. State of Madhya Pradesh (AIR 1964 SC 1850)
इस केस में आरोपी ने खुद जाकर पुलिस को बताया कि उसने हत्या की है। कोर्ट ने माना कि—
“ऐसी स्वीकारोक्ति आधारित सूचना को एफआईआर के रूप में दर्ज किया जा सकता है, लेकिन वह स्वीकारोक्ति आरोपी के विरुद्ध साक्ष्य के रूप में नहीं पढ़ी जा सकती।”
(3) Nika Ram v. State of Himachal Pradesh (1972) 2 SCC 80
यहाँ भी आरोपी ने स्वयं थाने जाकर अपराध स्वीकार किया। सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि—
“Confession made to police is barred under Section 25 of the Evidence Act, even if it is recorded as FIR.”
(4) State of U.P. v. Deoman Upadhyaya (AIR 1960 SC 1125)
इस निर्णय में न्यायालय ने कहा कि यदि सूचना देने वाला व्यक्ति अभियुक्त नहीं था और बाद में वह आरोपी बन गया, तो उस स्थिति में उसके बयान का वह हिस्सा जो अपराध की जानकारी तक सीमित है, साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य हो सकता है।
परंतु जहाँ आरोपी पहले से ही अपराध स्वीकार कर रहा है, वहाँ वह एफआईआर साक्ष्य के रूप में अमान्य मानी जाएगी।
मुख्य कानूनी सिद्धांत
- पुलिस को दिया गया स्वीकारोक्ति बयान (Confession to Police) अस्वीकार्य है।
- यदि वही बयान एफआईआर बन जाए, तो उसका स्वीकारोक्ति वाला भाग साक्ष्य में नहीं पढ़ा जा सकता।
- केवल तथ्यात्मक या परिस्थितिजन्य सूचना (Discovery Information), जो धारा 27 के अंतर्गत आती है, उसे स्वीकार किया जा सकता है।
- अपराध स्वीकार करना और अपराध की सूचना देना दो अलग बातें हैं।
- सूचना देना = जाँच का आधार।
- स्वीकारोक्ति देना = आत्म-अभियोग (Self-incrimination), जो निषिद्ध है।
संवैधानिक परिप्रेक्ष्य: अनुच्छेद 20(3)
भारत का संविधान अनुच्छेद 20(3) यह कहता है—
“No person accused of any offence shall be compelled to be a witness against himself.”
स्वीकारोक्ति आधारित एफआईआर इस संवैधानिक सिद्धांत का उल्लंघन करती है क्योंकि उसमें आरोपी स्वयं अपने अपराध की पुष्टि करता है।
इसलिए ऐसी एफआईआर को मान्यता देना स्वयं अपराध स्वीकार करने की मजबूरी के समान होगा, जो अनुच्छेद 20(3) के प्रतिकूल है।
उदाहरण द्वारा समझें
मान लीजिए, कोई व्यक्ति पुलिस थाने में जाकर कहता है—
“मैंने अपने पड़ोसी की हत्या कर दी है, शव घर के पीछे है।”
पुलिस इस बयान को एफआईआर के रूप में दर्ज कर लेती है।
इस स्थिति में:
- “मैंने हत्या की” वाला भाग धारा 25 के तहत अस्वीकार्य (inadmissible) है।
- “शव घर के पीछे है” वाला भाग धारा 27 के तहत प्रयोज्य (admissible) हो सकता है, क्योंकि यह जांच को दिशा देता है और वास्तविक वस्तु (शव) की बरामदगी में मदद करता है।
व्यावहारिक प्रभाव
- अभियोजन पक्ष (Prosecution) ऐसी एफआईआर को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत नहीं कर सकता।
- न्यायालय केवल उस सीमा तक इसे देख सकता है, जहाँ तक यह पुलिस जांच के लिए सूचना का आधार बनता है।
- यदि पूरा एफआईआर स्वीकारोक्तिपूर्ण है, तो अदालत को इसे कानूनी दृष्टि से अप्रासंगिक (irrelevant) मानना होगा।
- ऐसे मामलों में अभियोजन को अन्य स्वतंत्र साक्ष्यों (जैसे गवाह, फोरेंसिक रिपोर्ट, बरामदगी, आदि) पर निर्भर रहना पड़ता है।
उच्च न्यायालयों के दृष्टिकोण
बॉम्बे हाईकोर्ट (State v. Pandurang, 1999)
