शीर्षक: “स्त्रीधन की वापसी का निर्णय मुकदमे में साक्ष्य के आधार पर ही होगा: इलाहाबाद उच्च न्यायालय”
परिचय
भारतीय विवाह व्यवस्था में “स्त्रीधन” एक ऐसा विषय है जो न केवल सामाजिक बल्कि कानूनी दृष्टि से भी अत्यधिक महत्व रखता है। विवाह के समय दिए गए उपहार, आभूषण, संपत्ति आदि को स्त्री का व्यक्तिगत अधिकार माना जाता है। यदि विवाह विच्छेद होता है, तो ‘स्त्रीधन’ की वापसी एक गंभीर कानूनी प्रश्न बन जाती है। इसी मुद्दे पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है, जिसमें कहा गया कि स्त्रीधन की वापसी का निर्णय केवल धारा 27 हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत प्रस्तुत आवेदन पर नहीं, बल्कि परीक्षण (trial) और साक्ष्यों के आधार पर किया जाना चाहिए।
मामले का संक्षिप्त विवरण
यह अपील एक पति द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दायर की गई थी। निचली अदालत ने उसे अपनी पूर्व पत्नी को ₹10,54,364/- की राशि चुकाने का निर्देश दिया था, जो कि कथित रूप से स्त्रीधन के रूप में उसके पास था और जिसकी वापसी नहीं की गई थी। पति ने इस आदेश को चुनौती दी, यह कहते हुए कि उक्त रकम का निर्धारण केवल एकतरफा ढंग से किया गया और इसका सही परीक्षण नहीं हुआ।
अदालत की टिप्पणी और निर्णय
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में कहा:
“Issue of return of streedhan is to be determined at trial and not independently on application under Section 27 of Hindu Marriage Act.“
इसका तात्पर्य यह है कि स्त्रीधन की वापसी का मुद्दा गंभीर प्रकृति का है, जिसे केवल एक साधारण आवेदन या प्रारंभिक सुनवाई पर तय नहीं किया जा सकता। इसके लिए पक्षकारों द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों, गवाहों, और अन्य कानूनी तथ्यों की गहराई से जांच-पड़ताल होनी चाहिए।
धारा 27 – हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 का उद्देश्य
धारा 27 यह प्रावधान करती है कि यदि विवाह विच्छेद (divorce) की प्रक्रिया चल रही है, तो अदालत उन संपत्तियों के संबंध में आदेश दे सकती है जो दोनों पक्षों द्वारा प्राप्त की गई हों और जिनका विवाद हो। परंतु जब मामला केवल स्त्री के निजी अधिकार वाले स्त्रीधन का हो, तो उसे केवल धारा 27 के आवेदन पर तय नहीं किया जा सकता, जब तक कि पूरी तरह से साक्ष्य और न्यायिक परीक्षण न हो।
न्यायिक संतुलन की आवश्यकता
अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि यदि केवल स्त्री के दावे के आधार पर बड़ी राशि की स्वीकृति दे दी जाए और पति को पर्याप्त सुनवाई का अवसर न मिले, तो यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के विपरीत होगा।
व्यापक कानूनी प्रभाव
यह निर्णय एक न्यायिक दिशानिर्देश के रूप में काम करेगा, विशेषकर उन मामलों में जहाँ स्त्रीधन की वापसी को लेकर विवाद हो। इससे यह सुनिश्चित होगा कि न तो किसी महिला के अधिकार का उल्लंघन हो और न ही किसी पुरुष को बिना न्यायसंगत प्रक्रिया के आर्थिक दंड का सामना करना पड़े।
निष्कर्ष
इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह फैसला इस बात की पुष्टि करता है कि स्त्रीधन केवल एक भावनात्मक या पारिवारिक विषय नहीं, बल्कि एक वैधानिक अधिकार है, जिसकी वापसी कानूनी जांच और उचित साक्ष्य के आधार पर ही सुनिश्चित हो सकती है। अदालत का यह रुख न केवल संतुलित न्याय का प्रतीक है, बल्कि भारतीय पारिवारिक कानून की संवेदनशीलता और गंभीरता को भी दर्शाता है।