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“स्वयं-निर्भर जीवनसाथी को भरण-पोषण नहीं: दिल्ली हाईकोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय और धारा 25 HMA की न्यायिक व्याख्या”

“स्वावलंबी पति/पत्नी के लिए भरण-पोषण-दायित्व नहीं: Delhi High Court ने स्थायी भरण-पोषण के सम्बन्ध में सुदृढ़ सिद्धांत स्थापित किया”


प्रस्तावना

विधि-शिक्षा के लिए सबसे संवेदनशील और विवादित विषयों में से एक है भरण-पोषण (maintenance) एवं स्थायी भरण-पोषण-आदेश (permanent alimony) — विशेष रूप से जब तलाक, अलग-रहना या विवाह निरस्तीकरण के बाद पति-पत्नी के बीच आर्थिक सहयोग-वितरण का प्रश्न उत्पन्न होता है। भारत में Hindu Marriage Act, 1955 (HMA) की धारा 25 इस प्रकार का आदेश जारी करने का प्रावधान देती है। परन्तु यह आदेश “स्वतः” नहीं मिल जाता — न्यायालयों को देखना पड़ता है कि किस परिस्थिति में यह न्यायोचित होगा। ताज़ा उदाहरण में दिल्ली हाईकोर्ट ने निर्णय दिया है कि यदि पति या पत्नी आर्थिक रूप से सक्षम, स्वतंत्र एवं स्वावलंबी हों, तो उन्हें स्थायी भरण-पोषण-दायित्व (alimony) का अधिकार स्वतः नहीं मिलता। इससे यह सिद्धांत स्पष्ट हुआ है कि भरण-पोषण सिर्फ “आर्थिक समानता स्थापित करने” का औजार नहीं है, बल्कि “सामाजिक न्याय” की दृष्टि से जरूरतमंद-वर्ग की रक्षा का माध्यम है।


पृष्ठभूमि

दिल्ली हाईकोर्ट की उस पेंचबेंच — जिसमें न्यायमूर्ति Anil Kshetrapal और न्यायमूर्ति Harish Vaidyanathan Shankar शामिल थीं — ने यह मामला सुना जिसमें एक रेलवे समूह-‘A’ अधिकारी (पत्नी) ने अपने पूर्व पति से स्थायी भरण-पोषण (alimony) व क्षतिपूर्ति की मांग की थी। पत्नी का संघर्ष यह था कि विवाह टूटने के बाद भी उसने आर्थिक रूप से समर्थन की आवश्यकता महसूस की। पति एक अधिवक्ता थे। पत्नी का तर्क था कि विवाह के समय तथा बाद में दोनों का जीवन-स्तर एक-समान था, और उसके द्वारा काम करने के बावजूद वह अलग-रहने के बाद वही स्तर बनाए रखने में असमर्थ थी।

विवाद यह हुआ कि पति-पत्नी दोनों ही नियोक्ताओं से वेतन प्राप्त कर रहे थे, पत्नी को अर्जित आय थी, और इस बात में कोई विवाद नहीं था कि वह आर्थिक रूप से पूरी तरह गरीब नहीं थी। इस पर अदालत ने पूछा — यदि वह स्वावलंबी है, तो क्या स्थायी भरण-पोषण-आदेश देना उचित होगा?


कानूनी विश्लेषण

धारा 25 का प्रावधान

HMA की धारा 25 यह प्रावधान देती है — कि “कोर्ट, इस अधिनियम द्वारा प्राप्त अधिकारी के अंतर्गत, किसी पति या पत्नी को आदेश दे सकती है कि वह दूसरे पति अथवा पत्नी को ऐसी स्तिथि में विगत, वर्तमान या भविष्य के लिए मासिक, अवधि-सापेक्ष या लम्प-सम (gross sum) का भुगतान करे, जब वह अकर्मक हो गया हो, इस प्रकार कि उसे भरण-पोषण में कठिनाई हो।”
इस प्रावधान के अंतर्गत न्यायालय को निम्न-बिंदुओं पर विशेष दृष्टि देनी होती है:

  • अर्जित आय एवं अन्य संपत्ति (income and other property) दोनों पक्षों की।
  • आवेदनकर्ता (alimony मांगने वाले) की आय एवं संपत्ति।
  • पति/पत्नी के व्यवहार (conduct) एवं अन्य परिस्थितियाँ।
  • विवाहित जीवन की अवधि, मानक-जीवन (standard of living) आदि।

“स्वावलंबी”-पक्ष और भरण-पोषण का सम्बन्ध

दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने ताज़ा निर्णय में पुनः स्पष्ट किया कि भरण-पोषण-आदेश देना “स्वतः” नहीं है; इसके लिए यह जरूरी है कि आवेदनकर्ता (भरण-पोषण की मांग करने वाला) इस बात को साबित करे कि वह आर्थिक-रूप से असमर्थ है अथवा उसके पास वह आय/संपत्ति नहीं है जिससे वह स्वतंत्र रूप से अपना निर्वाह कर सके। यदि वह आर्थिक-रूप से सक्षम है, तो न्यायालय को भरण-पोषण-दायित्व लादना, “दो सक्षम व्यक्ति के बीच वित्तीय समता स्थापित करने” जैसा हो सकता है, जो कानून-विरुद्ध है। कोर्ट ने कहा —

“It is a settled principle that permanent alimony is intended as a measure of social justice, and not as a tool for enrichment or equalising the financial status of two capable individuals.”

अदालत का तर्क

  • न्यायालय ने पाया कि इस मामले में आवेदनकर्ता-पत्नी एक रेलवे समूह-‘A’ अधिकारी थी, उसके पास पर्याप्त स्थिर वेतन एवं सेवा-स्थिरता थी, अतः वह आर्थिक रूप से “स्वावलंबी” मानी गई।
  • अदालत ने कहा कि पति-पत्नी दोनों के पास नौकरी-आय थी, जीवन-मानक (standard of living) में उल्लेखनीय अंतर नहीं था जिससे पति को खुद आर्थिक असमर्थ कहलाना पड़े।
  • इस प्रकार, पत्नी ने यह साबित नहीं किया कि उसके पास अपनी आजीविका चलाने में कठिनाई है; न ही यह प्रमाणित हुआ कि उसे भरण-पोषण-सहायता के बिना जीवन-यापन में गंभीर समस्या होगी।
  • इसलिए, न्यायालय ने भरण-पोषण-आदेश देने से इंकार कर दिया और स्पष्ट किया कि “judicial discretion under Section 25 … cannot be exercised to award alimony where the applicant is financially self-sufficient and independent.”

पूर्व-निर्णयों का परिप्रेक्ष्य

यह निर्णय अलग-ना हुआ संदर्भ नहीं है — अन्य न्यायालयों ने भी यह सिद्धांत विकसित किया है कि स्थायी भरण-पोषण-मंजूरी के लिए सिर्फ विवाह टूटना पर्याप्त नहीं; आर्थिक जरूरत और असमर्थता होना अनिवार्य है। उदाहरणस्वरूप, सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि भरण-पोषण-मंजूरी “स्वतः नहीं” बल्कि परिस्थितियों-के आधार पर दिया जाना चाहिए।


समाज-विचार एवं प्रभाव

न्याय-प्रणाली में निष्पादन-विवेक

यह निर्णय सामाजिक-न्याय के परिप्रेक्ष्य में संदेश देता है — कि भरण-पोषण-दायित्व केवल जरूरतमंद-पक्ष की मदद का माध्यम है। यदि पति-पत्नी दोनों स्वयं समर्थ हों, तो न्यायालय को बीच में आकर “मूल्य-समता” स्थापित नहीं करनी चाहिए। यह विवेक-पूर्ण न्याय-दृष्टिकोण (judicial discretion) को पुष्ट करता है।

