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 “स्थानीय जमानतदार की शर्त: जमानत के अधिकार पर असंवैधानिक बोझ

“स्थानीय जमानतदार की शर्त: जमानत के अधिकार पर असंवैधानिक बोझ — पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय”

भारत के न्यायिक इतिहास में “Sumit Sharma and Another vs State of Haryana, CRM-M-6979-2024” (निर्णय वर्ष 2025) का फैसला उन मामलों में गिना जाएगा, जहाँ अदालत ने व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) और जमानत के अधिकार (Right to Bail) के बीच एक संतुलित दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने इस महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया कि —

“यदि किसी व्यक्ति से केवल इसलिए ‘स्थानीय जमानतदार (Local Surety)’ देने की शर्त रखी जाती है क्योंकि वह किसी अन्य जिले या राज्य का निवासी है, तो यह केवल एक प्रशासनिक असुविधा नहीं, बल्कि उसके मौलिक अधिकारों पर सीधा प्रहार है।”


🔹 मामला पृष्ठभूमि (Case Background)

सुमित शर्मा और एक अन्य याचिकाकर्ता को हरियाणा राज्य पुलिस द्वारा एक आपराधिक मामले में गिरफ्तार किया गया था। जब उन्होंने जमानत की याचिका दायर की, तो ट्रायल कोर्ट ने जमानत मंजूर तो की, लेकिन एक कठोर शर्त जोड़ दी —
कि “याचिकाकर्ता केवल तब रिहा होंगे जब वे स्थानीय क्षेत्र (हरियाणा) के निवासी जमानतदार प्रस्तुत करेंगे।”

इस शर्त ने याचिकाकर्ताओं के लिए गंभीर कठिनाइयाँ उत्पन्न कीं, क्योंकि दोनों अन्य राज्यों के निवासी थे और हरियाणा में उनका कोई स्थायी परिचित नहीं था। यह स्थिति न्यायिक दृष्टि से उस संवैधानिक सिद्धांत को चुनौती देती है, जो यह कहता है कि जमानत का अधिकार सभी नागरिकों के लिए समान रूप से उपलब्ध होना चाहिए, चाहे वे किसी भी राज्य के निवासी क्यों न हों।


🔹 मुख्य मुद्दा (Core Issue)

न्यायालय के समक्ष मुख्य प्रश्न यह था कि —
क्या किसी व्यक्ति से “स्थानीय जमानतदार” प्रस्तुत करने की शर्त लगाना संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) का उल्लंघन है?


🔹 उच्च न्यायालय का दृष्टिकोण

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने न्यायमूर्ति दीपक सिब्बल की पीठ से सुनवाई करते हुए कहा कि —

“जमानत का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार है, जो व्यक्ति की स्वतंत्रता का संरक्षण करता है। यदि जमानत किसी असंभव या अनुपयोगी शर्त से जोड़ी जाती है, तो यह वास्तव में जमानत का ‘अस्वीकार’ (Denial of Bail) बन जाती है।”

अदालत ने यह भी कहा कि —

“स्थानीय जमानतदार की शर्त एक प्रकार से भेदभाव उत्पन्न करती है। यह एक व्यक्ति को केवल इसलिए अलग श्रेणी में रखती है क्योंकि उसका निवास किसी अन्य जिले या राज्य में है। यह संविधान द्वारा प्रदत्त समानता के अधिकार का उल्लंघन है।”


🔹 जमानत का सिद्धांत और भारतीय संविधान

भारतीय न्याय प्रणाली में जमानत का सिद्धांत (Doctrine of Bail) इस विचार पर आधारित है कि —
“किसी व्यक्ति को तब तक निर्दोष माना जाएगा जब तक उसका अपराध सिद्ध नहीं होता।”

इस सिद्धांत को अनुच्छेद 21 का विस्तार माना गया है, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी देता है।
इस अधिकार के अनुसार —

  • जमानत को अस्वीकार करने का निर्णय केवल अपवादस्वरूप होना चाहिए।
  • यदि अदालत जमानत प्रदान करती है, तो उसकी शर्तें न्यायसंगत, तार्किक और व्यावहारिक होनी चाहिए।

🔹 अदालत की टिप्पणी — अधिकार बनाम असुविधा

अदालत ने यह कहा कि “स्थानीय जमानतदार” की शर्त एक व्यक्ति के लिए लॉजिस्टिक (logistical) कठिनाई ही नहीं, बल्कि संवैधानिक असमानता भी पैदा करती है।

“भारत एक एकीकृत गणराज्य है, जहाँ किसी भी नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में समान अधिकार प्राप्त हैं। ऐसे में केवल निवास स्थान के आधार पर किसी को जमानत में भेदभाव का सामना करना पड़ना संविधान की आत्मा के विपरीत है।”

अदालत ने यह भी कहा कि जब किसी व्यक्ति को न्यायालय द्वारा जमानत दी जाती है, तो उसे व्यावहारिक रूप से लागू करने का तरीका भी होना चाहिए। यदि अदालत ऐसी शर्तें लगाती है जिन्हें पूरा करना लगभग असंभव हो, तो यह ‘जमानत का अधिकार’ नहीं, बल्कि ‘स्वतंत्रता का नकार’ बन जाता है।