कोर्ट ने कहा कि यदि आरोपी एफआईआर में अपने अपराध को स्वीकार करता है, तो यह साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 और अनुच्छेद 20(3) दोनों का उल्लंघन करता है।
मद्रास हाईकोर्ट (Re: Palanisamy, 2003)
यहाँ कहा गया कि पुलिस को दिए गए किसी भी प्रकार के आत्म-अभियोगात्मक बयान को एफआईआर के रूप में दर्ज करना भले संभव हो, परंतु न्यायालय में उसे साक्ष्य के रूप में नहीं पढ़ा जा सकता।
न्यायिक नीति (Judicial Policy) के पीछे तर्क
न्यायालयों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि—
- पुलिस किसी भी व्यक्ति से दबाव, भय या धोखे से स्वीकारोक्ति न कराए।
- अभियुक्त के मौलिक अधिकारों की रक्षा हो।
- साक्ष्य निष्पक्ष और स्वतंत्र हो।
यदि पुलिस के समक्ष की गई स्वीकारोक्ति को साक्ष्य के रूप में स्वीकार कर लिया जाए, तो पुलिस अत्याचार की संभावनाएँ बढ़ जाएंगी। इसलिए न्यायालय ने स्वीकारोक्तिपूर्ण एफआईआर को अस्वीकार्य घोषित कर रखा है।
धारा 27 की सीमा
हालाँकि साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 कुछ हद तक अपवाद प्रदान करती है।
यदि स्वीकारोक्ति के किसी भाग से कोई तथ्य (Fact Discovered) सामने आता है — जैसे कि बरामदगी, हथियार, शव आदि — तो वह भाग साक्ष्य में स्वीकार्य होता है।
परंतु यह केवल उसी सीमा तक लागू होता है जहाँ तक “खोज (Discovery)” से संबंधित तथ्य हों।
समीक्षात्मक विश्लेषण
स्वीकारोक्तिपूर्ण एफआईआर के प्रति न्यायालयों का दृष्टिकोण अभियुक्त के अधिकारों की रक्षा पर आधारित है।
परंतु आलोचक यह भी कहते हैं कि कभी-कभी अपराधी स्वेच्छा से अपराध स्वीकार करता है, और ऐसे में यदि उसका बयान पूरी तरह अस्वीकार्य हो जाता है, तो सच्चाई का पता लगाना कठिन हो सकता है।
फिर भी न्यायपालिका का मानना है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) और निष्पक्ष जांच (Fair Investigation) अधिक महत्वपूर्ण है।
निष्कर्ष
सभी न्यायिक निर्णयों और विधिक सिद्धांतों से यह स्पष्ट है कि —
“Confessional FIR lodged by an accused is inadmissible in evidence.”
ऐसी एफआईआर केवल जांच की औपचारिक शुरुआत के लिए प्रयोज्य हो सकती है, परंतु इसे आरोपी के विरुद्ध अपराध सिद्ध करने के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता।
यह सिद्धांत धारा 25 (Evidence Act), धारा 154 (CrPC) और अनुच्छेद 20(3) (Constitution) के समन्वय से उत्पन्न हुआ है।
इस प्रकार, न्यायालयों ने यह सुनिश्चित किया है कि कोई भी व्यक्ति स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य न हो, और पुलिस किसी भी स्थिति में स्वीकारोक्ति को साक्ष्य का आधार न बना सके।
संक्षेप में
| आधार | विधिक स्थिति |
|---|---|
| आरोपी द्वारा पुलिस को दी गई स्वीकारोक्ति | साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 के तहत अस्वीकार्य |
| आरोपी द्वारा दर्ज कराई गई एफआईआर | केवल सूचना देने के उद्देश्य से प्रयोज्य |
| स्वीकारोक्ति वाला भाग | अस्वीकार्य |
| तथ्यात्मक (Discovery) वाला भाग | धारा 27 के तहत प्रयोज्य |
| संवैधानिक सुरक्षा | अनुच्छेद 20(3) – आत्म-अभियोग से संरक्षण |
अतः निष्कर्ष यह है कि —
“स्वीकारोक्तिपूर्ण एफआईआर (Confessional FIR) विधि में अस्वीकार्य है, क्योंकि यह आरोपी की आत्म-अभियोगात्मक स्वीकृति होती है जो भारतीय साक्ष्य अधिनियम और संविधान दोनों के सिद्धांतों का उल्लंघन करती है।”
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