शादी-विच्छेद-प्रक्रिया तथा आर्थिक-स्वतंत्रता

आज की व्यस्त सामाजिक-दृष्टि में विशेष रूप से महिलाओं की नौकरी-स्वायत्तता बढ़ी है। ऐसे में यह निर्णय स्पष्ट करता है कि यदि पत्नी आर्थिक रूप से सक्षम है, तो वह भरण-पोषण-दायित्व का अपेक्षित स्वचालित लाभार्थी नहीं बनी। यह महिलाओं-स्वावलंबन के दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है — मीडिया या सामाजिक धारणाओं में यह मिथक था कि अलग-रहने या तलाक-के समय पत्नी को “भरण-पोषण-अवश्य मिलेगा”। अब यह स्पष्ट हुआ कि आर्थिक-स्थिति को भी देखा जाएगा।

पारिवारिक न्याय मामलों पर असर

पुलिसी-विवाद, तलाक-घटित मामलों में इंतज़ार और सुलह-प्रक्रियाएं आम हैं। इस निर्णय से परिवार-न्यायालय (Family Court) के लिए दिशा-निर्देश स्पष्ट हो गए हैं — आवेदनकर्ता की आर्थिक-स्थिति, जीवन-मानक, आय-संपत्ति, नौकरी-स्थिति, व्यवहार आदि को समुचित रूप से आंकना आवश्यक होगा। इससे न्यायाधीशों के विवेकपूर्ण निर्णय-प्रक्रिया में सुदृढ़ता आएगी।


चुनौतियाँ एवं आगे-दृष्टि

  • इस निर्णय के बाबजूद, “स्वावलंबि” की अवधारणा सापेक्ष है — उदाहरणस्वरूप, नौकरी है, पर क्षण-क्षण पर बदलाव हो सकता है (नौकरी समाप्ति, स्वास्थ्य-समस्याएँ)। न्यायालयों को यह देखना होगा कि आवेदनकर्ता की आय-स्थिति कितनी स्थिर है।
  • “मानक-जीवन” का मूल्यांकन भी महत्वपूर्ण है — यदि पति/पत्नी पहले उच्च-मानक जीवन व्यतीत करते थे, और अब उसकी तुलना में अन्य पक्ष बहुत ही कम आय पर हैं, तो सिर्फ “स्वावलंबि नौकरी” पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। अन्य समाचारों में उल्लेख सह पाया गया है कि हाईकोर्ट ने यह भी माना कि “मूल्य-जीवन मानक” बनाए रखना भी एक आधार हो सकता है।
  • विशेष रूप से महिलाओं-स्वावलंबन की दिशा में यह निर्णय प्रोत्साहक है, लेकिन न्याय-प्राप्ति-प्रक्रिया (procedure) में समर्थ-पक्ष को भी यह सुनिश्चित करना होगा कि आय एवं संपत्ति-दस्तावेज उपलब्ध हो।
  • भविष्य में यह देखा जाना होगा कि अन्य उच्च न्यायालयों एवं निचली अदालतों में इस सिद्धांत का किस प्रकार अनुप्रयोग होता है — क्या “स्वावलंबि-पक्ष” को नियमित रूप से भरण-पोषण-आदेशों से बाहर रखा जाएगा, या परिस्थितियों में वार्षिक स्थान-परीक्षण किया जाएगा।

निष्कर्ष

संक्षिप्त रूप में कहा जाए तो — दिल्ली हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भरण-पोषण-कानून अवधी में स्व-प्राप्त नहीं है — लागू तभी होगा जब एक पक्ष इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करे कि वह आर्थिक रूप से अवलंबित है और समर्थ नहीं। यदि दोनों पक्ष आर्थिक रूप से सक्षम हैं, तो न्यायालय को भरण-पोषण-आदेश देने में सावधानी बरतनी होगी।

यह निर्णय धारा 25 HMA के अन्तर्गत स्थायी भरण-पोषण-आदेश-प्रवृत्ति पर एक दिशा-निर्देशक (guiding‐precedent) बन गया है — जहाँ न्याय-प्रक्रिया-निर्णय में आर्थिक-स्वावलंबन, जीवन-मानक, आवश्यकता व न्यायोचित विवेक (judicial discretion) को प्रमुखता दी गई है।