🔹 “स्थानीय जमानतदार” की शर्त: न्यायिक विश्लेषण

अदालत ने विस्तार से कहा कि —

  1. जमानत की शर्तों का उद्देश्य केवल उपस्थिति सुनिश्चित करना है।
    अदालत यह देखना चाहती है कि आरोपी मुकदमे के दौरान अदालत में उपस्थित रहे। यह उद्देश्य किसी भी प्रकार की “स्थानीयता” पर निर्भर नहीं करता।
  2. प्रवासी नागरिकों के साथ भेदभाव असंवैधानिक है।
    यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य राज्य में काम करता है या निवास करता है, तो उससे स्थानीय जमानतदार की मांग करना उसके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है।
  3. जमानत का अधिकार, न कि उसका भ्रम।
    जमानत का उद्देश्य स्वतंत्रता सुनिश्चित करना है। यदि शर्तें इतनी कठिन हों कि व्यक्ति रिहा ही न हो सके, तो यह जमानत नहीं बल्कि हिरासत का विस्तार बन जाता है।

🔹 अदालत के महत्वपूर्ण अवलोकन (Key Observations)

“कानून में यह नहीं कहा गया कि जमानत केवल स्थानीय जमानतदार पर ही निर्भर हो। यदि कोई व्यक्ति अन्य राज्य का निवासी है, तो उसके लिए जमानत की शर्तें ऐसी नहीं होनी चाहिए जो व्यावहारिक रूप से असंभव हों।”

“न्यायालय का दायित्व केवल कानून लागू करना नहीं, बल्कि संविधान की भावना को संरक्षित करना है। यदि किसी आदेश से समानता और स्वतंत्रता के अधिकार पर आघात होता है, तो वह असंवैधानिक माना जाएगा।”


🔹 भारतीय संविधान और समानता का सिद्धांत

अनुच्छेद 14 कहता है कि —

“राज्य किसी व्यक्ति को कानून के समक्ष समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।”

इस सिद्धांत के अनुसार, दो व्यक्तियों के बीच केवल उनके भौगोलिक निवास के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। अदालत ने कहा कि “स्थानीय जमानतदार” की शर्त इसी प्रकार का भेदभाव पैदा करती है —
एक व्यक्ति केवल इसलिए असुविधा झेलता है क्योंकि वह किसी अन्य राज्य से है।

यह संविधान की उस भावना के विरुद्ध है जो भारत को एकता और समानता का गणराज्य घोषित करती है।


🔹 व्यावहारिक पहलू: “जमानत की शर्तें तर्कसंगत हों”

अदालत ने यह भी कहा कि जमानत की शर्तें वास्तविकता और न्याय पर आधारित होनी चाहिए। उदाहरण के लिए —

  • किसी व्यक्ति से ₹50,000 का बांड और एक व्यक्तिगत जमानत देना पर्याप्त है।
  • लेकिन “केवल स्थानीय निवासी” की शर्त लगाना न तो व्यावहारिक है, न ही आवश्यक।

इससे उन नागरिकों के लिए अन्याय होता है जो रोजगार या शिक्षा के कारण अन्य राज्यों में रहते हैं।


🔹 निर्णय का महत्व

इस निर्णय ने यह स्पष्ट कर दिया कि —

  1. स्थानीय जमानतदार की शर्त संवैधानिक रूप से संदिग्ध है।
  2. जमानत का अधिकार देशभर में समान रूप से लागू होना चाहिए।
  3. अदालतों को शर्तें लगाते समय संविधान की भावना का ध्यान रखना चाहिए।

इस निर्णय का प्रभाव पूरे भारत में उन हज़ारों अभियुक्तों पर पड़ेगा जो किसी अन्य राज्य या जिले में मुकदमे का सामना कर रहे हैं और जिन्हें “स्थानीय जमानतदार” की शर्त से कठिनाई होती है।


🔹 सुप्रीम कोर्ट की पूर्ववर्ती व्याख्याएँ

सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार कहा है कि —

“जमानत के अधिकार को संकीर्ण दृष्टिकोण से नहीं देखा जा सकता। यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अभिन्न हिस्सा है।”
(Hussainara Khatoon vs State of Bihar, 1979)

और Moti Ram vs State of M.P. (1978) में न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्णा अय्यर ने कहा था —

“गरीब या प्रवासी व्यक्ति से भारी जमानत या स्थानीय जमानतदार की मांग संविधान की समानता की भावना के विरुद्ध है।”

पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट का यह फैसला इसी न्यायिक सोच को पुनः सशक्त करता है।


🔹 निष्कर्ष

Sumit Sharma v. State of Haryana (2025) का यह निर्णय न केवल जमानत कानून के व्यावहारिक पक्ष को मजबूत करता है, बल्कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 की पुनः पुष्टि भी करता है।

न्यायालय ने यह सशक्त संदेश दिया कि —

“स्वतंत्रता कोई विशेषाधिकार नहीं, बल्कि प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार है। इसे किसी प्रशासनिक औचित्य या क्षेत्रीय पूर्वाग्रह के कारण सीमित नहीं किया जा सकता।”

इस निर्णय से यह स्पष्ट हुआ कि जमानत की शर्तें न्यायपूर्ण और समान हों, और देश का कोई भी नागरिक — चाहे वह किसी भी राज्य का निवासी हो — कानून के समक्ष समान अधिकार रखता है।


✍️ निष्कर्षात्मक टिप्पणी:
यह फैसला केवल “एक जमानत शर्त” का प्रश्न नहीं था, बल्कि यह संविधान में निहित समानता और स्वतंत्रता के आदर्शों की पुनः पुष्टि थी।
पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय न्याय व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण कदम है जो यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी नागरिक अपने निवास स्थान के कारण न्याय से वंचित न हो।